श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दूरि = कहीं सातवें आसमान पर। दुंदर = शोर मचाने वाले कामादिक।1। रहाउ।

अर्थ: (हे मुल्ला!) रब हर जगह हाजर-नाज़र है, तुम उसको दूर (किसी सातवें आसमान पर) क्यों (बैठा) बताते हो? अगर उस सुंदर रब को मिलना है, तो कामादिक शोर डालने वाले विकारों को काबू में रखो।1। रहाउ।

काजी सो जु काइआ बीचारै ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥ सुपनै बिंदु न देई झरना ॥ तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥

पद्अर्थ: काइआ की अगनी ब्रहम = काया की ब्राहमाग्नि, काया में प्रभु की ज्योति। ब्रहम अगनि = प्रभु की ज्योति। परजारै = अच्छी तरह रौशन करे। बिंदु = वीर्य। जरा = बुढ़ापा।2।

अर्थ: असली काज़ी वह है जो अपने शरीर को खोजे, शरीर में प्रभु की ज्योति को रौशन करे, सपने में भी काम की वासना मन में ना आने दे। ऐसे काज़ी को बुढ़ापे और मौत का डर नहीं रह जाता।2।

सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥ बाहरि जाता भीतरि आनै ॥ गगन मंडल महि लसकरु करै ॥ सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥

पद्अर्थ: सुरतानु = सुल्तान। दुइ सर = दो तीर (ज्ञान और वैराग)। आनै = लाए। गगन मंडल = दसवाँ द्वार में, दिमाग़ में, मन में। लसकरु = शुभ गुणों की फौज।3।

अर्थ: असल सुल्तान (बादशाह) वह है जो (ज्ञान और वैराग के) दो तीर तानता है, बाहरी दुनियाँ के पदार्थों की ओर भटकते मन को अंदर की ओर मोड़ लेता है, प्रभु-चरणों में जुड़ के अपने अंदर भले गुण पैदा करता है। वह सुल्तान अपने सिर पर (असल) छत्र झुलवाता है।3।

जोगी गोरखु गोरखु करै ॥ हिंदू राम नामु उचरै ॥ मुसलमान का एकु खुदाइ ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥

नोट: शब्द ‘मुलां’ के दोनों अक्षर ‘म’ और ‘ल’ लेकर अर्थ किए गए हैं; ‘मन’ और ‘लरै’।

पद्अर्थ: राम नामु = मूर्ति में कल्पित श्री राम चंद्र जी का नाम। एकु = अपना।4।

अर्थ: जोगी (प्रभु को विसार के) गोरख-गोरख जपता है, हिन्दू (श्री रामचंद्र जी की मूर्ति में ही कल्पित) राम का नाम उचारता है, मुसलमान ने (सातवें आसमान में बैठा हुआ) निरा अपना (मुसलमानों का ही) रब मान रखा है। पर मेरा कबीर का प्रभु वह है, जो सबमें व्यापक है (और सबका सांझा है)।4।3।11।

नोट: इस शब्द के बंद नंबर 2 की तुकों को सामने रख के रामकली की वार महला ३ की पउड़ी नं: 12 के साथ दर्ज किया हुआ गुरु नानक देव जी का शलोक नंबर 5 पढ़ के देखो। एक तो तुकें ही सांझी हैं; दूसरे पखंडी आदि शब्दों का अर्थ करने में वही तरीका बरता है जो कबीर जी ने शब्द ‘मुलां’ आदि के लिए।

महला १॥ सो पाखंडी, जि काइआ पखाले॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले॥ सुपनै बिंदु न देई झरणा॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा॥४॥१२॥ (पन्ना ९५३)

महला ५ ॥ जो पाथर कउ कहते देव ॥ ता की बिरथा होवै सेव ॥ जो पाथर की पांई पाइ ॥ तिस की घाल अजांई जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: पांई = पैरों पर। घाल = मेहनत।1।

अर्थ: जो मनुष्य पत्थर (की मूर्ति) को ईश्वर कहते हैं, उनकी की हुई सेवा व्यर्थ जाती है। जो मनुष्य पत्थर (की मूर्ति) के पैरों में नत्मस्तक होते हैं, उनकी मेहनत बेकार चली जाती है।1।

ठाकुरु हमरा सद बोलंता ॥ सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सद = सदा।1। रहाउ।

अर्थ: हमारा ठाकुर सदा बोलता है, वह प्रभु सारे जीवों को दातें देने वाला है।1। रहाउ।

अंतरि देउ न जानै अंधु ॥ भ्रम का मोहिआ पावै फंधु ॥ न पाथरु बोलै ना किछु देइ ॥ फोकट करम निहफल है सेव ॥२॥

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर बसता। देउ = प्रभु। अंधु = अंधा मनुष्य। फंधु = फंदा, जाल। फोकट = फोके।2।

अर्थ: अंधा मूर्ख अपने अंदर बसते रब को नहीं पहचानता, भ्रम का मारा हुआ और-और जाल बिछाता है। यह पत्थर ना बोलता है, ना कुछ दे सकता है, (इसको स्नान करवाने और भोग आदि लगवाने के) सारे काम व्यर्थ हैं, (इसकी सेवा में से कोई फल नहीं मिलता)।2।

जे मिरतक कउ चंदनु चड़ावै ॥ उस ते कहहु कवन फल पावै ॥ जे मिरतक कउ बिसटा माहि रुलाई ॥ तां मिरतक का किआ घटि जाई ॥३॥

अर्थ: यदि कोई मनुष्य मुर्दे को चंदन (रगड़ के) लगा दे, उस मुर्दे को (इस सेवा का) कोई फल नहीं मिल सकता। और, यदि कोई मुर्दे को विष्टा में पलीत कर दे, तो भी उस मुर्दे का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।3।

कहत कबीर हउ कहउ पुकारि ॥ समझि देखु साकत गावार ॥ दूजै भाइ बहुतु घर गाले ॥ राम भगत है सदा सुखाले ॥४॥४॥१२॥

पद्अर्थ: पुकारि = पुकार के। साकत = हे साकत! दूजै भाइ = प्रभु को छोड़ के किसी और के प्यार में।4।

अर्थ: कबीर कहता है: मैं पुकार-पुकार के कहता हूँ ‘हे ईश्वर से टूटे हुए मूर्ख! समझ के देख, रब को छोड़ के औरों से प्यार डाल के बहुत सारे जीव तबाह हो गए। सदा सुखी जीवन वाले सिर्फ वही हैं जो प्रभु के भक्त हैं।4।4।12।

नोट: शीर्षक ‘महला ५’ बताता है कि यह शब्द गुरु अरजन देव जी का अपना उचारा हुआ है। ये अंदाजे लगाने के लिए हमारे पास गुरबाणी में से कोई ऐसा सबूत नहीं है कि सतिगुरु जी ने कबीर जी के किसी शब्द की अदला-बदली करके ये शब्द लिखा है। इतनी बड़ी गिनती में वाणी उचार सकने वाले सतिगुरु जी को कबीर जी के किसी एक शब्द का आसरा लेने के जरूरत नहीं हो सकती थी। ये शब्द पूरी तरह से सतिगुरु जी का अपना है, हमें इसके ऊपर लिखे ‘महला ५’ पर यकीन होना चाहिए। अगर ‘मिला-जुला’ शब्द होता, तो शीर्षक में ये बात लिखी हुई होती, जैसे गउड़ी राग में कबीर जी के 14वें शब्द का शीर्षक इस प्रकार है: ‘गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५’। वह शब्द मिला-जुला है, और उसकी आखिरी दो तुकें गुरु अरजन साहिब जी की हैं।

फिर, इस शब्द की यहाँ क्या आवश्यक्ता पड़ी?

कबीर जी का शब्द नंबर 11 ध्यान से पढ़ के देखें। सारे शब्द में मुलां काज़ी आदि का ही जिक्र है, और बड़ा ही स्पष्ट और खुला जिक्र है। आखिरी बंद में हिन्दू का इशारे मात्र के लिए जिकर है। लिखा है ‘हिंदू राम नामु उचरै’। विचार को अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं किया गया है। चाहे कबीर जी ने आखिरी तुक में अपना आशय प्रकट कर दिया है ‘कबीर का सुआमी रहिआ समाइ’। फिर भी अंजान पाठक को भुलेखा पड़ सकता है।

इसी भुलेखे की गुंजायश को दूर करने के लिए सतिगुरु अरजन देव जी ने स्पष्ट लिख दिया है कि उस तुक (‘हिंदू राम नामु उचरै’) से कबीर जी का भाव ‘रामचंद्र जी की मूर्ति’ से है। किसी एक मूर्ति में ईश्वर को बैठा मिथ लेना भूल है।

नोट: गुरु अरजन देव जी ने भी शब्द ‘राम’ ही बरता है ‘राम भक्त है सदा सुखाले’; कबीर जी ने भी ‘हिंदू राम नामु उचरै’ में शब्द ‘राम’ ही बरता है। पर सतिगुरु जी ने ‘कबीर का सुआमी रहिआ समाइ’ में इशारे मात्र बताई बात को अपने इस शब्द में विस्तार से समझा दिया है कि हिन्दू तो श्री राम चंद्र जी की मूर्ति की पूजा करते हुए ‘राम-राम’ कहते हैं, पर कबीर जी उस ‘राम’ को स्मरण करते हैं जो ‘रहिआ समाइ’ और जो ‘सरब जीआ कउ दानु देता’।

यह शब्द तो सतिगुरु जी का अपना उचारा हुआ है। पर इसके आखिर में ‘नानक’ की जगह शब्द ‘कबीर’ बरता गया है, क्योंकि ये शब्द कबीर जी के शब्द नं: 11 के प्रथाय ही उचारने की आवश्यक्ता पड़ी थी। इस बात को और गहराई से समझने के लिए मेरी पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ में पढ़ें ‘धंने भक्त दी ठाकुर पूजा’ और ‘सूरदास’। (सिंघ ब्रदर्ज, अमृतसर से मिलेगी)।

जल महि मीन माइआ के बेधे ॥ दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥ काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥ भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥

पद्अर्थ: मीन = मछलियां। बेधे = भेदे हुए। दीपक = दीए। पतंग = पतंगे। कुंचर = हाथी। बिआपै = दबाव डाल लेती है। भुइअंगम = साँप। भ्रिंग = भौरे। खापे = खपे हुए।1।

अर्थ: पानी में रहने वाली मछलियाँ माया में भेदी हुई हैं, दीयों पर (जलने वाले) पतंगे माया में परोए हुए हैं। काम-वासना रूपी माया हाथी को अपने वश में किए रखती है; साँप और भौरे भी माया में दुखी हो रहे हैं।1।

माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥ जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: डहकाई = भरमाती है, भटकना में डालती है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! माया इतनी बलवान, मोहने वाली है कि जितने भी जीव (जगत में) हैं,? सब को डोला देती है।1। रहाउ।

पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥ साकर माखी अधिक संतापे ॥ तुरे उसट माइआ महि भेला ॥ सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥

पद्अर्थ: म्रिग = जंगल के पशू। साकर = शक्कर, मीठा। संतापे = दुख देती है। तुरे = घोड़े। उसट = ऊँठ। भेला = घिरे हुए, ग्रसे हुए।2।

अर्थ: पंछी, जंगल के पशू सब माया में रंगे पड़े हैं। शक्कर-रूपी माया मक्खी को बड़ा दुखी कर रही है। घोड़े-ऊँठ सब माया में फसे हुए हैं। चौरासी सिध भी माया में खेल रहे हैं।2।

छिअ जती माइआ के बंदा ॥ नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥ तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥ माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥

पद्अर्थ: छिअ जती = छह जती (हनूमान, भीष्म पितामह, लक्ष्मण, भैरव, गोरख, दक्तात्रैय)। बंदा = गुलाम। रखीसर = बड़े बड़े ऋषि।3।

अर्थ: जती भी माया के ही गुलाम हैं। नौ नाथ सूरज (देवता) और चंद्रमा (देवता) बड़े-बड़े तपी और ऋषि सब माया में सोए पड़े हैं। मौत (का सहम) और पाँचों विकार भी माया में ही (जीवों को व्यापते हैं)।3।

सुआन सिआल माइआ महि राता ॥ बंतर चीते अरु सिंघाता ॥ मांजार गाडर अरु लूबरा ॥ बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥

पद्अर्थ: सिआल = सिआर, गीदड़। बंतर = बंदर। माजार = बिल्ले। गाडर = भेड़ें।4।

अर्थ: कुत्ते, गीदड़, बंदर, चीते, शेर सब माया में रंगे हुए हैं। बिल्ले, भेड़ें, लोमड़ी, वृक्ष, कंद-मूल सब माया के अधीन हैं।4।

माइआ अंतरि भीने देव ॥ सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥ कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥ तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥

पद्अर्थ: सागर = समुंदर (में बसते जीव)। इंद्रा = इन्द्र (-पुरी, भाव, स्वर्ग में रहने वाले देवते आदि)। धरतेव = धरती (के जीव)। उदरु = पेट।5।

अर्थ: देवतागण भी माया (के मोह) में भीगे हुए हैं। समुंदर, स्वर्ग, धरती इन सबके जीव भी माया में ही हैं। कबीर कहता है: (सिरे की बात यह है कि) जिसके भी पेट लगा हुआ है उसको (भाव, हरेक जीव को) माया व्याप रही है। जब गुरु मिले तब ही जीव माया के प्रभाव से बचता है।5।5।13।

जब लगु मेरी मेरी करै ॥ तब लगु काजु एकु नही सरै ॥ जब मेरी मेरी मिटि जाइ ॥ तब प्रभ काजु सवारहि आइ ॥१॥

पद्अर्थ: नही सरै = सिरे नहीं चढ़ता, सफल नहीं होता।1।

अर्थ: जब तक मनुष्य ममता के चक्कर में रहता है, तब तक इसके (आत्मिक जीवन का) एक भी काम नहीं सँवरता। जब इसकी ममता मिट जाती है तब प्रभु जी (इसके हृदय में) बस के जीवन का लक्ष्य पूरा कर देते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh