श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1157 अविगत नाथु अगोचर सुआमी ॥ पूरि रहिआ घट अंतरजामी ॥ जत कत देखउ तेरा वासा ॥ नानक कउ गुरि कीओ प्रगासा ॥८॥२॥५॥ पद्अर्थ: अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। नाथु = पति प्रभु। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। घट = शरीर = (बहुवचन)। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। जत कत = जहाँ कहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। कउ = को। गुरि = गुरु ने। प्रगासा = आत्मिक रोशनी।8। अर्थ: हे भाई! हमारा वह पति-प्रभु अदृष्य है, हमारा वह स्वामी ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, सब जीवों के दिल की जानने वाला वह प्रभु सब शरीरों में मौजूद है। हे प्रभु! (मुझे) नानक को गुरु ने (ऐसा आत्मिक) प्रकाश बख्शा है कि मैं जिधर-किधर देखता हूँ मुझे तेरा ही निवास दिखाई देता है।8।2।5। भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरि मो कउ कीनो दानु ॥ अमोल रतनु हरि दीनो नामु ॥ सहज बिनोद चोज आनंता ॥ नानक कउ प्रभु मिलिओ अचिंता ॥१॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। मो कउ = मुझे। अमोल = जो किसी भी मूल्य में ना मिल सके। सहज बिनोद = आत्मिक अडोलता के आनंद। आनंता = बेअंत। अचिंता = (जीवों के मन की) चिन्ता दूर करने वाला।1। अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे (यह) दाति बख्शी है, (गुरु ने मुझे वह) नाम-रतन दिया है जो किसी भी मूल्य से नहीं मिल सकता। (मुझे) नानक को (गुरु की कृपा से) चिन्ता दूर करने वाला परमात्मा आ मिला है, (अब मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता के बेअंत आनंद-तमाशे बने रहते हैं।1। कहु नानक कीरति हरि साची ॥ बहुरि बहुरि तिसु संगि मनु राची ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कहु = कहो। नानक = हे नानक! कीरति = महिमा। साची = सदा स्थिर रहने वाली। बहुरि बहुरि = बारबार। तिसु संगि = उस (महिमा) से। राची = जोड़ी रख।1। रहाउ। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की सदा कायम रहने वाली उपमा किया कर। अपने मन को बार-बार उस (महिमा) से जोड़े रख।1। रहाउ। अचिंत हमारै भोजन भाउ ॥ अचिंत हमारै लीचै नाउ ॥ अचिंत हमारै सबदि उधार ॥ अचिंत हमारै भरे भंडार ॥२॥ पद्अर्थ: अचिंत भाउ = चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा का प्यार। हमारै = मेरे वास्ते। लीचै = लिया जाता है। अचिंत नाउ = अचिंत प्रभु का नाम। अचिंत सबदि = चिन्ता दूर करने वाले प्रभु की महिमा से। उधार = उद्धार, पार उतारा।2। अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से अब) चिन्ता दूर करने वाले प्रभूका प्यार ही मेरे लिए (आत्मिक जीवन की) ख़ुराक है, मेरे अंदर अचिंत प्रभु का नाम ही सदा लिया जा रहा है, अचिंत प्रभु की महिमा की वाणी द्वारा विकारों से मेरा बचाव हो रहा है। (गुरु की कृपा से) मेरे अंदर चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा के नाम-खजाने भरे गए हैं।2। अचिंत हमारै कारज पूरे ॥ अचिंत हमारै लथे विसूरे ॥ अचिंत हमारै बैरी मीता ॥ अचिंतो ही इहु मनु वसि कीता ॥३॥ पद्अर्थ: पूरे = सफल होते हैं। विसूरे = चिन्ता झोरे। मीता = मित्र। अचिंतो ही = चिन्ता दूर करने वाला हरि का नाम ले के ही। वसि = काबू में।3। अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा के नाम की इनायत से मेरे सारे काम सफल हो रहे हैं, (मेरे अंदर से सारे) चिन्ता-फिक्र समाप्त हो गए हैं, अब मुझे वैरी भी मित्र दिखाई दे रहे हैं। चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम ले कर ही मैंने अपना यह मन वश में कर लिया है।3। अचिंत प्रभू हम कीआ दिलासा ॥ अचिंत हमारी पूरन आसा ॥ अचिंत हम्हा कउ सगल सिधांतु ॥ अचिंतु हम कउ गुरि दीनो मंतु ॥४॥ पद्अर्थ: हम = हमें, मुझे। दिलासा = हौसला। हमा कउ = मेरे वास्ते। सिधांतु = सिद्धांत, धर्म का निचोड़। अचिंतु = चिन्ता दूर करने वाले प्रभु का नाम। गुरि = गुरु ने। मंतु = उपदेश।4। अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा ने मुझे हौसला बख्शा है, मेरी सारी आशाएं पूरी हो गई हैं। चिन्ता दूर करने वाले प्रभु का नाम जपना ही मेरे वास्ते सारे धर्मों का निचोड़ है। हे भाई! यह नाम-मंत्र मुझे गुरु ने दिया है।4। अचिंत हमारे बिनसे बैर ॥ अचिंत हमारे मिटे अंधेर ॥ अचिंतो ही मनि कीरतनु मीठा ॥ अचिंतो ही प्रभु घटि घटि डीठा ॥५॥ पद्अर्थ: बैर = वैर विरोध (बहुवचन)। अंधेर = माया के मोह के अंधेरे। अचिंते ही = चिन्ता दूर करने वाले प्रभु का नाम (जप के) ही। मनि = मन में। घटि घटि = हरेक शरीर में।5। अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले परमात्मा के नाम जप के (मेरे अंदर से सारे) वैर विरोध नाश हो गए हैं, (मेरे अंदर से) माया के मोह के अंधेरे दूर हो गए हैं। हे भाई! चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम जप के ही मेरे मन को परमात्मा की महिमा प्यारी लग रही है, और उस परमात्मा को मैंने हरेक हृदय में बसता देख लिया है।5। अचिंत मिटिओ है सगलो भरमा ॥ अचिंत वसिओ मनि सुख बिस्रामा ॥ अचिंत हमारै अनहत वाजै ॥ अचिंत हमारै गोबिंदु गाजै ॥६॥ पद्अर्थ: सगलो = सारा। बिस्रामा = विश्राम, ठिकाना। अनहत = एक रस, लगातार, बिना साज़ बजाए। वाजै = बज रहा है, राग हो रहा है। गाजै = गरज रहा है, पूरा प्रभाव डाल रहा है।6। अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम की इनायत से मेरी सारी भटकना समाप्त हो गई है, (जब से) अचिंत प्रभु मेरे मन में आ बसा है, मेरे अंदर आत्मिक आनंद का (पक्का) ठिकाना बन गया है। अब मेरे अंदर चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम का एक-रस निरंतर बाजा बज रहा है, मेरे अंदर गोबिंद का नाम ही हर वक्त गूँज रहा है।6। अचिंत हमारै मनु पतीआना ॥ निहचल धनी अचिंतु पछाना ॥ अचिंतो उपजिओ सगल बिबेका ॥ अचिंत चरी हथि हरि हरि टेका ॥७॥ पद्अर्थ: पतीआना = पतीज गया है भटकने से हट गया है। निहचल धनी = सदा कायम रहने वाला मालिक। पछाना = पहचान लिया है, सांझ डाल ली है। बिबेका = अच्छेबुरेकाम की परख। चरी = चढ़ी है। हथि = हाथ में। टेक = आसरा।7। अर्थ: हे भाई! चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम की इनायत से मेरा मन भटकने से हट गया है, अचिंत हरि-नाम जप के मैंने सदा कायम रहने वाले मालिक-प्रभु के साथ सांझ डाल ली है। चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम जप के ही मेरे अंदर अच्छे-बुरे काम की सारी पहचान (करने की क्षमता अर्थात विवेक) पैदा हो गई है। इस अचिंत हरि-नामकी मुझे सदा के लिए टेक मिल गई है।7। अचिंत प्रभू धुरि लिखिआ लेखु ॥ अचिंत मिलिओ प्रभु ठाकुरु एकु ॥ चिंत अचिंता सगली गई ॥ प्रभ नानक नानक नानक मई ॥८॥३॥६॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। अचिंता = चिन्ता दूर करने वाला हरि नाम। चिंत सगली = सारी चिन्ता। प्रभ मई = प्रभु का रूप।8। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु ने चिन्ता दूर करने वाले हरि-नाम की प्राप्ति का लेख धुर दरगाह से लिख दिया है, उसको वह सबका मालिक प्रभु मिल जाता है। हे भाई! चिन्ता दूर करने वाला हरि-नाम जप के मेरी सारी चिन्ता दूर हो गई है, अब मैं नानक सदा के लिए प्रभु में लीन हो गया हूँ।8।3।6। अंकों का वेरवा:
भैरउ बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥ गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरे = मेरे पास। को = का। गांठि = गाँठ। गांठि न बाधउ = मैं पल्ले गाँठ बांध के नहीं रखता, मैं कंजूसों की तरह छुपा के नहीं रखता। बेचि न खाउ = मैं इस को बेच के भी नहीं खाता, मैं इस धन को फजूल में नहीं खरचता, मैं इस धन का दिखावा भी नहीं करता।1। रहाउ। अर्थ: प्रभु का यह नाम मेरे लिए धन है (जैसे लोग धन को जीवन का सहारा बना लेते हैं, मेरे जीवन का सहारा प्रभु का नाम ही है, पर) मैं ना तो इसे छुपा के रखता हूँ, और ना ही दिखावे के लिए इस्तेमाल करता हूँ।1। रहाउ। नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥ भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ पद्अर्थ: बारी = वाड़ी, बगीची। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जनु = (मैं) दास।1। अर्थ: (कोई मनुष्य खेती-बाड़ी को आसरा मानता है, पर) मेरे लिए प्रभु का नाम ही खेती है, और नाम ही बगीची है। हे प्रभु! मैं तेरा दास तेरी ही शरण हूँ, और तेरी भक्ति करता हूँ।1। नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥ तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥ पद्अर्थ: माइआ = धन। पूंजी = राशि। दूजी = और कोई राशि-पूंजी।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम ही मेरे लिए माया है और राशि-पूंजी है (व्यापार करनेके लिए। भाव, व्यापार शारीरिक निर्वाह के वास्ते है, मेरी जिंदगी का सहारा नहीं है)। हे प्रभु! तुझे विसार के मैं किसी और राशि-पूंजी के साथ सांझ नहीं डालता।2। नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥ नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥ पद्अर्थ: बंधिप = सम्बंधी। भाई = भ्राता। संगि = साथ। सखाई = सहाई, सहायता करने वाला।3। अर्थ: प्रभु का नाम ही मेरे लिए रिश्तेदार है, नाम ही मेरा भाई है; नाम ही मेरा आखिर में सहायता करने वाला बन सकता है।3। माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥ कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥ पद्अर्थ: जिसु = जिस (मनुष्य) को। उदासु = निर्लिप। ता को = उसका।4। अर्थ: कबीर कहता है: मैं उस मनुष्य का सेवक हूँ जिसको प्रभु माया में रहते हुए को माया से निर्लिप रखता है।4।1। नोट: मनुष्य जीवन निर्वाह के लिए धन कमाना शुरू करता है। सहजे ही इससे इतना मोह बन जाता है कि धन ही जिंदगी का आसरा बन जाता है। अपने शरीर के निर्वाह के लिए अपने हाथ से ही कमाई करनी है, किसी और पर अपना भार नहीं डालना, पर धन को जिंदगी का मनोरथ नहीं बना लेना; यह है उपदेश इस शब्द में। नांगे आवनु नांगे जाना ॥ कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥ पद्अर्थ: न रहि है = नहीं रहेगा।1। अर्थ: (जगत में) नंगे आना है, और नंगे ही (यहाँ से) चले जाना है। कोई राजा हो, अमीर हो, किसी ने यहाँ सदा नहीं रहना।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |