श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1152 निंदक का कहिआ कोइ न मानै ॥ निंदक झूठु बोलि पछुताने ॥ हाथ पछोरहि सिरु धरनि लगाहि ॥ निंदक कउ दई छोडै नाहि ॥२॥ पद्अर्थ: न मानै = ऐतबार नहीं करता। बोलि = बोल के। पछताने = अफसोस करते हैं। हाथ पछोरहि = (अपने) हाथ (माथे पर) मारते हैं। धरनि = धरती। दई = परमात्मा।2। अर्थ: हे भाई! संतजनों पर दूषण लगाने वालों की बात को कोई भी मनुष्य सच नहीं मानता, तोहमतें लगाने वाले झूठ बोल के (फिर) अफसोस ही करते हैं, (सच्चाई सामने आ जाने पर निंदक) हाथ माथे पर मारते हैं और अपना सिर धरती पर पटकते हैं (भाव, बहुत ही शर्मिन्दे होते हैं)। (पर ऊजें लगाने की दूषण लगाने की बाज़ी में दुखदाई मनुष्य ऐसा फंस जाता है कि) परमात्मा उस दुखदाई को (अपने ही बुने हुए निंदा के जाल में से) छुटकारा नहीं देता।2। हरि का दासु किछु बुरा न मागै ॥ निंदक कउ लागै दुख सांगै ॥ बगुले जिउ रहिआ पंख पसारि ॥ मुख ते बोलिआ तां कढिआ बीचारि ॥३॥ पद्अर्थ: न मागै = नहीं माँगता, नहीं चाहता। दुखु सांगै = बर्छी (लगने) का दुख। पंख = पंख पक्षी के। पसारि रहिआ = बिखेरे रखता है। ते = से। तां = तब। बीचारि = विचार के।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त (उस दुखदाई का भी) रक्ती भर भी बुरा नहीं माँगता (ये नहीं चाहता कि उसका कोई नुकसान हो। फिर भी) दुखदाई को (अपनी ही करतूत का ऐसा) दुख मिलता है (जैसे) बरछी (के लगने) की (असहि पीड़ा होती है)। हे भाई! संतजनों पर दूषण लगाने वाला मनुष्य खुद ही बगुले की तरह पंख पसार के रखता है (अपने आप को अच्छे जीवन वाला जतलाता फिरता है, पर जैसे ही वह) मुँह से (दूषण भरे) वचन बोलता है तब वह (झूठा दुखदाई) मिथा जाता है (और लोगों द्वारा) दुत्कारा जाता है।3। अंतरजामी करता सोइ ॥ हरि जनु करै सु निहचलु होइ ॥ हरि का दासु साचा दरबारि ॥ जन नानक कहिआ ततु बीचारि ॥४॥४१॥५४॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। निहचलु = अटल, जरूर घटित होने वाला। साचा = अडोल जीवन वाला। दरबारि = प्रभु की हजूरी में। ततु = अस्लियत। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! वह कर्तार स्वयं ही हरेक के दिल की जानता है। उसका सेवक जो कुछ करता है वह पत्थर की लकीर होता है (उस में रक्ती भर भी झूठ नहीं होता, वह किसी की बुराई वास्ते नहीं होता)। हे नानक! प्रभु के सेवकों ने विचार के ये मूलतत्तव कह दिया है कि परमात्मा का सेवक परमात्मा की हजूरी में सुर्ख-रू होता है।4।41।54। भैरउ महला ५ ॥ दुइ कर जोरि करउ अरदासि ॥ जीउ पिंडु धनु तिस की रासि ॥ सोई मेरा सुआमी करनैहारु ॥ कोटि बार जाई बलिहार ॥१॥ पद्अर्थ: दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ कर। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जीउ = जिंद। पिेंडु = शरीर। रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। करनैहारु = सब कुछ करने लायक। कोटि बार = करोड़ों बार। जाई = मैं जाता हूँ। बलिहार = सदके।1। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण की इनायत से) मैं दोनों हाथ जोड़ के (प्रभु के दर पे) अरजोई करता रहता हूँ। मेरी यह जिंद, मेरा यह शरीर यह धन- सब कुछ उस परमात्मा की बख्शी हुई पूंजी है। मेरा वह मालिक स्वयं ही सब कुछ कर सकने में समर्थ है। मैं करोड़ों बार उससे सदके जाता हूँ।1। साधू धूरि पुनीत करी ॥ मन के बिकार मिटहि प्रभ सिमरत जनम जनम की मैलु हरी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साधू धूरि = गुरु की चरण धूल। पुनीत = पवित्र (जीवन वाला)। करी = बना देती है। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। हरी = दूर हो जाती है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की चरण-धूल (मनुष्य के जीवन को) पवित्र कर देती है, (गुरु की शरण पड़ कर) प्रभु का नाम स्मरण करने से (मनुष्य के) मन के विकार दूर हो जाते हैं, अनेक जन्मों के (किए हुए कुकर्मों) की मैल उतर जाती है।1। रहाउ। जा कै ग्रिह महि सगल निधान ॥ जा की सेवा पाईऐ मानु ॥ सगल मनोरथ पूरनहार ॥ जीअ प्रान भगतन आधार ॥२॥ पद्अर्थ: सगल निधान = सारे खजाने। सेवा = भक्ति। मानु = इज्जत। सगल मनोरथ = सारी जरूरतें। पूरनहार = पूरी कर सकने वाला। जीअ आधार = जिंद का आसरा।2। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण में आ के ही ये समझ आती है कि) जिस परमात्मा के घर में सारे खजाने हैं, जिसकी सेवा-भक्ति करने से (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है, वह परमात्मा (जीवों की) सारी आवश्यक्ताएं पूरी कर सकने वाला है, वह अपने भक्तों की जिंद का प्राणों का सहारा है।2। घट घट अंतरि सगल प्रगास ॥ जपि जपि जीवहि भगत गुणतास ॥ जा की सेव न बिरथी जाइ ॥ मन तन अंतरि एकु धिआइ ॥३॥ पद्अर्थ: घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। अंतरि सगल = सब के अंदर। प्रगास = प्रकाश। जपि = जप के। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। गुण तास = गुणोंका खजाना प्रभु। बिरथी = व्यर्थ, खाली। धिआइ = स्मरण किया कर।3। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण में आ के ही ये समझ आती है कि) परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है, सब जीवों के अंदर (अपनी ज्योति का) प्रकाश करता है। उस गुणों के खजाने प्रभूका नाम जप-जप के उसके भक्त आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। हे भाई! जिस प्रभु की की हुई भक्ति व्यर्थ नहीं जाती, तू अपने मन में अपने तन में उस एक का नाम स्मरण किया कर।3। गुर उपदेसि दइआ संतोखु ॥ नामु निधानु निरमलु इहु थोकु ॥ करि किरपा लीजै लड़ि लाइ ॥ चरन कमल नानक नित धिआइ ॥४॥४२॥५५॥ पद्अर्थ: उपदेसि = उपदेश से, उपदेश पर चल के। निधानु = खजाना। निरमलु = (जीवन को) पवित्र करने वाला। थोकु = पदार्थ। करि = कर के। लड़ि = पल्ले से। लाइ लीजै = लगा ले। धिआइ = स्मरण करता रहे।4। अर्थ: हे भाई! गुरु की शिक्षा पर चलने से (मनुष्य के हृदय में) दया पैदा होती है संतोष पैदा होता है, नाम-खजाना प्रकट हो जाता है, यह (नाम-खजाना ऐसा) पदार्थ है कि यह जीवन को पवित्र कर देता है। हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास किया कर और कह: हे प्रभु!) मेहर कर के (मुझे अपने) पल्ले से लगाए रख। (मैं) तेरे सुंदर चरणों का हमेशा ध्यान धरता रहूँ।4।42।55। भैरउ महला ५ ॥ सतिगुर अपुने सुनी अरदासि ॥ कारजु आइआ सगला रासि ॥ मन तन अंतरि प्रभू धिआइआ ॥ गुर पूरे डरु सगल चुकाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सतिगुर अपने = प्यारे गुरु ने। अरदासि = बेनती। कारजु = काम। आइआ रासि = सफल हो गया। अंतरि = अंदर। गुर पूरै = पूरे गुरु ने। सगल = सारा। चुकाइआ = समाप्त कर दिया।1। अर्थ: हे भाई! प्यारे गुरु ने (जिस मनुष्य की) विनती सुन ली, उसका (हरेक) काम मुकम्मल तौर पर सफल हो जाता है। वह मनुष्य अपने मन में अपने हृदय में परमात्मा का ध्यान धरता रहता है। पूरा गुरु उसका (हरेक) डर सारे का सारा दूर कर देता है।1। सभ ते वड समरथ गुरदेव ॥ सभि सुख पाई तिस की सेव ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभ ते = सबसे। ते = से। वड समरथ = बड़ी ताकत वाला। सभि = सारे। पाई = मैं पाता हूँ। सेव = शरण। रहाउ। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! गुरु सब (देवताओं) से बहुत बड़ी ताकत वाला है। मैं (तो) उस (गुरु) की शरण पड़ कर सारे सुख प्राप्त कर रहा हूँ। रहाउ। जा का कीआ सभु किछु होइ ॥ तिस का अमरु न मेटै कोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरु अनूपु ॥ सफल मूरति गुरु तिस का रूपु ॥२॥ पद्अर्थ: जा का = जिस (परमात्मा) का। सभु किछु = हरेक काम। अमरु = हुक्म। न मेटै = मोड़ नहीं सकता। अनूपु = (अन+ऊप) जिसकी उपमा ना हो सके, जिसके बराबर का और कोई नहीं, बहुत ही सुंदर। सफल मूरति = जिसकी हस्ती सारे फल देने वाली है। तिस का = (तिसु का) उस परमात्मा का।2। अर्थ: हे भाई! (जगत में) जिस (परमात्मा) का किया हुआ ही हरेक काम हो रहा है, उस (परमात्मा) का हुक्म कोई जीव मोड़ नहीं सकता। वह प्रभु परमेश्वर (ऐसा है कि उस) जैसा और कोई नहीं। उसके स्वरूप का दीदार सारे उद्देश्य पूरे करता है। हे भाई! गुरु उस परमात्मा का रूप है।2। जा कै अंतरि बसै हरि नामु ॥ जो जो पेखै सु ब्रहम गिआनु ॥ बीस बिसुए जा कै मनि परगासु ॥ तिसु जन कै पारब्रहम का निवासु ॥३॥ पद्अर्थ: जा कै अंतरि = जिस मनुष्य के हृदय में। जो जो = जो कुछ भी। पेखै = देखता है। सु = वह (देखा हुआ पदार्थ)। ब्रहम गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। बीस बिसुए = पूरी तौर पर। तिसु जन कै = उस मनुष्य के हृदय में।3। अर्थ: हे भाई! (गुरु के द्वारा) जिस (मनुष्य) के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, (वह मनुष्य जगत में) जो कुछ भी देखता है वह (देखा हुआ पदार्थ उसकी) परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाता है। हे भाई! (गुरु के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में आत्मिक जीवन का मुकम्मल प्रकाश हो जाता है, उस मनुष्य के अंदर परमात्मा का निवास हो जाता है।3। तिसु गुर कउ सद करी नमसकार ॥ तिसु गुर कउ सद जाउ बलिहार ॥ सतिगुर के चरन धोइ धोइ पीवा ॥ गुर नानक जपि जपि सद जीवा ॥४॥४३॥५६॥ पद्अर्थ: सद = सदा। करी = मैं करता हूँ। जाउ = मैं जाता हूँ। बलिहार = सदके। धोइ = धो के। पीवा = मैं पीता रहूँ। नानक = हे नानक! जपि = जप के। जीवा = मैं जीता रहूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करूँ।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) उस गुरु को मैं सदा सिर झुकाता रहता हूँ उस गुरु से मैं सदा कुर्बान जाता हूँ। मैं उस गुरु के चरण धो धो के पीता हूँ (भाव, मैं उस गुरु से अपना आपा सदके करता हूँ)। उस गुरु को सदा चेते करके मैं आत्मिक जीवन हासिल करता रहता हूँ।4।43।56। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |