श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ३ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तिनि करतै इकु चलतु उपाइआ ॥ अनहद बाणी सबदु सुणाइआ ॥ मनमुखि भूले गुरमुखि बुझाइआ ॥ कारणु करता करदा आइआ ॥१॥

पद्अर्थ: तिनि = उसने। तिनि करतै = उस कर्तार ने। चलतु = जगत तमाशा। अनहद = एक रस कायम रहने वाला। बाणी = तरंग, वलवला। अनहद बाणी = (शब्द ‘शबदु’ का विशेषण) एक रस वलवले वाला। सबदु = गुरु शब्द। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। भूले = गलत राह पर पड़े रहे, सही जीवन-राह से टूटे रहे। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। कारणु = (यह) सबब।1।

अर्थ: हे भाई! (यह जगत) उस कर्तार ने एक तमाशा रचा हुआ है, (उसने स्वयं ही गुरु के द्वारा जीवों को) एक-रस वलवले वाला गुर-शब्द सुनाया है। अपने मनके पीछे चलने वाले मनुष्य (सही जीवन के राह से) टूटे रहते हैं, गुरु के सन्मुख रहने वालों को (परमात्मा आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श देता है। यह सबब कर्तार (सदा से ही) बनाता आ रहा है।1।

गुर का सबदु मेरै अंतरि धिआनु ॥ हउ कबहु न छोडउ हरि का नामु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरै अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। धिआनु = मेरा ध्यान, मेरी तवज्जो, मेरी तवज्जो का निशाना। हउ = मैं। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (मेरे) गुरु का शब्द मेरे अंदर बस रहा है, मेरी तवज्जो का निशाना बन चुका है। (गुरु के शब्द द्वारा प्राप्त किया हुआ) परमात्मा का नाम मैं कभी नहीं छोड़ूंगा।1। रहाउ।

पिता प्रहलादु पड़ण पठाइआ ॥ लै पाटी पाधे कै आइआ ॥ नाम बिना नह पड़उ अचार ॥ मेरी पटीआ लिखि देहु गोबिंद मुरारि ॥२॥

पद्अर्थ: पठाइआ = भेजा। लै = लेकर। पाटी = तख्ती। कै = के पास। नह पढ़उ = मैं नहीं पढ़ता। अचार = और कार्य व्यवहार। मुरारि = परमात्मा (मुर+अरि)।2।

अर्थ: हे भाई! (देखो, प्रहलाद के) पिता ने प्रहलाद को पढ़ने के लिए (पाठशाला में) भेजा। प्रहलाद तख़्ती लेकर अध्यापक (पांधे) के पास पहुँचा। (अध्यापक तो कुछ और ही पढ़ाने लगे, पर प्रहलाद ने कहा-) मैं परमात्मा के नाम के बिना और कोई कार्य-व्यवहार नहीं पढ़ूँगा, आप मेरी पट्टी पर परमात्मा का नाम ही लिख के दो।2।

पुत्र प्रहिलाद सिउ कहिआ माइ ॥ परविरति न पड़हु रही समझाइ ॥ निरभउ दाता हरि जीउ मेरै नालि ॥ जे हरि छोडउ तउ कुलि लागै गालि ॥३॥

पद्अर्थ: सिउ = साथ। माइ = माँ ने। परविरति = प्रवृक्ति, वह जिसमें तू लगा हुआ है। जे छोडउ = अगर मैं छोड़ दूँ। तउ = तब, तो। कुलि लागै गालि = कुल को गाली लगती है, कुल की बदनामी होती है।3।

अर्थ: हे भाई! माँ ने (अपने) पुत्र प्रहलाद को कहा- तू जिस (हरि के नाम) में व्यस्त हुआ पड़ा है, वह ना पढ़ (बहुत) समझाती रही (पर, प्रहलाद ने उक्तर दिया-) किसी भी से ना डरने वाला परमात्मा (सदा) मेरे साथ है, अगर मैं परमात्मा (का नाम) छोड़ दूँ, तो सारी कुल को ही दाग़ लगेगा।3।

प्रहलादि सभि चाटड़े विगारे ॥ हमारा कहिआ न सुणै आपणे कारज सवारे ॥ सभ नगरी महि भगति द्रिड़ाई ॥ दुसट सभा का किछु न वसाई ॥४॥

पद्अर्थ: प्रहलादि = प्रहलाद ने। सभि = सारे। चाटड़े = पढ़ने वाले बच्चे, चेले, विद्यार्थी। कारज = काम (बहुवचन)। द्रिढ़ाई = दृढ़ कर दी है। वसाई = वश, जोर।4।

अर्थ: हे भाई! (अध्यापकों ने सोचा कि) प्रहलाद ने (तो) सारे ही विद्यार्थी बिगाड़ दिए हैं, हमारा कहा ये सुनता ही नहीं, अपने काम ठीक किए जा रहा है, सारे शहर में इसने परमात्मा की भक्ति लोगों के दिलों में दृढ़ करवा दी है। हे भाई! दुष्टों की जुण्डली का प्रहलाद पर कोई जोर नहीं चल रहा।4।

संडै मरकै कीई पूकार ॥ सभे दैत रहे झख मारि ॥ भगत जना की पति राखै सोई ॥ कीते कै कहिऐ किआ होई ॥५॥

पद्अर्थ: संडै = संड ने। मरकै = अमरक ने। मारि = मार के। रहे मारि = मार रहे। पति = इज्ज्त। कै कहिऐ = के कहने पर। किआ होई = क्या हो सकता है? कीते = पैदा किए हुए।5।

अर्थ: हे भाई! (आखिर) संडे ने और अमरक ने (हर्णाकष्यप के पास) जाकर शिकायत की। सारे दैत्य अपना जोर लगा के थक गए (पर उनकी पेश ना पड़ी)। हे भाई! अपने भक्तों की इज्जत वह स्वयं ही रखता है। उसके पैदा किए हुए किसी (दुखदाई) का जोर नहीं चल सकता।5।

किरत संजोगी दैति राजु चलाइआ ॥ हरि न बूझै तिनि आपि भुलाइआ ॥ पुत्र प्रहलाद सिउ वादु रचाइआ ॥ अंधा न बूझै कालु नेड़ै आइआ ॥६॥

पद्अर्थ: किरत संजोगी = (पिछले) किए हुए कर्मों के संयोग से। दैति = दैत्य (हर्णाकष्यप) ने। तिनि = उस (परमात्मा) ने। भुलाइआ = गलत राह पर डाल रखा था। वादु = झगड़ा। अंधा = (राज के मद में) अंधा हो चुका। कालु = मौत।6।

अर्थ: हे भाई! पिछले किए कर्मों के संजोग से दैत्य (हर्णाकश्यप) ने राज चला लिया, (राज के मद में) वह परमात्मा को (कुछ भी) नहीं था समझता (पर उसके भी क्या वश?) उस कर्तार ने (स्वयं ही) उसको गलत रास्ते पर डाल रखा था। (सो) उसने (अपने) पुत्र प्रहलाद के साथ झगड़ा खड़ा कर लिया। (राज के मद में) अंधा हुआ (हर्णाकश्यप यह) नहीं था समझता (कि उसकी) मौत नजदीक आ गई है।6।

प्रहलादु कोठे विचि राखिआ बारि दीआ ताला ॥ निरभउ बालकु मूलि न डरई मेरै अंतरि गुर गोपाला ॥ कीता होवै सरीकी करै अनहोदा नाउ धराइआ ॥ जो धुरि लिखिआ सुो आइ पहुता जन सिउ वादु रचाइआ ॥७॥

पद्अर्थ: बारि = दरवाजे पर। ताला = ताला। मूलि = बिल्कुल। डरई = डरता। कीता = (प्रभु का) पैदा किया हुआ। सरीकी = (प्रभु के साथ ही) बराबरी। अनहोदा = (सामर्थ्य) ना होते हुए। नाउ = बड़ा नाम। धुरि = धुर दरगाह से। सुो = (असल शब्द है ‘सो’। यहाँ पढ़ना है ‘सु’)।7।

अर्थ: हे भाई! (हर्णाकश्यप ने) प्रहलाद को कोठे में बंद करवा दिया, और दरवाजे पर ताला लगवा दिया। पर निडर बालक बिल्कुल नहीं था डरता, (वह कहता था-) मेरा गुरु मेरा परमात्मा मेरे हृदय में बसता है। हे भाई! परमात्मा का पैदा किया हुआ जो मनुष्य परमात्मा के साथ बराबरी करने लग जाता है, वह (अपनी) समर्थता से बड़ा अपना नाम रखवा लेता है। (हर्णाकश्यप ने) प्रभु के भक्त से झगड़ा छेड़ लिया। धुर दरगाह से जो होनी लिखी थी, उसका समय आ पहुँचा।7।

पिता प्रहलाद सिउ गुरज उठाई ॥ कहां तुम्हारा जगदीस गुसाई ॥ जगजीवनु दाता अंति सखाई ॥ जह देखा तह रहिआ समाई ॥८॥

पद्अर्थ: गुरज = गदा (डंडे जैसा ही एक शस्त्र जिसका सिर बहुत ही मोटा और भारा होता है)। जगदीस = जगत का मालिक। गुसाई = धरती का साई। जगजीवनु = जगत का जीवन। अंति = आखिरी समय पर। सहाई = सहायक। देखा = मैं देखता हूँ। तह = वहीं ही।8।

अर्थ: सो, हे भाई! पिता (हर्णाकश्यप) ने प्रहलाद पर गदा उठा ली, (और कहने लगा- बता,) कहाँ है तेरा जगदीश? कहाँ है तेरा गोसाई? (जो तुझे अब बचाए)। (प्रहलाद ने उक्तर दिया-) जगत का आसरा दातार प्रभु ही आखिर (हरेक जीव का मददगार बनता है।) मैं तो जिधर देखता हूँ, वह उधर ही मौजूद है।8।

थम्हु उपाड़ि हरि आपु दिखाइआ ॥ अहंकारी दैतु मारि पचाइआ ॥ भगता मनि आनंदु वजी वधाई ॥ अपने सेवक कउ दे वडिआई ॥९॥

पद्अर्थ: उपाड़ि = फाड़ के। आपु = अपना आप। मारि = मार के। पचाइआ = ख्वार किया। मनि = मन में। वधाई = चढ़दी कला, बढ़ोक्तरी। वजी = बजी, प्रबल हो गई। दे = देता है।9।

अर्थ: हे भाई! (उस वक्त) खम्भा फाड़ के परमात्मा ने अपने आप को प्रकट कर दिया, (राज के मद में) मस्त हुए (हर्णाकश्यप) दैत्य का मार डाला। हे भाई! भगतों के मन में (सदा) आनंद (सदा) चढ़दीकला बनी रहती है। (भक्त जानते हैं कि) परमात्मा अपने भक्तों को (लोक-परलोक में) इज्जत देता है।9।

जमणु मरणा मोहु उपाइआ ॥ आवणु जाणा करतै लिखि पाइआ ॥ प्रहलाद कै कारजि हरि आपु दिखाइआ ॥ भगता का बोलु आगै आइआ ॥१०॥

पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। लिखि = (सब जीवों के माथे पर) लिख के। कै कारजि = के काम के लिए। आपु = अपना आप। दिखाइआ = प्रकट किया। आगै आइआ = पूरा हुआ।10।

अर्थ: हे भाई! कर्तार ने स्वयं ही जनम-मरण का चक्कर बनाया है, स्वयं ही जीवों के अंदर माया का मोह पैदा किया हुआ है। (जगत में) आना (जगत से) चले जाना-ये लेख कर्तार ने स्वयं ही हरेक जीव के माथे पर लिख रखा है। (हर्णाकश्यप के भी क्या वश?) प्रहलाद का काम संवारने के लिए परमात्मा ने अपने आप को (नरसिंह रूप में) प्रकट किया। (इस तरह) भगतों का वचन पूरा हो गया (कि ‘अपुने सेवक कउ दे बड़ाई’)।10।

देव कुली लखिमी कउ करहि जैकारु ॥ माता नरसिंघ का रूपु निवारु ॥ लखिमी भउ करै न साकै जाइ ॥ प्रहलादु जनु चरणी लागा आइ ॥११॥

पद्अर्थ: देव कुली = देवताओं की सारी कुल, सारे देवता। लखिमी = लक्ष्मी। कउ = को। करहि = करते हैं, करने लग पड़े। जैकारु = नमस्कार, बड़ाई। माता = हे माता! निवारु = दूर कर। भउ = डर। करै = करती है। भउ करै = डरती है, डरती थी। न जाइ साकै = जा नहीं सकती। आइ = आ के।11।

अर्थ: हे भाई! सारे देवताओं ने लक्ष्मी की उपमा की (और कहा-) हे माता! (प्रेरणा कर के कह: हे प्रभु!) नरसिंह वाला रूपदूर कर। (पर) लक्ष्मी भी डरती थी, वह भी (नरसिंह के नजदीक) नहीं जा सकती थी। (परमात्मा का) भक्त प्रहलाद (नरसिंह के) चरणों में आ लगा।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh