श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1155 सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ ॥ राजु मालु झूठी सभ माइआ ॥ लोभी नर रहे लपटाइ ॥ हरि के नाम बिनु दरगह मिलै सजाइ ॥१२॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। सभ = सारी। रहे लपटाइ = चिपके रहे हैं। दरगह = प्रभु की हजूरी में।12। अर्थ: हे भाई! गुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा का नाम खजाना पक्का कर दिया (उसको दिखाई दे जाता है कि) दुनिया का राज-माल और सारी माया -ये सब कुछ नाशवान है। पर लालची लोग इसके साथ ही चिपके रहते हैं। परमात्मा के नाम के बिना (उनको) परमात्मा की हजूरी में सजा मिलती है।12। कहै नानकु सभु को करे कराइआ ॥ से परवाणु जिनी हरि सिउ चितु लाइआ ॥ भगता का अंगीकारु करदा आइआ ॥ करतै अपणा रूपु दिखाइआ ॥१३॥१॥२॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कराइआ = परमात्मा का प्रेरित हुआ। से = वह (बहुवचन)। सिउ = साथ। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। करतै = कर्तार ने।13। अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: (जीवों के भी क्या वश?) हरेक जीव परमात्मा का प्रेरित हुआ ही (कर्म) करता है। जिन्होंने (यहाँ) परमात्मा (के नाम) से चिक्त जोड़ा, वे प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो गए। हे भाई! धुर से ही परमात्मा अपने भक्तों का पक्ष करता आ रहा है। कर्तार ने (स्वयं ही अपने भक्तों को) अपना दर्शन दिए हैं (और उनकी सहायता की है)।13।1।2। भैरउ महला ३ ॥ गुर सेवा ते अम्रित फलु पाइआ हउमै त्रिसन बुझाई ॥ हरि का नामु ह्रिदै मनि वसिआ मनसा मनहि समाई ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। गुर सेवा ते = गुरु की सेवा से, गुरु की शरण पड़ने से। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। त्रिसन = तृष्णा, माया का लालच। हृदै = हृदय में। मनि = मन में। मनसा = मनका फुरना (मनीषा)। मनहि = मनि ही, मन में ही। समाई = लीन हो जाती है।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम फल प्राप्त कर लिया, उसने (अपने अंदर से) अहंकार और तृष्णा (की आग) बुझा ली। परमात्मा का नाम उसके हृदय में उसके मन में बस गया, उसके मन का (मायावी) फुरना मन में ही लीन हो गया।1। हरि जीउ क्रिपा करहु मेरे पिआरे ॥ अनदिनु हरि गुण दीन जनु मांगै गुर कै सबदि उधारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि = हे हरि! अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। दीन जनु = गरीब सेवक। मांगै = माँगता है (एकवचन)। कै सबदि = के शब्द से। उधारे = उद्धार, (संसार समुंदर से) पार लंघा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभु जी! (मुझ गरीब पर) मेहर कर। (तेरे दर का) गरीब सेवक (तुझसे) हर वक्त तेरे गुण (गाने की दाति) माँगता है। हे प्रभु! मुझे गुरु के शब्द के द्वारा (विकारों से) बचाए रख।1। रहाउ। संत जना कउ जमु जोहि न साकै रती अंच दूख न लाई ॥ आपि तरहि सगले कुल तारहि जो तेरी सरणाई ॥२॥ पद्अर्थ: कउ = को। जोहि न साकै = ताक नहीं सकता। रती = रक्ती भर भी। अंच = आँच, सेक। न लाई = नहीं लगाता। तरहि = तैर जाते हैं (बहुवचन)। सगले = सारे।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों की तरफ जमराज (भी) ताक नहीं सकता, (दुनिया के) दुखों का रक्ती भर भी सेका (उनको) लग नहीं सकता। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, वह स्वयं (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेते हैं।2। भगता की पैज रखहि तू आपे एह तेरी वडिआई ॥ जनम जनम के किलविख दुख काटहि दुबिधा रती न राई ॥३॥ पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत। आपे = स्वयं ही। वडिआई = बड दिली, उपमा, महिमा। किलविख = पाप। काटहि = तू काट देता है। दुबिधा = मेर तेर, दोचिक्ता मन। राई = रक्ती भर भी।3। अर्थ: हे प्रभु! अपने भकतों की (लोक-परलोक में) इज्जत तू स्वयं ही रखता है, यह तेरी प्रतिभा है। तू उनके (पिछले) अनेक ही जन्मों के पाप और दुख काट देता है, उनके अंदर रक्ती भर भी राई भर भी मेर-तेर नहीं रह जाती (दुबिधा समाप्त हो जाती है)।3। हम मूड़ मुगध किछु बूझहि नाही तू आपे देहि बुझाई ॥ जो तुधु भावै सोई करसी अवरु न करणा जाई ॥४॥ पद्अर्थ: हम = हम जीव। मुगध = मूर्ख। बूझहि = (हम) समझते। देहि = तू देता है। बुझाई = (आत्मिक जीवन की) समझ। जो = जो काम। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। करसी = (हरेक जीव) करेगा। अवरु = और काम।4। अर्थ: हे भाई! हम (जीव) मूर्ख हैं अन्जान हैं, हम (आत्मिक जीवन का सही रास्ता) (रक्ती भर) नहीं समझते, तू स्वयं ही (हमें यह) समझा देता है। हे प्रभु! जो काम तुझे अच्छा लगता है, वह (हरेक जीव) करता है, (उससे उलट) और कोई काम नहीं किया जा सकता।4। जगतु उपाइ तुधु धंधै लाइआ भूंडी कार कमाई ॥ जनमु पदारथु जूऐ हारिआ सबदै सुरति न पाई ॥५॥ पद्अर्थ: उपाइ = पैदा कर के। धंधै = (दुनिया के) धंधों में। भूंडी = बुरी। जूऐ = जूए में। सबदै = शब्द से। सुरति = आत्मिक जीवन की सूझ।5। अर्थ: हे प्रभु! (तूने स्वयं ही) जगत को पैदा करके (तूने स्वयं ही इसको माया के) धंधे में लगा रखा है, (तेरी प्रेरणा से जगत माया के मोह की) बुरी कार कर रहा है। (माया के मोह में फंस के जगत ने) कीमती मानव जनम को (जुआरिए की तरह) जूए में हार दिया है, गुरु के शब्द से (जगत ने) आत्मिक जीवन की सूझ हासिल नहीं की।5। मनमुखि मरहि तिन किछू न सूझै दुरमति अगिआन अंधारा ॥ भवजलु पारि न पावहि कब ही डूबि मुए बिनु गुर सिरि भारा ॥६॥ पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मरहि = मर जाते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरा = अंधकार। भवजलु = संसार समुंदर। डूबि मुए = (विकारों में) डूब के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। सिरि भारा = सिर के भार।6। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, उनको आत्मिक जीवन की रक्ती भर भी समझ नहीं पड़ती। बुरी मति का, आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का (उनके अंदर) अंधकार छाया रहता है। वे मनुष्य गुरु की शरण पड़ बिना विकारों में सिर के भार डूब के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, वे कभी भी संसार-समुंदर से पार नहीं लांघ सकते।6। साचै सबदि रते जन साचे हरि प्रभि आपि मिलाए ॥ गुर की बाणी सबदि पछाती साचि रहे लिव लाए ॥७॥ पद्अर्थ: साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। रते = रंगे हुए। प्रभि = प्रभु ने। बाणी = आतम तरंग, वलवला। सबदि = शब्द से। पछाती = सांझ डाल ली। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। रहे लाए = लगाए रखते हैं।7। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में रंगे रहते हैं वे सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं। प्रभु ने स्वयं ही उनको अपने साथ मिला लिया होता है। गुरु के शब्द से उन्होंने गुरु के आत्म-तरंग के साथ सांझ पा ली होती है। वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में तवज्जो जोड़े रखते हैं।7। तूं आपि निरमलु तेरे जन है निरमल गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानकु तिन कै सद बलिहारै राम नामु उरि धारे ॥८॥२॥३॥ पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। है = हैं। वीचारे = गुणों की विचार करके। सद = सदा। बलिहारै = सदके। उरि = हृदय में।8। नोट: ‘निरमलु’ एकवचन है और ‘निरमल’ बहुवचन। अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं पवित्र स्वरूप है। तेरे सेवक गुरु के शब्द द्वारा (तेरे गुणों का) विचार कर के पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। हे भाई! नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है, जो परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रखते हैं।8।2।3। भैरउ महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिसु नामु रिदै सोई वड राजा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु पूरे काजा ॥ जिसु नामु रिदै तिनि कोटि धन पाए ॥ नाम बिना जनमु बिरथा जाए ॥१॥ पद्अर्थ: जिसुरिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। काजा = काम। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कोटि = करोड़ों। कोटि धन = करोंड़ों किस्मों के धन। बिरथा = व्यर्थ।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है वही (सब राजाओं से) बड़ा राजा है, उस मनुष्य के सारे काम सफल हो जाते हैं, उसने (मानो) करोड़ों किस्मों के धन प्राप्त कर लिए। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्यका जीवन व्यर्थ चला जाता है।1। तिसु सालाही जिसु हरि धनु रासि ॥ सो वडभागी जिसु गुर मसतकि हाथु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तिसु = उस (मनुष्य) को। सालाही = मैं सालाहता हूँ। रासि = राशि, पूंजी। जिसु मसतकि = जिस मनुष्य के माथे पर। गुर हाथु = गुरु का हाथ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं उस मनुष्य की सराहना करता हूँ जिसके पास परमात्मा का नाम-धन संपत्ति है। जिस मनुष्य के माथे पर गुरु का हाथ टिका हुआ हो, वह बहुत भाग्यशाली है।1। रहाउ। जिसु नामु रिदै तिसु कोट कई सैना ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सहज सुखैना ॥ जिसु नामु रिदै सो सीतलु हूआ ॥ नाम बिना ध्रिगु जीवणु मूआ ॥२॥ पद्अर्थ: कोट कई-कई किले। सैना = फौजें। सहज सुखैना = आत्मिक अडोलता के सुख। मूआ = आत्मिक मौत मरा हुआ।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, वह (मानो) कई किलों और फौजों (का मालिक हो जाता है), उसको आत्मिक अडोलता के सारे सुख मिल जाते हैं, उसका हृदय (पूर्ण तौर पर) शांत रहता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है उसका जीवन धिक्कारयोग्य हो जाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |