श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1159 हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥ पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: झगरा = वास्ता, सम्बंध।1। रहाउ। अर्थ: (ज्यों-ज्यों मैं नाम-जपने की ताणी उन रहा हूँ) मैंने पंडित और मुल्ला दोनों ही छोड़ दिए हैं। दोनों (के द्वारा बताए गए कर्मकांड और शरहके रास्ते) के साथ अब मेरा कोई वास्ता नहीं रहा (भाव, कर्मकांड और शरह ये दोनों ही नाम-स्मरण के मुकाबले में तुच्छ हैं)।1। रहाउ। बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥ जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥ पद्अर्थ: बुनि बुनि = बुन बुन के, प्रभूके चरणों में ध्यान लगाने वाली ताणी उन उन के। आपु = अपने आप को। जह नही आपु = जहाँ स्वै भाव नहीं। तहा होइ = उस अवस्था में टिक के।2। अर्थ: (प्रभु चरणों में टिकी तवज्जो की ताणी) उन-उन के मैं अपने आप को पहना रहा हूँ, मैं वहाँ पहुँच के प्रभु की महिमाकर रहा हूँ जहाँ स्वै भाव नहीं है।2। पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥ छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥ पद्अर्थ: जे लिख दीआ = (कर्मकांड और शरह की बातें) जो उन्होंने लिख दी हैं।3। अर्थ: (कर्मकांड और शरह के बारे में) पण्डितों और मौलवियों ने जो कुछ लिखा है, मुझे किसी की भी आवश्यक्ता नहीं रही, मैंने ये सब कुछ छोड़ दिया है।3। रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥ आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥ पद्अर्थ: इखलासु = प्रेम, पवित्रता। निरखि ले = देख ले, दीदार कर ले, दीदार हो सकता है। मीरा = मीर, परमात्मा।4। अर्थ: अगर हृदय में प्रेम हो, तो ही प्रभु के दीदार हो सकते हैं (कर्मकांड और शरह सहायता नहीं करते)। हे कबीर! जो भी प्रभु को मिले हैं स्वै को खोज-खोज के ही मिले हैं (कर्मकांड और शरह की सहायता से नहीं मिले)।4।7। नोट: कबीर जी जाति के जुलाहे थे। अपने पेशे का दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि ज्यों-ज्यों मैं प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ने की ताणी उन रहा हूँ, त्यों-त्यों मुझे हिन्दुओं के कर्मकांड और मुसलमानों की शरह का आवश्यक्ता नहीं रही। ईश्वर को मिलने के लिए, बस, एक ही गुर है कि मनुष्य अपने आप की खोज करे और हृदय में प्रभूका प्रेम बसाए। नोट: जो महापुरुष मुसलमानों के राज काल में और हिन्दू सभ्यता के गढ़ काशी में रहते हुए इतनी दलेरी से सच की आवाज़ बुलन्द कर सकता है, दोनों धर्मों के धर्म के रखवालों का उसके विरुद्ध हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है। नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक पढ़ने के वक्त पाठकों को पहले ये ख्याल पैदा होता है कि ‘पंडित मुलां’ छोड़ने का भाव अच्छी तरह स्पष्ट नहीं हुआ। पर तीसरी तुक में जा के प्रश्न कुछ-कुछ हल हो जाता है कि पंडितों के बताए हुए कर्मकांड और मौलवियों की बताई शरह का ही कबीर जी वर्णन कर रहे हैं। वैसे कोई ऐसी रम्ज़ की बात यहाँ नहीं, जिसको समझने में कोई भुलेखा रह जाए और कोई उलट-पलट बात समझ ली जाए। सो, सतिगुरु जी ने इसी राग के शब्द नंबर 11 के साथ अपनी तरफ से शब्द दर्ज किया है, पर यहाँ ऐसी आवश्यक्ता नहीं पड़ी। पर, इस शब्द की खुली व्याख्या गुरु अरजन साहिब ने कर दी है, और इसी ही राग के अपने शबदों में उस शब्द को दर्ज कर दिया है। चुँकि वह शब्द केवल कबीर जी के इस शब्द की व्याख्या के लिए है, इसलिए उस में आखिर में कबीर जी का ही नाम उन्होंने दिया है जैसे शब्द नंबर 12 में किया है शीर्षक ‘भैरउ महला ५’ ये पक्का यकीन दिलवाता है कि शब्द सतिगुरु अरजन देव जी का ही उचारा हुआ है वह शब्द इस प्रकार है; भैरउ महला ५॥ वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥ एकु गुसाई अलहु मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥ हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ एको सेवी अवरु न दूजा॥२॥ पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥ ना हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंडु परान॥४॥ कहु कबीर इहु कीआ वखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ (पन्ना ११३६) ये बात प्रत्यक्ष है कि गुरु अरजन साहिब का ये शब्द कबीर जी के ऊपर लिखे शब्द के सम्बन्ध में है। ये तब ही सम्भव था जब गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ तैयार करने से काफी समय पहले कबीर जी का यह शब्द सतिगुरु जी के पास मौजूद हो। सो, यह ख्याल गलत है कि जब ‘बीड़’ लिखी जा रही थी, तब भगतों की रूहों ने आ के साथ-साथ में अपने शब्द लिखवाए थे। इस भैरव राग की ही मिसाल लें। ‘बीड़’ में गुरु अरजन साहिब जी ने पहले गुरु नानक देव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास जी और अपने शब्द दर्ज किए; अष्टपदियाँ और छंद आदि भी दर्ज कर लिए। यह शब्द नंबर 3 भी दर्ज हो गया। अगर इससे बाद में आए कबीर जी, तो उनका शब्द नंबर 7 के साथ संबन्ध रखने वाला गुरु अरजन साहिब का शब्द नंबर 3 कबीर जी के आने से पहले ही कैसे उचारा गया और दर्ज हो गया? दरअसल बात ये है कि कबीर जी की सारी वाणी गुरु नानक देव जी के पास मौजूद थी। निरधन आदरु कोई न देइ ॥ लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निरधन = धन हीन को, कंगाल को। कोई = कोई धन वाला मनुष्य। ओहु = वह धनी मनुष्य। चिति न धरेइ = कंगाल के यत्नों पर ध्यान ही नहीं देता।1। रहाउ। अर्थ: कोई (धनी) मनुष्य किसी कंगाल मनुष्य का आदर नहीं करता। कंगाल मनुष्य चाहे लाखों प्रयत्न (धनवान को प्रसन्न करने के) करे, वह धनी मनुष्य (उसके यत्नों की) परवाह नहीं करता।1। रहाउ। जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥ आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥ पद्अर्थ: सरधन = धनी। सरधन कै = धनी मनुष्य के घर।1। अर्थ: यदि कभी कोई गरीब बंदा किसी धनवान के घर चला जाए, आगे वह धनवान बैठा (उस गरीब से) पीठ मोड़ लेता है।1। जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥ दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥ अर्थ: पर अगर धनी मनुष्य गरीब के घर जाए, वह आदर देता है, स्वागत करता है।2। निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥ प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥ पद्अर्थ: कला = खेल, रज़ा।3। अर्थ: प्रभु की यह रजा (जिसके कारण कोई गरीब रह गया और कोई धनी बन गया) मिटाई नहीं जा सकती, वैसे कंगाल और धनवान दोनों भाई भाई ही हैं (धनी को इतना गुमान नहीं करना चाहिए)।3। कहि कबीर निरधनु है सोई ॥ जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥ पद्अर्थ: जा कै हिरदै = जिसके हृदय में।4। अर्थ: कबीर कहता है: (असल में) वह मनुष्य ही कंगाल है जिसके हृदय में प्रभूका नाम नहीं है (क्योंकि धन यहीं रह जाता है, और नाम-धन ने साथ निभना है; दूसरा, कितना ही धन मनुष्य इकट्ठा करता जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता, मन भूखा कंगाल ही रहता है)।4।8। गुर सेवा ते भगति कमाई ॥ तब इह मानस देही पाई ॥ इस देही कउ सिमरहि देव ॥ सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। देही = शरीर। पाई = पा ली। देही कउ = शरीर की खातिर।1। अर्थ: हे भाई! अगर तू गुरु की सेवा से बँदगी की कमाई करे, तो ही यह मनुष्य-शरीर मिला हुआ समझ। इस शरीर के लिए तो देवते भी तरसते हैं। तुझे ये शरीर (मिला है, इससे) नाम स्मरण कर, हरि का भजन कर।1। भजहु गुोबिंद भूलि मत जाहु ॥ मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुोबिंद = (असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है)। लाहु = लाभ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गोबिंद को स्मरण करो, ये बात भुला ना देनी। यह नाम-जपना ही मनुष्य-जन्म की कमाई है।1। रहाउ। जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥ जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥ जब लगु बिकल भई नही बानी ॥ भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥ पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। कालि = काल ने। ग्रसी = दबोच ली, पकड़ ली। काइआ = शरीर। बिकल = विकल।2। अर्थ: जब तक बुढ़ापा-रूपी रोग नहीं आ गया, जब तक तेरे शरीर को मौत ने नहीं जकड़ा, जब तक तेरी ज़बान थिरकने नहीं लग जाती, (उससे पहले पहले ही) हे मेरे मन! परमात्मा का भजन कर ले।2। अब न भजसि भजसि कब भाई ॥ आवै अंतु न भजिआ जाई ॥ जो किछु करहि सोई अब सारु ॥ फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥ पद्अर्थ: अब = अब। भाई = हे भाई! अंतु = आखिरी समय। सारु = संभाल कर।3। अर्थ: हे भाई! यदि तू इस वक्त भजन नहीं करता, तो फिर कब करेगा? जब मौत (सिर पर) आ पहुँची उस वक्त तो भजन हो नहीं सकेगा। जो कुछ (भजन-स्मरण) तू करना चाहता है, अभी ही कर ले, (यदि समय गुजर गया) तो फिर अफसोस ही करेगा, और इस पछतावे में से खलासी नहीं होगी।3। सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥ तिन ही पाए निरंजन देव ॥ गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥ बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥ पद्अर्थ: कपाट = किवाड़। बाट = रास्ता।4। अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश?) जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं बँदगी में जोड़ता है, वही उसका सेवक बनता है, उसी को प्रभु मिलता है, सतिगुरु को मिल के उसके मन के किवाड़ खुलते हैं, और वह दोबारा जनम (मरण) के चक्कर में नहीं आता।4। इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥ घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥ कहत कबीरु जीति कै हारि ॥ बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥ पद्अर्थ: अउसरु = अवसर, मौका। बार = बारी। कै = चाहे, अथवा।5। अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! मैं तुझे कई तरीकों से चिल्ला-चिल्ला के बता रहा हूँ, (तेरी मर्जी है इस मनुष्य जनम की बाज़ी) जीत के जा चाहे हार के जा। तू अपने हृदय में विचार करके देख ले (प्रभु को मिलने का) यह मानव-जनम ही मौका है, यही बारी है (यहाँ से टूट के समय नहीं मिलना)।5।1।9। सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥ तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥ ईत ऊत की सोझी परै ॥ कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥ पद्अर्थ: सिव की पुरी = कल्याण-स्वरूप प्रभु के शहर में। सारु बुधि = श्रेष्ठ मति। तह = उस शिव पुरी में। तुम्ह = (हे जोगी!) तुम भी। मिलि = मिल के, पहुँच के। ईत ऊत की सोझी = इस लोक और परलोक की समझ, ये समझ कि अब का जीवन कैसा बने और परलोक के जीवन पर इसका क्या असर पड़ेगा। करम मेरा = मेरा काम, ममता के काम, अपनत्व के काम। मरै = ख्वार होता है।1। अर्थ: (इस नाम की इनायत से) मेरी मति श्रेष्ठ (बन के) कल्याण-स्वरूप प्रभु के देश में बसने लग गई है। (हे जोगी!) तुम भी उस देश में पहुँच के प्रभु के नाम की ही विचार करो, (जो मनुष्य उस देश में पहुँचता है, भाव, जो मनुष्य प्रभु-चरणों में जुड़ा रहता है उसको) ये समझ आ जाती है कि अब वाला जीवन कैसा होना चाहिए, और इसका असर अगले जीवन पर क्या पड़ता है; उस देश में पहुँचा हुआ कोई भी मनुष्य ममता में फंसने वाले काम नहीं करता।1। निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥ राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निज पद ऊपरि = उस घर में जो केवल मेरा अपना है। मोरा ब्रहम गिआनु = मेरे लिए ब्रहम ज्ञान है।1। रहाउ। अर्थ: (हे जोगी!) मेरी तवज्जो उस (प्रभु के चरण-रूप) घर में जुड़ी हुई है जो मेरा अपना असली घर है, प्रकाश-रूप प्रभु का नाम (हृदय में बसना) ही मेरे लिए ब्रहम-ज्ञान है।1। रहाउ। मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥ रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥ पछम दुआरै सूरजु तपै ॥ मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥ पद्अर्थ: मूल = जगत का मूल प्रभु। मूल दुआरै = जगत के मूल प्रभु के दर पर (टिक के)। बंधिआ = मैंने बाँध लिया है। बंधु = बांध, (माया की बाढ़ को रोकने के लिए) बाँध। रवि = सूरज, सूर्य की तपश, तपश, तमो गुणी स्वभाव। गहि = पकड़ के, हासिल करके। चंदु = ठंड, शीतलता, शांति। राखिआ = मैंने रख दी है, मैंने कायम कर दी है। पछम दुआरै = पश्चिम की ओर के दरवाजे पर, उधर जिधर अंधेरा है। नोट: सूर्य उगने के वक्त उगने के कारण पश्चिम की ओर उस वक्त अंधेरा होता है। मेर = (संस्कृत: मेरु name of a fabulous mountain round which all the planets are said to revolve) एक पहाड़ जिसके चारों तरफ आकाश के सारे ग्रह चक्कर खाते माने गए हैं। डंड = (संस्कृत: दण्ड) The sceptre of a king, the rod as a symbol of authority and punishment, शाही आशा, शाही चोब। नोट: राज दरबारों के दरवाजे पर चौबदार (सरकारी नौकर) खड़ा होता है। मेर डंड = वह जिसका ‘डंड’ मेरु जैसा है, वह प्रभु जिसका शाही चोब ‘मेरु’ जैसा है (सं: मेरु इव दण्डो यस्य), वह प्रभु जिसकी शाही चोब के चारों तरफ सारा जगत चक्कर लगाता है जैसे सारे ग्रह मेरु के इर्द-गिर्द। सिर ऊपरि = दसवाँ द्वार में, दिमाग में, मन में।2। अर्थ: (हे जोगी! इस नाम की इनायत से) मैंने जगत के मूल प्रभु के दर पर टिक के (माया की बाढ़ के आगे) बाँध लगा लिया है। मैंने शांति-स्वभाव को ग्रहण करके इसको (अपने) तमो गुणी स्वभाव पर टिका दिया है। जहाँ (पहले अज्ञानता का) अंधेरा ही अंधेरा था, उसके दरवाजे पर अब ज्ञान का सूरज चमक रहा है। वह प्रभु, जिसके हुक्म में सारा जगत है, अब मेरे मन में बस रहा है।2। पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥ तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥ खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥ कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥ पद्अर्थ: पसचम दुआरे की = उस स्थान के दरवाजे की जहाँ अंधेरा है। सिल ओड़ = सिल का आखिरी सिरा। पसचम...ओड़ = उस सिल का आखिरी सिरा (मिल गया है) जो अंधेरे स्थान के दरवाजे के आगे (जड़ी हुई थी)। खिड़की = ताकी, रोशनी का प्रबंध।3। अर्थ: (नाम की इनायत से, हे जोगी!) मुझे उस शिला का आखिरी सिरा (मिल गया है) जो अज्ञानता की अंधेरी जगह के दरवाजे (के आगे जड़ा हुआ था), क्योंकि इस शिला पर मुझे (रोशनी देने वाली) एक और खिड़की मिल गई है, इस खिड़की के ऊपर ही है दसवाँ द्वार (जहाँ मेरा प्रभु बसता है)। कबीर कहता है: अब ऐसी दशा बनी हुई है जो खत्म नहीं हो सकती।3।2।10। नोट: घरों में हवा और रोशनी के लिए खिड़कियां रखी जाती हैं। नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में होता है, बाकी के ‘बंद’ रहाउ की तुक का विकास होते हैं। ‘रहाउ’ की पंक्ति में कबीर जी कहते हैं कि मेरी तवज्जो उस घर में जुड़ गई है जो घर पूरी तरह से मेरा अपना है। प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का नाम हृदय में बसाना ही मेरे लिए ‘ब्रहम-ज्ञान’ है। इस अवस्था का क्या स्वरूप है? इस अवस्था में पहुँच के व्यवहारिक जीवन कैसा बन जाता है? – इसकी व्याख्या शब्द के तीन ‘बंदों’ में है: 1. मति श्रेष्ठ हो के प्रभु में टिकती है और ‘मेर-तेर’ को मिटा देती है; 2. मन विकारों से रुक जाता है, अंदर ठंड पड़ जाती है, अज्ञानता दूर हो जाती है, प्रभु चरणों की ओर लगन बन जाती है; 3. अज्ञानता के अंधेरे में से निकल के रौशनी मिल जाती है, तवज्जो ऐसी ऊँची हो जाती है कि सदा एक-रस बनी रहती है। शब्द में सारे शब्द जोगियों वाली बोली वाले बरते हैं, क्योंकि किसी जोगी से बातचीत की गई है। जोगी को समझाते हैं कि प्रभु का नाम हृदय में बसना ही सबसे ऊँचा ज्ञान है, और यही नाम जीवन में सुंदर तब्दीली लाता है। सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥ गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥ काल पुरख का मरदै मानु ॥ तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥ पद्अर्थ: काल सिउ = मौत (के सहम) से। जुरै = जुट गए, लड़ै, मुकाबला करे। काल = मौत, जम। काल पुरख = जम राज। मानु = अहंकार। मरदै = मल दे।1। अर्थ: असल मुल्ला वह है जो अपने मन से मुकाबला करता है (भाव, मन को वश में करने का प्रयत्न करता है), गुरु के बताए हुए उपदेश पर चल के मौत (और सहम) का मुकाबला करता है, जो जम-राज का (यह) मान (कि सारा जगत उससे थर-थर काँपता है) नाश कर देता है। मैं ऐसे मुल्ला के आगे सदा सिर झुकाता हूँ।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |