श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रोगे मरता रोगे जनमै ॥ रोगे फिरि फिरि जोनी भरमै ॥ रोग बंध रहनु रती न पावै ॥ बिनु सतिगुर रोगु कतहि न जावै ॥३॥

पद्अर्थ: रोगे = रोग में ही। फिरि फिरि = बार बार। भरमै = भटकता है। बंधु = बंधन। रहनु = भटकना से निजात, शांति, टिकाव। रती = रक्ती भर भी। कतहि = किसी तरह भी।3।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य किसी ना किसी आत्मिक) रोग में (फसा हुआ) ही मर जाता है, (किसी ना किसी आत्मिक) रोग में (ग्रसा हुआ) ही पैदा होता है, उस रोग के कारण ही बार-बार जूनियों में भटकता रहता है, रोग के बंधनो के कारण (जूनियों में) भटकने से रक्ती भर भी खलासी नहीं मिल सकती। हे भाई! गुरु की शरण के बिना (यह) रोग किसी तरह भी दूर नहीं होता।3।

पारब्रहमि जिसु कीनी दइआ ॥ बाह पकड़ि रोगहु कढि लइआ ॥ तूटे बंधन साधसंगु पाइआ ॥ कहु नानक गुरि रोगु मिटाइआ ॥४॥७॥२०॥

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। पकड़ि = पकड़ के। रोगहु = रोगों से। गुरि = गुरु ने।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा ने मेहर कर दी, उसको उसने बाँह पकड़ के रोगों से बचा लिया। जब उसने गुरु की संगति प्राप्त की, उसके (आत्मिक रोगों के सारे) बंधन टूट गए। हे नानक! कह: (जो भी मनुष्य गुरु की शरण पड़ा,) गुरु ने (उसका) रोग मिटा दिया।4।7।20।

भैरउ महला ५ ॥ चीति आवै तां महा अनंद ॥ चीति आवै तां सभि दुख भंज ॥ चीति आवै तां सरधा पूरी ॥ चीति आवै तां कबहि न झूरी ॥१॥

पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। आवै = (परमात्मा) आ बसता है। सभि = सारे। भंज = नाश। न झूरी = चिन्ता फिक्र नहीं करता।1।

अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य के) हृदय में परमात्मा आ बसता है, तब उसके अंदर बड़ा आनंद बन जाता है, तब उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है, तब उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है, तब वह कभी भी कोई चिन्ता-फिक्र नहीं करता।1।

अंतरि राम राइ प्रगटे आइ ॥ गुरि पूरै दीओ रंगु लाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अंतरि = (जिस मनुष्य के) हृदय में। रामराइ = प्रभु पातशाह। आइ = आ के। गुरि पूरै = पूरे गुरु से। रंगु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु से जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु-पातशाह प्रकट हो जाता है, उसके अंदर रंग लगा देता है (आत्मिक आनंद बना देता है)।1। रहाउ।

चीति आवै तां सरब को राजा ॥ चीति आवै तां पूरे काजा ॥ चीति आवै तां रंगि गुलाल ॥ चीति आवै तां सदा निहाल ॥२॥

पद्अर्थ: को = का। पूरे = सफल हो जाता है। रंगि = रंग में। निहाल = प्रसन्न।2।

अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य के) हृदय में परमात्मा आ बसता है, तब वह (मानो) सबका राजा बन जाता है, तब उसके सारे काम सफल हो जाते हैं, तब वह गाढ़े आत्मिक आनंद में मस्त रहता है, तब वह सदा प्रसन्न-चिक्त रहता है।2।

चीति आवै तां सद धनवंता ॥ चीति आवै तां सद निभरंता ॥ चीति आवै तां सभि रंग माणे ॥ चीति आवै तां चूकी काणे ॥३॥

पद्अर्थ: सद = सदा। निभरंता = भ्रांति के बिना, भटकना से बच जाता है। चूकी = समाप्त हो जाती है। काणे = काणि, अधीनता।3।

अर्थ: हे भाई! (जब परमात्मा किसी मनुष्य के) हृदय में आ बसता है, त बवह सदा के लिए नाम-धन का शाह बन जाता है, तब वह सदा के लिए माया की खातिर भटकना से बच जाता है, त बवह सारे (आत्मिक) आनंद भोगता है, तब उसे किसी की अधीनता नहीं रह जाती।3।

चीति आवै तां सहज घरु पाइआ ॥ चीति आवै तां सुंनि समाइआ ॥ चीति आवै सद कीरतनु करता ॥ मनु मानिआ नानक भगवंता ॥४॥८॥२१॥

पद्अर्थ: सहज घरु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना। सुंनि = शून्य में, उस अवस्था में जहाँ मायावी फुरनों का शून्य ही शून्य है, अफुर अवस्था में। कीरतनु = महिमा। मानिआ = पतीज जाता है।4।

अर्थ: हे भाई! (जब परमात्मा किसी मनुष्य के) हृदय में आ प्रकट होता है, तब वह मनुष्य आत्मिक अडोलता का ठिकाना पा लेता है, तब वह उस आत्मिक अवस्था में लीन रहता है जहाँ माया वाले फुरने नहीं उठते, तबवह सदा परमात्मा की महिमा करता है, हे नानक! तब उसका मन परमात्मा के साथ पतीज जाता है।4।8।21।

भैरउ महला ५ ॥ बापु हमारा सद चरंजीवी ॥ भाई हमारे सद ही जीवी ॥ मीत हमारे सदा अबिनासी ॥ कुट्मबु हमारा निज घरि वासी ॥१॥

पद्अर्थ: बापु = पिता, प्रभु पिता। सद = सदा। सद चरंजीवी = सदा चिरंजीवी, सदा ही कायम रहने वाला। भाई = सत्संगी, आत्मिक जीवन की सांझ रखने वाला। जीवी = आत्मिक जीवन वाले। अबिनासी = अटल आत्मिक जीवन वाले। कुटंबु = परिवार, इंद्रिय, बिरतियां। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु चरणों में। वासी = बसने वाला, टिके रहने वाला।1।

अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया, तब मुझे निश्चय हो गया कि) हम जीवों का प्रभु-पिता सदा कायम रहने वाला है, मेरे साथ आत्मिक सांझ रखने वाले भी सदा ही आत्मिक जीवन वाले बन गए, मेरे साथ हरि-नाम स्मरण का प्रेम रखने वाले सदा के लिए अटल जीवन वाले हो गए, (सारी इन्द्रियों का) मेरा परिवार प्रभु-चरणों में टिके रहने वाला बन गया।1।

हम सुखु पाइआ तां सभहि सुहेले ॥ गुरि पूरै पिता संगि मेले ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हम = हम। सुखु = आत्मिक आनंद। सभहि = सारे (भाई, मित्र, कुटंब)। सुहेले = सुखी। गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। संगि = साथ। मेले = मिला दिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया, मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया, तब (मेरे साथ संबंध रखने वाले मित्र, भाई सारे इंद्रिय- यह) सारे ही (आत्मिक आनंद की इनायत से) सुखी हो गए।1। रहाउ।

मंदर मेरे सभ ते ऊचे ॥ देस मेरे बेअंत अपूछे ॥ राजु हमारा सद ही निहचलु ॥ मालु हमारा अखूटु अबेचलु ॥२॥

पद्अर्थ: मंदर मेरे = मेरे घर, मेरी जिंद के टिके रहने वाले आत्मिक स्थान, वह अवस्था जहाँ मेरी जिंद टिकी रहती है। ते = से। देस मेरे = मेरे प्राणों के आत्मिक ठिकाने। अपूछे = (जम की) पूछ पड़ताल से परे। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। राजु = हकूमत, अपनी इन्द्रियों पर हकूमत। मालु = संपत्ति, हरि नाम की राशि। अखूटु = कभी ना खत्म होने वाला। अबेचलु = अबिचल, सदा कायम रहने वाला।2।

अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया, तब मेरी जिंद के टिके रहने वाले) ठिकाने सारी (मायावी प्रेरणाओं) से ऊँचे हो गए कि यम-राज वहाँ कुछ पूछने के लायक ही ना रहा। तब मेरी अपनी इन्द्रियों पर हकूमत सदा के लिए अटल हो गई, तब मेरे पास इतना नाम-खजाना इकट्ठा हो गया, जो खत्म ही ना हो सके, जो सदा के लिए कायम रहे।2।

सोभा मेरी सभ जुग अंतरि ॥ बाज हमारी थान थनंतरि ॥ कीरति हमरी घरि घरि होई ॥ भगति हमारी सभनी लोई ॥३॥

पद्अर्थ: सभ जुग अंतरि = सारे जुगों में। बाज = मशहूरी। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। कीरति = महिमा, बड़ाई, कीर्ति। घरि घरि = हरेक घर में। भगति = सेवा मानता। लोई = लोगों में।3।

अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया,मुझे समझ आ गई कि यह जो प्रभु की शोभा) सारे युगों में हो रही है मेरे वास्ते भी यही शोभा है (यह जो) हरेक जगह में (प्रभु की) कीर्ति हो रही है, (यह जो) हरेक घर में (प्रभु की) महिमा हो रही है, मेरे लिए भी यही है, (यह जो) सब लोगों में (प्रभु की) भक्ति हो रही है मेरे लिए भी यही है (प्रभु-चरणों में मिलाप की इनायत से मुझे किसी शोभा मशहूरी कीर्ति आदर-मान की वासना नहीं रही)।3।

पिता हमारे प्रगटे माझ ॥ पिता पूत रलि कीनी सांझ ॥ कहु नानक जउ पिता पतीने ॥ पिता पूत एकै रंगि लीने ॥४॥९॥२२॥

पद्अर्थ: माझ = (हमारे) हृदय में। रलि = मिल के। सांझ = प्यार। जउ = जब। पतीने = (पुत्र पर) प्रसन्न हो गए। एकै रंगि = एक ही प्यार में। लीने = लीन हो गए, एक मेक हो गए।4।

अर्थ: हे भाई! (जब पूरे गुरु ने मुझे प्रभु-पिता के साथ मिला दिया) प्रभु-पिता मेरे हृदय में प्रकट हो गए, प्रभु-पिता ने मेरे साथ इस तरह प्यार डाल लिया जैसे पिता अपने पुत्र के साथ प्यार बनाता है।

हे नानक! कह: जब पिता-प्रभु (अपने किसी पुत्र पर) दयावान होता है, तब प्रभु-पिता और जीव-पुत्र एक ही प्यार में एक-मेक हो जाते हैं।4।9।22।

भैरउ महला ५ ॥ निरवैर पुरख सतिगुर प्रभ दाते ॥ हम अपराधी तुम्ह बखसाते ॥ जिसु पापी कउ मिलै न ढोई ॥ सरणि आवै तां निरमलु होई ॥१॥

पद्अर्थ: निरवैर = हे किसी से वैर ना रखने वाले! दाते = हे दातार! बखसाते = बख्शने वाले। कउ = को। ढोई = आसरा। निरमलु = पवित्र।1।

अर्थ: हे किसी से वैर ना रखने वाले गुरु पुरख! हे दातार प्रभु! हम (जीव) भूल (-चूक) करने वाले हैं, तुम (हमारी) भूलें बख्शने वाले हो। हे सतिगुरु! जिस पापी को और कहीं आसरा नहीं मिलता, जब वह तेरी शरण आ जाता है, तब वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है।1।

सुखु पाइआ सतिगुरू मनाइ ॥ सभ फल पाए गुरू धिआइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनाइ = मना के, प्रसन्न कर के। पाए = हासिल कर लिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु को हृदय में बसा के (मनुष्य) सारे (इच्छित) फल हासिल कर लेता है। गुरु को प्रसन्न करके (मनुष्य) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।

पारब्रहम सतिगुर आदेसु ॥ मनु तनु तेरा सभु तेरा देसु ॥ चूका पड़दा तां नदरी आइआ ॥ खसमु तूहै सभना के राइआ ॥२॥

पद्अर्थ: पाब्रहम = हे पारब्रहम! आदेसु = नमस्कार। चूका = समाप्त हो गया। पड़दा = माया के मोह वाली भिक्ति। नदरी आइआ = दिख गया। राइआ = हे पातिशाह!।2।

अर्थ: हे गुरु! हे प्रभु! (तुझे मेरी) नमस्कार है। (हम जीवों का यह) मन (यह) तन तेरा ही दिया हुआ है (जो कुछ दिखाई दे रहा है) सारा तेरा ही देश है (हर जगह तू ही बस रहा है)। हे सब जीवों के पातशाह! तू (सबका) पति है। (जब किसी जीव के अंदर से माया के मोह का) पर्दा गिर जाता है तब तू उसको दिखाई दे जाता है।2।

तिसु भाणा सूके कासट हरिआ ॥ तिसु भाणा तां थल सिरि सरिआ ॥ तिसु भाणा तां सभि फल पाए ॥ चिंत गई लगि सतिगुर पाए ॥३॥

पद्अर्थ: तिसु भाणा = उस (प्रभु) को अच्छा लगे। कासट = काठ, लकड़ी। थल सिरि = थल के सिर पर। सरिआ = सर, सरोवर। सभि = सारे। सतिगुर पाए = गुरु के चरणों में।3

अर्थ: हे भाई! यदि उस प्रभु को ठीक लगे तो सूखे काष्ठ हरे हो जाते हैं, थल पर सरोवर बन जाता है। जब कोई मनुष्य उस प्रभु को अच्छा लग जाए, तब वह सारे फल प्राप्त कर लेता है, गुरु के चरणों में लग के (उसके अंदर से) चिन्ता दूर हो जाता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh