श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु भैरउ महला ५ पड़ताल घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

परतिपाल प्रभ क्रिपाल कवन गुन गनी ॥ अनिक रंग बहु तरंग सरब को धनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: परतिपाल = हे प्रतिपालक! हे पालनहार! कवन गुन = कौन कौन से गुण? गनी = मैं गिनूँ। तरंग = लहरें। को = का। धनी = मालिक।1। रहाउ।

अर्थ: हे सबके पालनहार प्रभु! हे कृपालु प्रभु! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? (जगत के) अनेक रंग-तमाशे (तेरे ही रचे हुए हैं), (तू एक बेअंत समुंदर है, जगत के बेअंत जीव-जंतु तेरे में से ही) लहरें उठी हुई हैं, तू सब जीवों का मालिक है।1। रहाउ।

अनिक गिआन अनिक धिआन अनिक जाप जाप ताप ॥ अनिक गुनित धुनित ललित अनिक धार मुनी ॥१॥

पद्अर्थ: अनिक = अनेक जीव। गिआन = धार्मिक पुस्तकों के विचार। धिआन = समाधियां। जाप = मंत्रों के जाप। ताप = धूणियां तपानी। गुनित = गुणों की विचार। ललित = सुंदर। धुनित ललित = सुंदर धुनियां। धार मुनी = मौन धारने वाले।1।

अर्थ: हे पालनहार प्रभु! अनेक ही जीव (धार्मिक पुस्तकों पर) विचार कर रहे हैं, अनेक ही जीव समाधियां लगा रहे हैं, अनेक ही जीव मंत्रों के जप कर रहे हैं और धूणियां तपा रहे हैं। अनेक जीव तेरे गुणों की विचार कर रहे हैं, अनेक जीव (तेरे कीर्तन में) मीठी सुरें लगा रहे हैं, अनेक ही जीव मौन धारी बैठे हैं।1।

अनिक नाद अनिक बाज निमख निमख अनिक स्वाद अनिक दोख अनिक रोग मिटहि जस सुनी ॥ नानक सेव अपार देव तटह खटह बरत पूजा गवन भवन जात्र करन सगल फल पुनी ॥२॥१॥५७॥८॥२१॥७॥५७॥९३॥

पद्अर्थ: नाद = आवाज़। बाज = बाजे। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। दोख = ऐब, विकार। मिटहि = मिट जाते हैं, दूर हो जाते हैं (बहुवचन)। जस = महिमा (बहुवचन)। सुनी = सुनीं। नानक = हे नानक! सेव = सेवा भक्ति। अपार देव = बेअंत प्रभु देव जी। तटह = तट, तीर्थों के तट पर, तीर्थ स्नान। खटह = छह (शास्त्रों के विचार)। पूजा = देव पूजा। गवन भवन = सारी धरती का रटन। पुनी = पुण्य।2।

अर्थ: हे प्रभु! (जगत में) अनेक राग हो रहे हैं, अनेक साज बज रहे हैं, एक-एक निमख में अनेक स्वाद पैदा हो रहे हैं। हे प्रभु! तेरी महिमा सुन के अनेक विकार और अनेक रोग दूर हो जाते हैं।

हे नानक! बेअंत प्रभु-देव की सेवा-भक्ति ही तीर्थ-यात्रा है, भक्ति ही छह शास्त्रों की विचार है, भक्ति ही देव-पूजा है, भक्ति ही देश-रटन और तीर्थ-यात्रा है। सारे फल सारे पुण्य परमात्मा की भक्ति में ही हैं।2।1।57।8।21।7।57।93।

नोट: पड़ताल = कई तालों का पलट पलट के बज सकना। इस किस्म के शब्द के गायन के समय चार ताल, तीन ताल, सूल फ़ाख्ता, झप ताल आदि कई तालें पलट-पलट के बजाए जा सकते हैं।

अंकों का वेरवा:
शब्द महला १----------------8
शब्द महला ३ -------------21
शब्द महला ४----------------7
शब्द महला ५--------------57
जोड़--------------------------13

भैरउ असटपदीआ महला १ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसि गुर बीचारा ॥ अम्रित बाणी सबदि पछाणी दुख काटै हउ मारा ॥१॥

पद्अर्थ: आतम महि = (हरेक) जीवात्मा में। चीनसि = पहचान करता है, समझता है। सबदि = गुरु के शब्द से। हउ = अहंकार।1।

अर्थ: (जिस मनुष्य पर धुर से ही बख्शिश करता है वह) वह गुरु के शब्द की विचार से यह समझ लेता है कि हरेक जीवात्मा में परमात्मा मौजूद है, परमात्मा में ही हरेक जीव (जीता) है। वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी की कद्र समझ लेता है, वह (अपने अंदर से) अहंकार को खत्म कर लेता है (और अहंकार से पैदा होने वाले सारे) दुख दूर कर लेता है।1।

नानक हउमै रोग बुरे ॥ जह देखां तह एका बेदन आपे बखसै सबदि धुरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बुरे = बहुत बुरे। देखां = मैं देखता हूँ। जह = जहाँ। एका = यही। बेदन = वेदना, दुख, मतभेद के कारण दूरी बन जाना। धेरे = धुर से।1। रहाउ।

अर्थ: हे नानक! अहंकार से पैदा होने वाले (आत्मिक) रोग बहुत खराब हैं। मैं तो (जगत में) जिधर देखता हूँ उधर इस अहंकार की पीड़ा ही देखता हूँ। धुर से जिसको स्वयं ही बख्शता है उसको गुरु के शब्द में (जोड़ता है)।1। रहाउ।

आपे परखे परखणहारै बहुरि सूलाकु न होई ॥ जिन कउ नदरि भई गुरि मेले प्रभ भाणा सचु सोई ॥२॥

पद्अर्थ: परखहारै = परखने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने। बहुरि = दोबारा। सूलाकु = लोहे की तीखी सीख जिससे सोने की परख के समय छेद किए जाते हैं। गुरि = गुरु ने। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का रूप)।2।

अर्थ: परखने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने स्वयं ही जिनको परख (के स्वीकार कर) लिया है, उनको दोबारा (अहंकार का) कष्ट नहीं होता। जिस पर परमात्मा की मेहर निगाह हो गई, उनको गुरु ने (प्रभु-चरणों में) जोड़ लिया। जो मनुष्य प्रभु को प्यारा लगने लग जाता है, वह उस सदा-स्थिर प्रभु का रूप ही हो जाता है।2।

पउणु पाणी बैसंतरु रोगी रोगी धरति सभोगी ॥ मात पिता माइआ देह सि रोगी रोगी कुट्मब संजोगी ॥३॥

पद्अर्थ: बैसंतर = आग। सभोगी = भोगों समेत। देह = शरीर।3।

अर्थ: (अहंकार का रोग इतना बली है कि) हवा, पानी, आग (आदि तत्व भी) इस रोग में ग्रसे हुए हैं, ये धरती भी अहंम् रोग का शिकार है जिसमें से प्रयोग के बेअंत पदार्थ पैदा होते हैं। (अपने-अपने) परिवारों के संबंधों के कारण माता-पिता-माया-शरीर- ये सारे ही अहंकार के रोग में फसे हुए हैं।3।

रोगी ब्रहमा बिसनु सरुद्रा रोगी सगल संसारा ॥ हरि पदु चीनि भए से मुकते गुर का सबदु वीचारा ॥४॥

पद्अर्थ: सरुद्रा = स+रुद्रा, शिव समेत। रुद्र = शिव। चीनि = पहचान के।4।

अर्थ: (साधारण जीवों की बात ही क्या है? बड़े-बड़े कहलवाने वाले देवते) ब्रहमा, विष्णू और शिव भी अहंकार के रोग में हैं, सारा संसार ही इस रोग में ग्रसा हुआ है। इस रोग से वही स्वतंत्र होते हैं जिन्होंने परमात्मा के साथ मिलाप-अवस्था की कद्र समझ के गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाया है।4।

रोगी सात समुंद सनदीआ खंड पताल सि रोगि भरे ॥ हरि के लोक सि साचि सुहेले सरबी थाई नदरि करे ॥५॥

पद्अर्थ: सनदीआ = स+नदीआ, नदियों समेत। रोगि = रोग से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)।5।

अर्थ: सारी नदियों समेत सातों समुंदर (अहंकार के) रोगी हैं, सारी धरतियाँ और पाताल - ये भी (अहंकार-) रोग से भरे पड़े हैं। जो लोग परमात्मा के हो जाते हैं वे उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं और सुखी जीवन गुजारते हैं, प्रभु हर जगह उन पर मेहर की नजर करता है।5।

रोगी खट दरसन भेखधारी नाना हठी अनेका ॥ बेद कतेब करहि कह बपुरे नह बूझहि इक एका ॥६॥

पद्अर्थ: खट = छह। दरसन = दर्शन, भेस (जोगी, सन्यासी, जंगम, बौधी, सरेवड़े, बैरागी)। नाना = अनेक। कह = क्या? कतेब = पश्चिमी धर्मों की पुस्तकें (कुरान, अंजील, तौरेत, जंबूर)।6।

अर्थ: छह ही भेषों के धारण करने वाले (जोगी-जंगम आदि) व अन्य अनेक किस्मों के हठ साधना करने वाले भी अहंम्-रोग में फंसे हुए हैं। वेद और कुरान आदि धर्म-पुस्तकें भी उनकी सहायता करने में अस्मर्थ हो जाती हैं, क्योंकिवे उस परमात्मा को नहीं पहचानते जो एक स्वयं ही स्वयं (सारी सृष्टि का कर्ता और इसमें व्यापक) है।6।

मिठ रसु खाइ सु रोगि भरीजै कंद मूलि सुखु नाही ॥ नामु विसारि चलहि अन मारगि अंत कालि पछुताही ॥७॥

पद्अर्थ: कंद = जमीन में पैदा हुई गाजर, मूली आदि। मूलि = सब्जी की जड़ें (खाने में)। अन = अन्य।7।

अर्थ: जो मनुष्य (गृहस्थ में रह के) हरेक किस्म के स्वादिष्ट पदार्थ खाता है वह (भी अहंकार-) रोग में लिबड़ा हुआ है, जो मनुष्य (जगत त्याग के जंगल में जा बैठता है उसको भी निरे) गाजर-मूली (खा लेने) से आत्मिक सुख नहीं मिल जाता। (गृहस्थी हों चाहे त्यागी) परमात्मा का नाम भुला के जो जो भी और (अन्य) रास्ते पर चलते हैं वे आखिर पछताते ही हैं।7।

तीरथि भरमै रोगु न छूटसि पड़िआ बादु बिबादु भइआ ॥ दुबिधा रोगु सु अधिक वडेरा माइआ का मुहताजु भइआ ॥८॥

पद्अर्थ: बादु बिबादु = झगड़ा। अधिक = बहुत।8।

अर्थ: जो मनुष्य तीर्थों पर भटकता फिरता है उसका भी (अहम्-) रोग नहीं मिटता, पढ़ा हुआ मनुष्य भी इससे नहीं बचा, उसको झगड़ा-बहस (रूप हो के अहंकार का रोग) चिपका हुआ है। परमात्मा के बिना किसी और आसरे की झाक एकबड़ा भारा रोग है, इसमें फसा हुआ मनुष्य सदा माया का मुहताज बना रहता है।8।

गुरमुखि साचा सबदि सलाहै मनि साचा तिसु रोगु गइआ ॥ नानक हरि जन अनदिनु निरमल जिन कउ करमि नीसाणु पइआ ॥९॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। मनि = मन मे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करमि = (प्रभु की) मेहर से। नीसाणु = (महिमा का) निशान।9।

अर्थ: जो (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा करता है, उसके मन में सदा कायम रहने वाला प्रभु सदा बसता है, इस वास्ते उसका (अहंकार का) रोग दूर हो जाता है।

हे नानक! परमात्मा के भक्त सदा पवित्र जीवन वाले होते हैं, क्योंकि प्रभु की मेहर से उनके माथे पर नाम-स्मरण का निशान (चमक मारता) है।9।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh