श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1149 गुरु गोविंदु मेरे मन धिआइ ॥ जनम जनम की मैलु उतारै बंधन काटि हरि संगि मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! धिआइ = स्मरण किया कर। उतारै = दूर कर देता है। बंधन = माया के मोह के बंधन। संगि = साथ। मिलाइ = जोड़ देता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! गुरु को गोविंद को (सदा) स्मरण किया करो। (यह स्मरण) अनेक जन्मों की (विकारों की) मैल दूर कर देता है, माया के मोह के फंदों को काट के (मनुष्य को) परमात्मा के साथ जोड़ देता है।1। रहाउ। तीरथि नाइ कहा सुचि सैलु ॥ मन कउ विआपै हउमै मैलु ॥ कोटि करम बंधन का मूलु ॥ हरि के भजन बिनु बिरथा पूलु ॥२॥ पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। नाइ = नहा के। सुचि = पवित्रता। सैलु = पत्थर, पत्थर दिल मनुष्य। विआपै = जोर डाले रखती है। कोटि करम = करोड़ों (निहित हुए धार्मिक) कर्म। मूलु = कारण, साधन। पूलु = (कर्मों का) पूला, पंड।2। अर्थ: हे भाई! पत्थर (पत्थर-दिल मनुष्य) तीर्थ पर स्नान करके (आत्मिक) पवित्रता हासिल नहीं कर सकता, (उसके) मन को (यही) अहंकार की मैल चिपकी रहती है (कि मैं तीर्थ-यात्रा कर आया हूँ)। हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए धार्मिक कर्म मनुष्य के सिर पर) व्यर्थ के गठड़ी हैं।2। बिनु खाए बूझै नही भूख ॥ रोगु जाइ तां उतरहि दूख ॥ काम क्रोध लोभ मोहि बिआपिआ ॥ जिनि प्रभि कीना सो प्रभु नही जापिआ ॥३॥ पद्अर्थ: बूझै नही = नहीं समझती। जाइ = जो दूर हो जाए। उतरहि = उतर जाते हैं (बहुवचन)। मोहि = मोह में। बिआपिआ = फसा हुआ। जिनि प्रभि = जिस प्रभु ने।3। अर्थ: हे भाई! (भोजन) खाए बिना (पेट की) भूख (की आग) नहीं बुझती (रोग से पैदा हुए) शारीरिक दुख तब ही दूर होते हैं, अगर (अंदर से) रोग दूर हो जाए। हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है जो मनुष्य उसका नाम नहीं जपता, वह सदा काम क्रोध लोभ मोह में फसा रहता है।3। धनु धनु साध धंनु हरि नाउ ॥ आठ पहर कीरतनु गुण गाउ ॥ धनु हरि भगति धनु करणैहार ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख अपार ॥४॥३२॥४५॥ पद्अर्थ: धनु धनु = भाग्य वाले। गुण गाउ = गुणों का गायन (करते हैं)। धनु = संपत्ति, धन-दौलत।4। अर्थ: हे भाई! वे गुरमुख मनुष्य भाग्यशाली हैं, जो परमात्मा का नाम जपते हैं, जो आठों पहर परमात्मा की महिमा करते हैं, परमात्मा के गुणों का गायन करते हैं। हे नानक! जो मनुष्य बेअंत और सर्व-व्यापक प्रभु की शरण पड़े रहते हैं, उनके पास परमात्मा की भक्ति का धन विधाता के नाम का धन (सदा मौजूद) है।4।32।45। भैरउ महला ५ ॥ गुर सुप्रसंन होए भउ गए ॥ नाम निरंजन मन महि लए ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ बिनसि गए सगले जंजाल ॥१॥ पद्अर्थ: सुप्रसंन = अच्छी तरह खुश। भउ गए = हरेक डर दूर हो गया। निरंजन = (निर+अंजन) माया की कालिख से रहित प्रभु। लए = लेता है। सगले = सारे। जंजाल = माया के मोह के बंधन।1। अर्थ: हे भाई! सतिगुरु जिस मनुष्य पर बहुत प्रसन्न होता है, उसका हरेक डर दूर हो जाता है (क्योंकि) वह मनुष्य (हर वक्त) माया-रहित परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखता है। हे भाई! दीनों पर दया करने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर कृपा करता है, (उसके अंदर से) माया के मोह के सारे बंधन नाश हो जाते हैं।1। सूख सहज आनंद घने ॥ साधसंगि मिटे भै भरमा अम्रितु हरि हरि रसन भने ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घने = बहुत। संगि = संगति में। भै = सारे डर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। रसन = जीभ से।”ने = उचारता है।1। रहाउ। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में रह के जो मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम उचारता रहता है, उसके सारे डर-वहम दूर हो जाते हैं (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता के बड़े सुख-आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ। चरन कमल सिउ लागो हेतु ॥ खिन महि बिनसिओ महा परेतु ॥ आठ पहर हरि हरि जपु जापि ॥ राखनहार गोविद गुर आपि ॥२॥ पद्अर्थ: हेतु = हित, प्यार। परेतु = अशुद्ध स्वभाव, खोटा स्वभाव। जापि = जपा कर।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु के सुंदर चरणों से जिस मनुष्य का प्यार बन जाता है, उसके अंदर से (खोटा स्वभाव रूपी) बड़ा प्रेत एक छिन में खत्म हो जाता है। हे भाई! तू आठों पहर परमात्मा के नाम का जाप जपा कर, सबकी रक्षा कर सकने वाला गुरु गोविंद स्वयं (तेरी भी रक्षा करेगा)।2। अपने सेवक कउ सदा प्रतिपारै ॥ भगत जना के सास निहारै ॥ मानस की कहु केतक बात ॥ जम ते राखै दे करि हाथ ॥३॥ पद्अर्थ: कउ = को। प्रतिपारै = पालता है। सास = सांस (बहुवचन)। निहारै = देखता है, निहारता है। मानस = मनुष्य। कहु = बताओ। केतक बात = कितनी बात, कितनी पायां? जम ते = जमों से। दे करि = दे कर।3। अर्थ: हे भाई! प्रभु अपने सेवक की आप रक्षा करता है, प्रभु अपने भकतों की सांसों को ध्यान से देखता रहता है (भाव, बड़े ध्यान से भक्त-जनों की रक्षा करता है)। हे भाई! बता, मनुष्य बेचारे भक्त-जनों का क्या बिगाड़ सकते हैं? परमात्मा तो उनको हाथ दे के जमों से भी बचा लेता है।3। निरमल सोभा निरमल रीति ॥ पारब्रहमु आइआ मनि चीति ॥ करि किरपा गुरि दीनो दानु ॥ नानक पाइआ नामु निधानु ॥४॥३३॥४६॥ पद्अर्थ: निरमल = बेदाग़। रीति = जीवन जुगति। मनि = मन में। चीति = चिक्त में। गुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में चिक्त में परमात्मा आ बसता है, उसकी हर जगह बेदाग़ शोभा बनी रहती है, उसकी जीवन-जुगति सदा पवित्र होती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) मेहर करके गुरु ने जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शी, उसने नाम-खजाना हासिल कर लिया।4।33।46। भैरउ महला ५ ॥ करण कारण समरथु गुरु मेरा ॥ जीअ प्राण सुखदाता नेरा ॥ भै भंजन अबिनासी राइ ॥ दरसनि देखिऐ सभु दुखु जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: करण = जगत, सृष्टि। कारण = मूल। समरथु = सबकुछ कर सकने वाला। जीअ दाता = जिंद देने वाला। प्राण दाता = प्राण देने वाला। सुखदाता = सारे सुख देने वाला। नेरा = (सबसे) नजदीक। भै भंजन = सारे डरों को नाश करने वाला। राइ = राय, पातशाह। दरसनि देखिऐ = अगर दर्शन कर लें। जाइ = दूर हो जाता है।1। अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु-परमेश्वर सारी सृष्टि का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, (सबको) जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, सारे सुख देने वाला है, (सबके) नजदीक (बसता है)। हे भाई! वह पातिशाह (जीवों के सारे) डर दूर करने वाला है, वह स्वयं नाश रहित है, अगर उसके दर्शन हो जाएं, (तो मनुष्य का) सारा दुख दूर हो जाता है।1। जत कत पेखउ तेरी सरणा ॥ बलि बलि जाई सतिगुर चरणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूँ। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मैं (अपने) गुरु के चरणों से सदा सदके जाता हूँ (जिसने मुझे तेरे चरणों में जोड़ा है, अब) मैं हर जगह तेरा ही आसरा देखता हूँ।1। रहाउ। पूरन काम मिले गुरदेव ॥ सभि फलदाता निरमल सेव ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ राम नामु रिद दीओ निवास ॥२॥ पद्अर्थ: काम = कामना, इच्छा। सभि = सारे (बहुवचन)। निरमल = जीवन को पवित्र करनेवाली। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। रिद = हृदय में।2। अर्थ: हे भाई! गुरदेव-प्रभु को मिल के सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, वह प्रभु सारे फल देने वाला है, उसकी सेवा-भक्ति जीवन पवित्र कर देती है। हे भाई! प्रभु अपने दासों का हाथ पकड़ के उनको अपने बना लेता है, और उनके हृदय में अपना नाम टिका देता है।2। सदा अनंदु नाही किछु सोगु ॥ दूखु दरदु नह बिआपै रोगु ॥ सभु किछु तेरा तू करणैहारु ॥ पारब्रहम गुर अगम अपार ॥३॥ पद्अर्थ: सोगु = शोक। बिआपै = अपना जोर डाल सकता है। करणैहारु = पैदा कर सकने की सामर्थ्य वाला।3। अर्थ: हे गुरु-पारब्रहम! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! (जो कुछ दिखाई दे रहा है, यह) सब कुछ तेरा पैदा किया हुआ है, तू ही सब कुछ पैदा करने की सामर्थ्य वाला है। जिसके हृदय में तू अपना नाम टिकाता है (उसके अंदर) सदा आनंद बना रहता है, उसको कोई ग़म (छू नहीं सकता)। कोई दुख कोई दर्द कोई रोग उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।3। निरमल सोभा अचरज बाणी ॥ पारब्रहम पूरन मनि भाणी ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सोइ ॥ नानक सभु किछु प्रभ ते होइ ॥४॥३४॥४७॥ पद्अर्थ: निरमल = बेदाग़। अचरज बाणी = विस्माद अवस्था पैदा कर सकनेवाली वाणी। पूरन = सर्वव्यापक। मनि = (जिस मनुष्य के) मनमें। भाणी = भा गई, प्यारी लगने लग जाती है। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, अंतरिक्ष में, आकाश में। रविआ = व्यापक। ते = से।4। अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा की विस्माद पैदा करने वालीमहिमा जिस मनुष्य के मन को मीठी लगने लग जाती है, उसकी बे-दाग़ शोभा (हर जगह पसर जाती है)। हे नानक! वह प्रभु जल में धरती में आकाश में हर जगह मौजूद है (जो कुछ जगत में हो रहा है) सब कुछ प्रभु से (प्रभूके हुक्म से ही) हो रहा है।4।34।47। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |