श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1142 हरामखोर निरगुण कउ तूठा ॥ मनु तनु सीतलु मनि अम्रितु वूठा ॥ पारब्रहम गुर भए दइआला ॥ नानक दास देखि भए निहाला ॥४॥१०॥२३॥ पद्अर्थ: हरामखोर = बेगाना हक खाने वाला। तूठा = दयाल हो जाता है। सीतलु = ठंडा, शांत। मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। वूठा = बस गया। देखि = देख के। निहाला = प्रसन्न।4। अर्थ: हे भाई! पराया हक खाने वाले गुण-हीन मनुष्य पर भी जब परमात्मा दयालु हो जाता है, उसका मन, उसका तन शांत हो जाता है, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है। हे नानक! जिस सेवकों पर गुरु परमात्मा दयालु होते हैं वे दर्शन करके निहाल हो जाते हैं।4।1।23। भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु मेरा बेमुहताजु ॥ सतिगुर मेरे सचा साजु ॥ सतिगुरु मेरा सभस का दाता ॥ सतिगुरु मेरा पुरखु बिधाता ॥१॥ पद्अर्थ: बेमुहताजु = किसी की अधीनता नहीं। सचा = सदा कायम रहने वाला। साजु = मर्यादा। सभस दा = सब जीवों का। बिधाता = विधाता प्रभु (का रूप)।1। अर्थ: हे भाई! प्यारे गुरु को किसी की अधीनता नहीं (गुरु की अपनी कोई जाती गरज़ नहीं अपना व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं) - गुरु की यह सदा कायम रहने वाली मर्यादा है (कि वह सदा बेगर्ज है)। हे भाई! गुरु सब जीवों को (दातें) देने वाला है। गुरु और विधाता अकाल-पुरख एक-रूप है।1। गुर जैसा नाही को देव ॥ जिसु मसतकि भागु सु लागा सेव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = कोई। देव = देवता। मसतकि = माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु जैसा कोई और देवता नहीं है। जिस (मनुष्य) के माथे पर अच्छी किस्मत (जाग उठे) वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है।1। रहाउ। सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै ॥ सतिगुरु मेरा मारि जीवालै ॥ सतिगुर मेरे की वडिआई ॥ प्रगटु भई है सभनी थाई ॥२॥ पद्अर्थ: प्रतिपालै = पालना करता है। मारि = (माया के मोह से) मार के। जीवालै = आत्मिक जीवन देता है। वडिआई = शोभा।2। अर्थ: हे भाई! प्यारा गुरु सब जीवों की रक्षा करता है, (जो मनुष्य उसके दर पर आता है, उसको माया के मोह से उपराम करके) मार के आत्मिक जीवन दे देता है। हे भाई! गुरु की यह ऊँची शोभा हर जगह रौशन हो गई है।2। सतिगुरु मेरा ताणु निताणु ॥ सतिगुरु मेरा घरि दीबाणु ॥ सतिगुर कै हउ सद बलि जाइआ ॥ प्रगटु मारगु जिनि करि दिखलाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: ताणु = सहारा। निताणु = निआसरा मनुष्य। घरि = हृदय घर में। दीबाणु = आसरा। कै = से। हउ = मैं। सद = सदा। बलि जाइआ = सदके हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। प्रगटु = प्रत्यक्ष, सीधा। मारगु = रास्ता।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का और कोई भी आसरा नहीं (जब वह गुरु की शरण आ पड़ता है) गुरु (उसका) आसरा बन जाता है, गुरु उसके हृदय-घर को सहारा देता है। हे भाई! जिस (गुरु) ने आत्मिक जीवन का सीधा रास्ता दिखा दिया है, मैं उससे सदा कुर्बान जाता हूँ।3। जिनि गुरु सेविआ तिसु भउ न बिआपै ॥ जिनि गुरु सेविआ तिसु दुखु न संतापै ॥ नानक सोधे सिम्रिति बेद ॥ पारब्रहम गुर नाही भेद ॥४॥११॥२४॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। न संतापै = दुखी नहीं कर सकता। सोधे = खोज के देख लिए हैं। भेद = फर्क, अंतर।4। अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) ने गुरु की शरण ली है, कोई डर उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। हे नानक! (कह: हे भाई!) स्मृतियां-वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) खोज के देख लिए हैं (गुरु सबसे ऊँचा है) गुरु और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है।4।11।24। भैरउ महला ५ ॥ नामु लैत मनु परगटु भइआ ॥ नामु लैत पापु तन ते गइआ ॥ नामु लैत सगल पुरबाइआ ॥ नामु लैत अठसठि मजनाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: लैत = लेते हुए, जपते हुए। परगटु = रौशन। तन ते = शरीर से। सगल पुरबाइआ = सारे पर्व, सारे पवित्र दिन। अठसठि = अढ़सठ (तीर्थ)। मजनाइआ = स्नान (हो जाता है)।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन (विकारों के अंधकार में से निकल के) रौशन हो जाता है (क्योंकि) नाम स्मरण करते हुए (हरेक किस्म का) पाप शरीर से दूर हो जाता है। हे भाई! नाम स्मरण करते हुए (मानो) सारे पर्व मनाए गए, नाम जपते हुए अढ़सठ तीर्थों का स्नान हो गया।1। तीरथु हमरा हरि को नामु ॥ गुरि उपदेसिआ ततु गिआनु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हमरा = हमारा। को = का। गुरि = गुरु ने। ततु गिआन = ज्ञान का तत्व, आत्मिक जीवन की सूझ का निचोड़।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही हमारा तीर्थ है। गुरु ने (हमें) आत्मिक जीवन की सूझ का यह निचोड़ समझा दिया है।1। रहाउ। नामु लैत दुखु दूरि पराना ॥ नामु लैत अति मूड़ सुगिआना ॥ नामु लैत परगटि उजीआरा ॥ नामु लैत छुटे जंजारा ॥२॥ पद्अर्थ: दूरि पराना = दूर हो जाता है। अति मूढ़ = बड़ा मूर्ख। सुगिआना = अच्छा समझदार। परगटि = प्रकट हो जाता है। छुटे = समाप्त हो जाते हैं। जंजारा = जंजाल, मन के मोह के बंधन।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन (विकारों के अंधेरे से निकल के) प्रकाशमान हो जाता है। हे भाई! नाम स्मरण करने से (जैसे) मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है (क्योंकि) नाम जपते हुए (मन के माया के मोह के सारे) बंधन कट जाते हैं।2। नामु लैत जमु नेड़ि न आवै ॥ नामु लैत दरगह सुखु पावै ॥ नामु लैत प्रभु कहै साबासि ॥ नामु हमारी साची रासि ॥३॥ पद्अर्थ: नेड़ि = नजदीक। दरगह = परमात्मा की हजूरी में। कहै साबासि = आदर सत्कार करता है। साची = सदा कायम रहने वाली। रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से जम (मनुष्य के) नजदीक नहीं आता, मनुष्य परमात्मा की हजूरी में टिक के आत्मिक आनंद लेता है, नाम स्मरण करने से परमात्मा (भी) आदर-मान देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही हम जीवों के लिए सदा कायम रहने वाली राशि-पूंजी है।3। गुरि उपदेसु कहिओ इहु सारु ॥ हरि कीरति मन नामु अधारु ॥ नानक उधरे नाम पुनहचार ॥ अवरि करम लोकह पतीआर ॥४॥१२॥२५॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सारु = श्रेष्ठ। कीरति = कीर्ति, महिमा। अधारु = आसरा। उधरे = संसार समुंदर से पार लांघ गए। पुनहचार = किए पापों की निवृक्ति के लिए प्रायश्चित कर्म। अवरि = और। लोकह पतीआर = लोगों को (अपने धार्मिक होने की) तसल्ली देने के लिए।4। नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे भाई! गुरु ने (मुझे) यह सबसे बढ़िया उपदेश दे दिया है कि परमात्मा की महिमा परमात्मा का नाम (ही) मन का आसरा है। हे नानक! वह मनुष्य (विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं, जो नाम जपने का प्रायश्चित कर्म करते हैं। और सारे (प्रायश्चित) कर्म लोगों की तसल्ली करवाने के लिए हैं (कि हम धार्मिक बन गए हैं)।4।12।25। भैरउ महला ५ ॥ नमसकार ता कउ लख बार ॥ इहु मनु दीजै ता कउ वारि ॥ सिमरनि ता कै मिटहि संताप ॥ होइ अनंदु न विआपहि ताप ॥१॥ पद्अर्थ: ता कउ = उस (परमात्मा) को। बार = बारी। वारि दीजै = सदके कर दें। ता कै सिमरनि = उस (प्रभु) के नाम-जपने की इनायत से। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। संताप = दुख-कष्ट। न विआपहि = अपना जोर नहीं डाल सकते।1। अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा के आगे लाखों बार सिर झुकाना चाहिए, अपना यह मन उस परमात्मा के आगे भेट कर देना चाहिए। हे भाई! उस परमात्मा के नाम के नाम-जपने की इनायत से (सारे) दुख-कष्ट मिट जाते हैं, (मन में) खुशी पैदा होती है, कोई भी दुख अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। ऐसो हीरा निरमल नाम ॥ जासु जपत पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हीरा = कीमती पदार्थ। निरमल = पवित्र (करने वाला)। जासु जपत = जिसको जपते हुए। सभि = सारे। काम = काम।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जीवों के हृदय) पवित्र करने वाला हरि-नाम ऐसा कीमती पदार्थ है कि उसको जपते हुए सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ। जा की द्रिसटि दुख डेरा ढहै ॥ अम्रित नामु सीतलु मनि गहै ॥ अनिक भगत जा के चरन पूजारी ॥ सगल मनोरथ पूरनहारी ॥२॥ पद्अर्थ: जा की द्रिसटि = जिस की (मेहर की) निगाह से। ढहै = ढहि जाता है (एकवचन)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सीतलु = ठंडा, शांति देने वाला। मनि = मन में। गहै = पकड़ के रखता है। पूजारी = पुजारी, पूजा करने वाला। मनोरथ = मांगें, जरूरतें। पूरनहारी = पूरी करने वाला।2। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की मेहर की निगाह से (मनुष्य के अंदर से) दुखों का डेरा ढहि जाता है, (जो मनुष्य उसका) आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने) मन में बसाता है (उसका हृदय) ठंडा-ठार हो जाता है। हे भाई! अनेक ही भक्त जिस परमात्मा के चरण पूज रहे हैं, वह प्रभु (अपने भक्तों के) सारे उद्देश्य पूरे करने वाला है।2। खिन महि ऊणे सुभर भरिआ ॥ खिन महि सूके कीने हरिआ ॥ खिन महि निथावे कउ दीनो थानु ॥ खिन महि निमाणे कउ दीनो मानु ॥३॥ पद्अर्थ: ऊणे = खाली। सुभर = नाको नाक।3। अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा का नाम) खाली (हृदयों) को एक छिन में (गुणों से) लबा-लब भर देता है, (आत्मिक जीवन वाले) सूखे हुओं को एक छिन में हरे कर देता है, जिसको कहीं कोई आदर-सत्कार नहीं देता, वह परमात्मा उसको एक छिन में आदर-मान बख्श देता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |