श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामु राजा नउ निधि मेरै ॥ स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रामु राजा = सारे जगत का मालिक प्रभु!

(नोट: शब्द ‘राजा’ संबोधन में नहीं है, वह है ‘राजन’; जैसे ‘राजन! कउन तुमारै आवै’)।

नउ निधि = नौ खजाने, जगत का सारा धन माल। मेरे = मेरे लिए, मेरे हृदय में। संपै हेतु = ऐश्वर्य का मोह। कलतु = कलत्र, स्त्री। तेरै = तेरे लिए, तेरे मन में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरे लिए तो जगत के मालिक प्रभु का नाम ही जगत का सारा धन-माल है (भाव, प्रभु मेरे हृदय में बसता है, यही मेरे लिए सब कुछ है)। पर तेरे लिए ऐश्वर्य का मोह, स्त्री धन- (यही जिंदगी का सहारा हैं)।1। रहाउ।

आवत संग न जात संगाती ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥

पद्अर्थ: संगाती = साथ। दरि = दर पर।2।

अर्थ: अगर दरवाजे पर हाथी बँधे हुए हैं, तो भी क्या हुआ? (इनका हमारे साथ जाना तो कहीं रहा, यह अपना शरीर भी) जो जन्म के समय साथ आता है (चलने के वक्त) साथ नहीं जाता।2।

लंका गढु सोने का भइआ ॥ मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥

पद्अर्थ: गढु = गढ़, किला।3।

अर्थ: (लोग कहते हैं कि) लंका का किला सोने का बना हुआ था (पर इसके गुमान में रहने वाला) मूर्ख रावण (मरने के वक्त) अपने साथ कुछ भी नहीं ले के गया।3।

कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥ चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥

पद्अर्थ: कहि = कहै, कहता है। गुनु = गुण। दुइ हथ झारि = दोनों हाथ झाड़ के, खाली हाथ।4।

अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! कोई भलाई की बात भी विचार, (धन पर गुमान करने वाला बँदा) जुआरिए की तरह (जगत से) खाली हाथ चल पड़ता है।4।2।

नोट: लोगों में आम प्रचलित ख्यालों को उनके सामने रख के भक्त जी जीवन का सही रास्ता बताते हैं। लंका का किला समूचा सोने का बना हुआ था अथवा नहीं, इस बात से भक्त जी का वास्ता नहीं है। लोगों में यही बात मशहूर है कि रावण की लंका सोने की थी, और लोग रावण के अंत का हाल भी जानते हैं कि महलों में कोई दीया जलाने वाला भी नहीं रह गया। सो, इसी प्रसिद्ध कहानी को सामने रख के समझाते हैं कि धन-पदार्थ का आसरा लेना कच्ची बात है।

मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥ रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥

पद्अर्थ: इंदु = देवताओं का राजा इन्द्र। रवि = सूर्य।1।

अर्थ: ब्रहमा (भले ही जगत को पैदा करने वाला मिथा जाता है पर) ब्रहमा भी मैला, इन्द्र भी मैला (चाहे वह देवताओं का राजा माना गया है)। (दुनिया को रौशनी देने वाले) सूर्य और चंद्रमा भी मैले हैं।1।

मैला मलता इहु संसारु ॥ इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मलता = मलीन।1। रहाउ।

अर्थ: ये (सारा) संसार मैला है, मलीन है, केवल परमात्मा ही पवित्र है, (इतना पवित्र है कि उसकी पवित्रता का) अंत नहीं पाया जा सकता, उस पार का छोर नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥ मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥

पद्अर्थ: ईस = ईश, राजे। ब्रहमंडाइ कै = ब्रहमण्डों के। निसि = रात। बासरु = दिन। तीस = गिनती के तीस।2।

अर्थ: ब्रहमण्डों के राजा (भी हो जाएं तो भी) मैले हैं; रात-दिन, महीने के तीसों दिन सब मैले हैं (बेअंत जीव-जंतु विकारों से इनको मैला किए जा रहे हैं)।2।

मैला मोती मैला हीरु ॥ मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥

पद्अर्थ: हीरु = हीरा। पावकु = आग।3।

अर्थ: (इतने कीमती होते हुए भी) मोती के हीरे भी मैले हैं, हवा, आग और पानी भी मैले हैं।3।

मैले सिव संकरा महेस ॥ मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥

पद्अर्थ: संकरा = शिव। महेस = शिव। सिध = जोग साधनों में सिद्धहस्त योग। साधिक = जोग के साधन करने वाले। भेख = कई भेषों के साधु।4।

अर्थ: शिव-शंकर-महेश भी मैले हैं (भले ही ये महान देवता माने गए हैं)। सिध, साधक और भेखधारी साधु सब मैले हैं।4।

मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥ मैली काइआ हंस समेति ॥५॥

पद्अर्थ: जंगम = शैव मत का एक पंथ जो जोगियों की एक शाखा है। जंगम अपने सिर पर साँप के शक्ल की रस्सी और धातुका चँद्रमा पहनते हैं। कानों में मुंद्रों की जगह पीतल के फूल जिसे मोर-पंखों से सजाया होता है, पहनते हैं। जंगमों के दो धड़े हैं: विरक्त और गृहस्थी। सहेति = समेत। काइआ = शरीर। हंस = जीवात्मा।5।

अर्थ: जोगी, जंगम, जटाधारी सब अपवित्र हैं; यह शरीर भी मैला और जीवात्मा भी मैला हुआ पड़ा है।5।

कहि कबीर ते जन परवान ॥ निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥

पद्अर्थ: परवान = स्वीकार। रामहि = परमात्मा को।6।

अर्थ: कबीर कहता है: सिर्फ वह मनुष्य (प्रभु के दर पर) स्वीकार हैं, सिर्फ वह मनुष्य पवित्र हैं जिन्होंने परमात्मा के साथ सांझ डाली है।6।3।

मनु करि मका किबला करि देही ॥ बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥

पद्अर्थ: मका = मक्का, अरब देश का एक शहर जहाँ मुसलमान हज करने जाते हैं। किबला = काबे की चार दिवारी जिसकी ज़िआरत करते हैं। किबला = (क्रिया विशेषण) सामने, सन्मुख। 2. जिसकी तरफ मुँह करें, ऐसा धर्म मन्दिर, काबा। मक्के में मुसलमानों का प्रसिद्ध मन्दिर। परम गुरु = बड़ा पीर।1।

अर्थ: हे मुल्ला! मन को मक्का और परमात्मा को किबला बना। (अंतहकर्ण मक्का है और सब शरीरों का स्वामी कर्तार उसमें पूज्य है)। बोलने वाला जीवात्मा बाँग देने वाला और नायक हो के नमाज़ पढ़ने वाला परम गुरु (इमाम) है।1।

कहु रे मुलां बांग निवाज ॥ एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे मुलां = हे मुल्ला! दसै दरवाज = दस दरवाजों वाली।1। रहाउ।

अर्थ: हे मुल्ला! यह दस दरवाजों (इन्द्रियों) वाला शरीर ही असल मस्जिद है, इसमें टिक के बाँग दे और नमाज़ पढ़।1। रहाउ।

मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥ भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥

पद्अर्थ: मिसिमिलि = (बिसमिलु, बिसमिल्ला, अल्लाह के नाम पर। बकरा आदि पशू मारने के वक्त मुसलमान मुँह से ‘बिसमिल्ला’ कहता है, भाव यह, कि रब के आगे भेट करता है। यहाँ इसका अर्थ ‘जीव को कष्ट दे के मारना’ बन गया है) मार दे। तामसु = तामसी स्वभाव, क्रोध आदि वाला स्वभाव। कदूरी = कुदरति, मन की मैल। भाखि ले = खा ले, खत्म कर दे। पंचै = कामादिक पाँचों को। सबूरी = सब्र, धैर्य, शांति।2।

अर्थ: (हे मुल्ला! पशू की कुर्बानी देने की जगह अपने अंदर से) क्रोध भरा स्वभाव, भटकना और कदूरत दूर कर, कामादिक पाँचों को समाप्त कर दे, तेरे अंदर शांति पैदा होगी।2।

हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥ कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥

पद्अर्थ: कह = क्या?।3।

अर्थ: मुल्ला व शेख (बनने से प्रभु की हजूरी में) कोई खास बड़ा दर्जा नहीं मिल जाता। हिन्दू व मुसलमान दोनों का मालिक प्रभु स्वयं ही है।3।

कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥ मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥

पद्अर्थ: दिवाना = पागल। मुसि मुसि = धीरे-धीरे। मनूआ = अंजान मन। सहजि = सहज अवस्था में।4।

अर्थ: कबीर कहता है: (मेरी ये बातें तंग-दिल लोगों को पागलों वाली लगती हैं; लोगों के लिए तो) मैं पागल हो गया हूँ, पर मेरा मन आहिस्ता-आहिस्ता (अंदर से हज कर के ही) अडोल अवस्था में टिक गया है।4।4।

गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥ सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥

पद्अर्थ: सलिता = नदी। बिगरी = बिगड़ गई। निबरी = निबड़ गई, समाप्त हो गई, स्वै को मिटा लिया।1।

अर्थ: (अगर जिंद के मालिक प्रभु के चरणों से लगना बिगड़ना ही है तो) नदी भी गंगा के साथ मिल के बिगड़ जाती है, पर वह नदी तो गंगा का रूप हो के अपना आप समाप्त कर देती है।1।

बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥ साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम दुहाई = राम की दोहाई दे के, प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के। अन कतहि = और किसी भी जगह।1। रहाउ।

अर्थ: कबीर अपने प्रभु का स्मरण हर वक्त कर रहा है (पर लोगों की बाबत) कबीर बिगड़ गया है (लोग नहीं जानते कि राम की दोहाई दे दे के) कबीर राम का रूप हो गया है, अब (राम को छोड़ के) किसी और तरफ़ नहीं भटकता।1। रहाउ।

चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥ सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥

पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष।2।

अर्थ: (साधारण) वृक्ष भी चँदन के साथ (लग के) बिगड़ जाता है, पर वह वृक्ष चँदन का रूप हो के अपना आप मिटा लेता है।2।

पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥ सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥

पद्अर्थ: कंचनु = सोना।3।

अर्थ: ताँबा भी पारस से छू के रूप बदल लेता है, पर वह ताँबा सोना ही बन जाता है और अपना आप खत्म कर देता है।3।

संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥ सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥

अर्थ: (इसी तरह) कबीर भी संतों की संगति में रह के बिगड़ गया है। पर, यह कबीर अब प्रभूके साथ ऐक-मेक हो गया है, और स्वै भाव समाप्त कर चुका है।4।5।

माथे तिलकु हथि माला बानां ॥ लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥

पद्अर्थ: हथि = हाथ में। बानां = धार्मिक पहरावा। लोगन = लोगों ने।1।

अर्थ: (लोग) माथे पर तिलक लगा लेते हैं, हाथ में माला पकड़ लेते हैं, धार्मिक पहरावा बना लेते हैं, (और समझते हैं कि परमात्मा के भक्त बन गए हैं) लोगों ने परमात्मा को खिलौना (भाव, अंजान बालक) समझ लिया है (कि इन बातों से उसे परचाया जा सकता है)।1।

जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥ लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जउ = अगर। हउ = मैं। राम = हे राम! मरमु = भेद।1। रहाउ।

अर्थ: (मैं) कोई धार्मिक भेस नहीं बनाता, मैं मन्दिर आदि में जा के किसी देवते की पूजा नहीं करता, लोग मुझे पागल कहते हैं; पर हे मेरे राम! अगर मैं (लोगों के हिसाब से) पागल हूँ, तो भी (मुझे इस बात से संतुष्टि है कि) मैं तेरा (सेवक) हूँ। दुनिया भला मेरे दिल का भेद क्या जान सकती है?।1। रहाउ।

तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥ राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥

पद्अर्थ: तोरउ न = मैं नहीं तोड़ता। देवा = देवता।2।

अर्थ: (देवताओं के आगे भेटा धरने के लिए) ना ही मैं (फूल) पत्र तोड़ता हूँ, ना ही मैं किसी देवी-देवता की पूजा करता हूँ, (मैं जानता हूँ कि) प्रभु की बँदगी के बिना किसी और की पूजा (करनी) व्यर्थ है।2।

सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥ ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥

पद्अर्थ: पूजउ = मैं पूजता हूँ। दरगह = प्रभु की हजूरी में।3।

नोट: इस तुक में शब्द ‘पूजउ’, ‘मनावउ’ और ‘पावउ’ वर्तमान काल एकवचन में हैं। इनका अर्थ है पूजता हूँ, मनाता हूँ, पाता हूँ, जैसे ‘गुरु को पूजना और मनाना’ कोई आगे आने वाले जन्म का कर्म नहीं, अब के समय में मानव जन्म के समय का कर्तव्य है, जैसे ‘दरगह सुखु पावउ’ भी हाल के समय से ही सम्बंध रखता है, किसी आगे आने वाले जन्म के साथ सम्बँध रखने वाली घटना नहीं है। सो, ‘दरगह’ का भाव है ‘प्रभु के चरणों में जुड़ने वाली अवस्था’।

अर्थ: मैं अपने सतिगुरु के आगे सिर झुकाता हूँ, उसी को सदा प्रसन्न करता हूँ, और इस सेवा की इनायत से प्रभु की हजूरी में जुड़ के सुख भोगता हूँ।3।

लोगु कहै कबीरु बउराना ॥ कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥

अर्थ: (हिन्दू-) जगत कहता है, कबीर पागल हो गया है (क्योंकि ना ये तिलक आदि चिन्ह का इस्तेमाल करता है और ना ही फूल-पत्ते आदि ले के किसी मन्दिर में भेट करने जाता है), पर कबीर के दिल का भेद कबीर का परमात्मा जानता है।4।6।

उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥ सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥

पद्अर्थ: उलटि = (माया से) पलट के। दोऊ = जाति और कुल दोनों को। सुंनि = अफुर अवस्था। सहज = अडोल अवस्था। बुनत = ताणी, मन की लगन, लिव, ध्यान।1।

अर्थ: (नाम की इनायत से मन को माया से) उल्टा के मैंने जाति और कुल दोनों ही बिसार दिए हैं (मुझे ये बात समझ आ गई है कि प्रभु-मिलाप का किसी विशेष जाति व कुल से सम्बँध नहीं है)। मेरी लगन अब उस अवस्था में टिकी हुई है, जहाँ माया के फुरने नहीं हैं, जहाँ अडोलता ही अडोलता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh