श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सभ महि एकु रहिआ भरपूरा ॥ सो जापै जिसु सतिगुरु पूरा ॥ हरि कीरतनु ता को आधारु ॥ कहु नानक जिसु आपि दइआरु ॥४॥१३॥२६॥

पद्अर्थ: रहिआ भरपूरा = पूरी तौर पर बस रहा है। जापै = जपता है। ता को = उसके हृदय में। आधारु = आसरा। दइआरु = दयावान।4।

अर्थ: हे भाई! सब जीवों में वह परमात्मा ही पूरे तौर पर बस रहा है। (पर उसका नाम) वह मनुष्य (ही) जपता है, जिसको पूरा गुरु (प्रेरित करता है)। हे नानक! कह: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं दयावान होता है उसके हृदय में परमात्मा की महिमा आसरा बन जाती है।4।13।26।

भैरउ महला ५ ॥ मोहि दुहागनि आपि सीगारी ॥ रूप रंग दे नामि सवारी ॥ मिटिओ दुखु अरु सगल संताप ॥ गुर होए मेरे माई बाप ॥१॥

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। दोहागनि = (दुर्भागिनी) बुरे भाग्यों वाली। सीगारी = श्रृंगार लिया, सजा ली। दे = दे कर। नामि = नाम में (जोड़ के)। सवारी = सुंदर बना ली। अरु = और (अरि = वैरी)। संताप = कष्ट। माई = माँ।1।

अर्थ: हे सहेलियो! (मैं) बुरे भाग्यों वाली (थी) मुझे (पति-प्रभु ने) स्वयं (आत्मिक जीवन के गहनों से) सजा लिया, (मुझे सुंदर आत्मिक) रूप दे के (सुंदर) प्रेम बख्श कर (अपने) नाम में (जोड़ के उसने मुझे) सुंदर आत्मिक जीवन वाली बना लिया। हे सहेलियो! (मेरे अंदर से) दुख मिट गया है सारे कष्ट मिट गए हैं (ये सारी मेहर गुरु ने कराई है, गुरु ने ही कंत प्रभु से मिलाया है) सतिगुरु ही (मेरे वास्ते) मेरी माँ मेरा पिता बना है।1।

सखी सहेरी मेरै ग्रसति अनंद ॥ करि किरपा भेटे मोहि कंत ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सखी = हे सखिओ! सहेरी = हे सहेलीयो! मेरै ग्रसति = मेरे (हृदय-) घर में। करि = कर के। भेटे = मिल गए हैं। मोहि = मुझे। कंत = पति (प्रभु) जी।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी सखियो! हे मेरी सहेलियो! मेरे (हृदय-) घर में आत्मिक आनंद बन गया है, (क्योंकि) मेरे पति (प्रभु) जी मेहर कर के मुझे मिल गए हैं।1। रहाउ।

तपति बुझी पूरन सभ आसा ॥ मिटे अंधेर भए परगासा ॥ अनहद सबद अचरज बिसमाद ॥ गुरु पूरा पूरा परसाद ॥२॥

पद्अर्थ: तपति = (तृष्णा अग्नि की) जलन। परगासा = रौशनी। अनहद सबद = एक रस सारे साजों का राग। बिसमाद = हैरान कर देने वाली अवस्था। परसाद = कृपा।2।

अर्थ: हे सहेलियो! (अब मेरे अंदर से तृष्णा की आग की) जलन बुझ गई है, मेरी हरेक आशा पूरी हो गई है, (मेरे अंदर से माया के मोह के सारे) अंधेरे मिट गए हैं, (मेरे अंदर से आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो गया है (अब यूँ हो गया है जैसे) एक-रस सारे साजों के राग (मेरे अंदर हो रहे हैं) (मेरे अंदर) आश्चर्य और हैरान करने वाली (ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है)। (हे सहेलियो! यह सब कुछ) पूरा गुरु ही (करने वाला है, यह) पूरे (गुरु की ही) मेहर हुई है।2।

जा कउ प्रगट भए गोपाल ॥ ता कै दरसनि सदा निहाल ॥ सरब गुणा ता कै बहुतु निधान ॥ जा कउ सतिगुरि दीओ नामु ॥३॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस को, जिसके हृदय में। ता कै दरसनि = उसके दर्शन से। निहाल = प्रसन्न। ता कै = उसके अंदर। निधान = खजाना। सतिगुरि = गुरु ने।3।

अर्थ: हे सहेलियो! जिस (सौभाग्यशाली) के अंदर गोपाल-प्रभु प्रकट हो जाता है, उसके दर्शन की इनायत से सदा निहाल हो जाया जाता है। हे सहेलियो! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा का नाम (-खजाना) दे दिया, उसके हृदय में सारे (आत्मिक) गुण पैदा हो जाते हैं उसके अंदर (मानो) भारा खजाना एकत्र हो जाता है।3।

जा कउ भेटिओ ठाकुरु अपना ॥ मनु तनु सीतलु हरि हरि जपना ॥ कहु नानक जो जन प्रभ भाए ॥ ता की रेनु बिरला को पाए ॥४॥१४॥२७॥

पद्अर्थ: भेटिओ = मिल गया। सीतलु = शांत। जपना = जपते हुए। भाए = प्यारे लगे। ता की = उनकी। रेनु = चरण धूल। बिरला को = कोई विरला मनुष्य।4।

अर्थ: हे सहेलियो! जिस मनुष्य को अपना मालिक-प्रभु मिल जाता है, परमात्मा का नाम हर वक्त जपते हुए उसका मन उसका तन ठंडा-ठार हो जाता है।

हे नानक! कह: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को प्यारे लगने लग जाते हैं, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य उनके चरणों की धूल हासिल करता है।4।14।27।

भैरउ महला ५ ॥ चितवत पाप न आलकु आवै ॥ बेसुआ भजत किछु नह सरमावै ॥ सारो दिनसु मजूरी करै ॥ हरि सिमरन की वेला बजर सिरि परै ॥१॥

पद्अर्थ: चितवत = चितवते हुए, सोचते हुए। आलकु = आलस। भजत = भोगते हुए। बजर = बिजली, वज्र। सरि = सिर पर।1।

अर्थ: हे भाई! (गलत राह पर पड़ा हुआ मनुष्य) पाप सोचते हुए (रक्ती भर भी) ढील नहीं करता, वेश्या के द्वार पर जाने से भी थोड़ी सी शर्म नहीं करता। (माया की खातिर) सारा ही दिन मजदूरी कर सकता है, पर जब परमात्मा के स्मरण का वक्त होता है (तब ऐसा होता है जैसे इसके) सिर पर बिजली आ गिरी है।1।

माइआ लगि भूलो संसारु ॥ आपि भुलाइआ भुलावणहारै राचि रहिआ बिरथा बिउहार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लगि = लग के, पड़ कर। भूलो = गलत राह पर पड़ा हुआ है। भुलावणहारै = गलत रास्ते पर डालने की समर्थता वाले हरि ने। राचि रहिआ = मगन हो रहा है। बिउहार = व्यवहारों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जगत माया के मोह में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है। (पर, जगत के भी क्या वश?) गलत राह पर डालने वाले परमात्मा ने खुद (ही जगत को) गलत मार्ग पर डाला हुआ है (इस वास्ते जगत) व्यर्थ के व्यवहारों में ही मगन रहता है।1। रहाउ।

पेखत माइआ रंग बिहाइ ॥ गड़बड़ करै कउडी रंगु लाइ ॥ अंध बिउहार बंध मनु धावै ॥ करणैहारु न जीअ महि आवै ॥२॥

पद्अर्थ: माइआ रंग = माया के रंग तमाशे। बिहाइ = (उम्र) बीतती है। गड़बड़ = (हिसाब में) हेरा फेरी। रंगु = प्यार। कउडी = तुच्छ माया में। लाइ = लगा के। अंध बिउहार = (माया के मोह में) अंधे कर देने वाले कार्य व्यवहार। बंध = बंधन। धावै = दौड़ता है। जीअ महि = हृदय में।2।

अर्थ: हे भाई! माया के रंग-तमाशे देखते ही (गलत मार्ग पर पड़े मनुष्य की उम्र) बीत जाती है, तुच्छ सी माया से प्यार डाल के (रोजाना कार्य-व्यवहार में भी) हेरा-फेरी करता रहता है। हे भाई! माया के मोह में अंधा कर देने वाला कार्य-व्यवहार के बंधनो की ओर (कुमार्ग पर पड़े मनुष्य का) मन दौड़ता रहता है, पर पैदा करने वाला परमात्मा इसके हृदय को याद नहीं आता।2।

करत करत इव ही दुखु पाइआ ॥ पूरन होत न कारज माइआ ॥ कामि क्रोधि लोभि मनु लीना ॥ तड़फि मूआ जिउ जल बिनु मीना ॥३॥

पद्अर्थ: करत करत = करते करते। इव ही = इसी तरह। कारज = काम (बहुवचन)। कामि = काम-वासना में। तड़फि मूआ = दुखी हो हो के आत्मिक मौत सहेड़े जाता है। मीना = मछली।3।

अर्थ: हे भाई! (कुमार्ग पर पड़ा मनुष्य) इस तरह करते-करते दुख भोगता है, माया वाले (इसके) काम कभी समाप्त नहीं होते। काम-वासना में, क्रोध में, लोभ में (इस का) मन डूबा रहता है; जैसे मछली पानी के बग़ैर तड़फ-तड़फ के मरती है, वैसे ही नाम के बिना विकारों में ग्रसित हो-हो के ये आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।3।

जिस के राखे होए हरि आपि ॥ हरि हरि नामु सदा जपु जापि ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ ॥४॥१५॥२८॥

पद्अर्थ: जापि = जपता है। साध संगि = गुरु की संगति में। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: पर, हे भाई! प्रभु जी स्वयं जिस मनुष्य के रक्षक बन गए, वह मनुष्य सदा ही प्रभु का नाम जपता है। हे नानक! जिस मनुष्य को (प्रभु की कृपा से) पूरा गुरु मिल जाता है, वह साधु-संगत में रह कर परमात्मा के गुण गाता है।4।15।28।

भैरउ महला ५ ॥ अपणी दइआ करे सो पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ साच सबदु हिरदे मन माहि ॥ जनम जनम के किलविख जाहि ॥१॥

पद्अर्थ: करे = (परमात्मा) स्वयं करता है। सो पाए = वह (मनुष्य हरि नाम) प्राप्त कर लेता है। मंनि = मन में। साच सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। किलविख = (सारे) पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं (बहुवचन)।1।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा अपनी मेहर करता है, वह मनुष्य (हरि-नाम का स्मरण) प्राप्त कर लेता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम अपने मन में बसा लेता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द अपने हृदय में अपने मन में टिकाए रखता है (जिसकी इनायत से मनुष्य के) अनेक जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं।1।

राम नामु जीअ को आधारु ॥ गुर परसादि जपहु नित भाई तारि लए सागर संसारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीअ को = जिंद का। आधारु = आसरा। परसादि = कृपा से। भाई = हे भाई! सागर = समुंदर।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (मनुष्य की) जिंद का आसरा है। (इसलिए) गुरु की कृपा से (यह नाम) सदा जपा करो, (प्रभु का नाम) संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

जिन कउ लिखिआ हरि एहु निधानु ॥ से जन दरगह पावहि मानु ॥ सूख सहज आनंद गुण गाउ ॥ आगै मिलै निथावे थाउ ॥२॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। से जन = वह लोग (बहुवचन)। मानु = आदर। सहज = आत्मिक अडोलता। आगै = परमात्मा की हजूरी में।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के माथे पर परमात्मा ने इस नाम-खजाने की प्राप्ति लिखी होती है, वह मनुष्य (नाम जप के) परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं। हे भाई! परमात्मा के गुण गाया करो, (गुण गाने की इनायत से) आत्मिक अडोलता के सुख आनंद (प्राप्त होते हैं), (जिस मनुष्य को जगत में) कोई भी जीव सहारा नहीं देता, उसको परमात्मा की हजूरी में जगह मिलती है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh