श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1148 भैरउ महला ५ ॥ गुर मिलि तिआगिओ दूजा भाउ ॥ गुरमुखि जपिओ हरि का नाउ ॥ बिसरी चिंत नामि रंगु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥१॥ पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = (परमात्मा के बिना) अन्य प्यार, माया का मोह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। नामि = नाममें। रंगु = प्रेम। जनम जनम का = अनेक जनमों का।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के (अपने अंदर से) माया का मोह छोड़ दिया, जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपना शुरू कर दिया, (उसके मन की) चिन्ता समाप्त हो गई, परमात्मा के नाम में उसका प्यार बन गया, अनेक जन्मों के माया के मोह की नींद में सोया हुआ अब वह जाग गया (उसको जीवन-जुगति की समझ आ गई)।1। करि किरपा अपनी सेवा लाए ॥ साधू संगि सरब सुख पाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि = कर के। साधू संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेहर करके परमात्मा (जिस मनुष्य को) अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, वह मनुष्य संगत में टिक के सारे आत्मिक आनंद पाता है।1। रहाउ। रोग दोख गुर सबदि निवारे ॥ नाम अउखधु मन भीतरि सारे ॥ गुर भेटत मनि भइआ अनंद ॥ सरब निधान नाम भगवंत ॥२॥ पद्अर्थ: गुर सबदि = गुरु के शब्द से। निवारे = दूर कर लिए। अउखधु = दवाई। भीतरि = में। सारे = सम्भालता है, संभाल के रखता है। गुर भेटत = गुरु को मिलते हुए। मनि = मन में। सरब = सारे। निधन = खजाने। दोख = ऐब, विकार।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के (अपने मन में से) रोग और विकार दूर कर लिए, जो मनुष्य नाम-दारू अपने मन में संभाल के रखता है, गुरु को मिल के उसके मन में आनंद बन आता है। हे भाई! भगवान का नाम सारे सुखों का खजाना है।2। जनम मरण की मिटी जम त्रास ॥ साधसंगति ऊंध कमल बिगास ॥ गुण गावत निहचलु बिस्राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥ पद्अर्थ: जम त्रास = जमराज का सहम। त्रास = डर, सहम। ऊंध = उल्टा हुआ, माया की तरफ परता हुआ। बिगास = खेड़ा, खिलाव। गावत = गाते हुए। निहचलु = (माया के हमलों से) अडोल। बिस्राम = ठिकाना। काम = काम।3। अर्थ: हे भाई! (मेहर करके प्रभु जिस मनुष्य को अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, उसके मन में से) जनम-मरण के चक्करों का सहम जम-राज का डर मिट जाता है, साधु-संगत की इनायत से उसका (पहले माया केमोह की ओर) उल्टा हुआ कमल-हृदय खिल उठता है। परमात्मा के गुण गाते हुए (उसको वह आत्मिक) ठिकाना (मिल जाता है जो माया के हमलों के मुकाबले पर) अडोल रहता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं।3। दुलभ देह आई परवानु ॥ सफल होई जपि हरि हरि नामु ॥ कहु नानक प्रभि किरपा करी ॥ सासि गिरासि जपउ हरि हरी ॥४॥२९॥४२॥ पद्अर्थ: दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाली। देह = काया, मनुष्य शरीर। आईपरवानु = स्वीकार हो गई। जपि = जप के। नानक = हे नानक! प्रभि = प्रभु ने। सासि = हरेक सांस के साथ। गिरासि = हरेक ग्रास के साथ। जपउ = मैं जपता हूँ।4। अर्थ: हे भाई! (मेहर करके प्रभु जिस मनुष्य को अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है) परमात्मा का नाम सदा जपके उस का यह दुर्लभ शरीर (लोक-परलोक में) स्वीकार हो जाता है। हे नानक! कह: (हे भाई!) प्रभु ने (मेरे पर) मेहर की है, मैं भी हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ उसका नाम जप रहा हूँ।4।29।42। भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊचा जा का नाउ ॥ सदा सदा ता के गुण गाउ ॥ जिसु सिमरत सगला दुखु जाइ ॥ सरब सूख वसहि मनि आइ ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। जा का = जिस (परमात्मा) का। नाउ = नाम, बड़ाई, महिमा। ता के = उस (प्रभु) के। गाउ = गाया कर। सिमरत = स्मरण करते हुए। सगला = सारा। सरब सूख = सारे सुख (बहुवचन)। वसहि = आ बसते हैं (बहुवचन)। मनि = मनमें। आइ = आ के।1। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की बड़ाई सबसे ऊँची है, जिसका स्मरण करते हुए सारे दुख दूर हो जाते हैं और सारे आनंद मन में आ बसते हैं, तू सदा ही उसके गुण गाया कर।1। सिमरि मना तू साचा सोइ ॥ हलति पलति तुमरी गति होइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मना = हे मन! साचा = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह (प्रभु) ही। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! तू उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को ही स्मरण किया कर (नाम-जपने की इनायत से) इस लोक में और परलोक में तेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बनी रहेगी।1। रहाउ। पुरख निरंजन सिरजनहार ॥ जीअ जंत देवै आहार ॥ कोटि खते खिन बखसनहार ॥ भगति भाइ सदा निसतार ॥२॥ पद्अर्थ: पुरख = सर्व व्यापक। निरंजन = (निर+अंजन) (माया के मोह की) कालख से रहित। आहार = खुराक़। कोटि = करोड़ों। खते = पाप (बहुवचन)। भाइ = प्यार में। (भाउ = प्यार)। निसतार = पार लंघाने वाला।2। अर्थ: हे मन! (तू सदा उस सदा-स्थिर प्रभूका स्मरण किया कर) जो सर्व-व्यापक है, जो माया के मोह की कालिख़ से रहित है, जो सबको पैदा करने वाला है, जो सब जीवों को खाने के लिए ख़ुराक देता है, जो (जीवों के) करोड़ों पाप एक छिन में बख्श सकने वाला है, जो उन जीवों को सदा संसार-समुंदर से पार लंघा देता है जो प्रेम में टिक के उसकी भक्ति करते हैं।2। साचा धनु साची वडिआई ॥ गुर पूरे ते निहचल मति पाई ॥ करि किरपा जिसु राखनहारा ॥ ता का सगल मिटै अंधिआरा ॥३॥ पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहनेवाली। वडिआई = इज्जत। ते = से। निहचल = (विकारों की तरफ) ना डोलने वाली। पाई = प्राप्त कर ली। करि = कर के। ता का = उस (मनुष्य) का। अंधिआरा = (माया के मोह वाला) अंधेरा।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरु से विकारों से अडोल रहने वाली नाम-जपने की मति प्राप्त कर ली, उसको सदा कायम रहने वाला नाम-धन मिल गया, उसको सदा-स्थिर रहने वाली (लोक-परलोक की) शोभा मिल गई। हे भाई! रक्षा करने वाला प्रभु जिस मनुष्य को मेहर कर के (नाम-जपने की दाति देता है) उसके अंदर से माया के मोह का सारा अंधेरा दूर हो जाता है।3। पारब्रहम सिउ लागो धिआन ॥ पूरन पूरि रहिओ निरबान ॥ भ्रम भउ मेटि मिले गोपाल ॥ नानक कउ गुर भए दइआल ॥४॥३०॥४३॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। निरबान = वासना रहित। भ्रम = भटकना। मेटि = मिटा के, दूर कर के। नानक कउ = हे नानक! जिस को। दइआल = दयावान।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर सतिगुरु जी दयावान होते हैं, उसकी तवज्जो परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसको वासना-रहित प्रभु हर जगह बसता दिखाई देता है (व्यापक दिखता है), वह मनुष्य (अपने अंदर से) हरेक किस्म की भटकना और डर मिटा के सृष्टि के पालक प्रभु को मिल जाता है।4।30।43। भैरउ महला ५ ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासु ॥ मिटहि कलेस सुख सहजि निवासु ॥ तिसहि परापति जिसु प्रभु देइ ॥ पूरे गुर की पाए सेव ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। प्रगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवनकी सूझ। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। सूख निवासु = सुखों में निवास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। तिसहि = उस (मनुष्य) को ही। देइ = देता है। पाए = पाता है, जोड़ता है।1। नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से (मनुष्य के) मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो जाती है (जिसका स्मरण करके सारे) कष्ट मिट जाते हैं, सुखों में आत्मिक अडोलता में टिक जाता है, वह परमात्मा जिस मनुष्य को (नाम-जपने की दाति) देता है उसी को मिलती है, (परमात्मा उस मनुष्य को) पूरे गुरु की सेवा में जोड़ देता है।1। सरब सुखा प्रभ तेरो नाउ ॥ आठ पहर मेरे मन गाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मन = हे मन! गाउ = गाया कर।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम सारे सुखों का मूल है। हे मेरे मन! आठों पहर (हर वक्त) प्रभु के गुण गाया कर।1। रहाउ। जो इछै सोई फलु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ आवण जाण रहे हरि धिआइ ॥ भगति भाइ प्रभ की लिव लाइ ॥२॥ पद्अर्थ: इछै = इच्छा करता है, माँगता है। मंनि = मन में। रहे = समाप्त हो जाते हैं। धिआइ = स्मरण करके। भाइ = प्यार से (भाउ = प्यार)। लिव = लगन। लाइ = लगा के।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसाता है, वह मनुष्य जो कुछ (परमात्मा से) माँगता है वही फल हासिल कर लेता है। भक्ति-भाव से प्रभु में तवज्जो जोड़ के प्रभु का ध्यान धर के उसके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।2। बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ तूटे माइआ मोह पिआर ॥ प्रभ की टेक रहै दिनु राति ॥ पारब्रहमु करे जिसु दाति ॥३॥ पद्अर्थ: बिनसे = नाश हो गए। टेक = आसरा। रहै = रहता है। जिसु = जिस मनुष्य को।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को (अपने नाम की) दाति देता है, वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा के ही आसरे रहता है (उसके अंदर से) माया के मोह की तारें टूट जाती हैं, (उसके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (ये सारे विकार) नाश हो जाते हैं।3। करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाइ ॥४॥३१॥४४॥ पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! घट = शरीर, हृदय। अंतरजामी = हे सब के दिल की जानने वाले! करि = कर के। लाइ = लगाए रख। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास किया कर और कहा कर-) हे सब कुछ करने योग्य स्वामी! हे जीवों से सब कुछ करा सकनेकी समर्थावाले स्वामी! हे सब जीवों के दिल की जानने वाले! मेहर कर के (मुझे) अपनी सेवा-भक्ति में जोड़े रख, (मैं तेरा) दास तेरी शरण आया हूँ।4।31।44। भैरउ महला ५ ॥ लाज मरै जो नामु न लेवै ॥ नाम बिहून सुखी किउ सोवै ॥ हरि सिमरनु छाडि परम गति चाहै ॥ मूल बिना साखा कत आहै ॥१॥ पद्अर्थ: लाज मरै = शर्म से मर जाता है, शर्म के कारण हल्के जीवन वाला हो जाता है। किउ सोवै = कैसे सो सकता है? नहीं हो सकता। छाडि = छोड़ के। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मूल = (वृक्ष का) आदि, जड़। साखा = टहणी। कत = कैसे? आहै = है, हो सकती है।1। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता, वह अपने आप में शर्म से हल्का पड़ जाता है (शर्म से मर जाए, जो नाम नहीं स्मरण करता)। परमात्मा का नाम स्मरण के बिना मनुष्य सुख की नींद नहीं सो सकता। (जो मनुष्य) हरि-नाम का स्मरण छोड़ के सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था (हासिल करनी) चाहता है (उसकी यह चाहत व्यर्थ है, जैसे वृक्ष की) जड़ के बिना (उस पर) कोई टहनी, शाखा नहीं उगती।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |