श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1161 ऐसा गिआनु बिचारु मना ॥ हरि की न सिमरहु दुख भंजना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: की न = क्यों नहीं? दुख भंजना हरि = दुखों का नाश करने वाला प्रभु।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सब दुखों का नाश करने वाले प्रभु को क्यों नहीं स्मरण करता? हे मन! कोई ऐसी ऊँची समझ की बात सोच (जिससे तू नाम-जपने की ओर पलट सके)।1। रहाउ। जब लगु सिंघु रहै बन माहि ॥ तब लगु बनु फूलै ही नाहि ॥ जब ही सिआरु सिंघ कउ खाइ ॥ फूलि रही सगली बनराइ ॥२॥ पद्अर्थ: सिंघु = (अहंकार) शेर। बन = हृदय रूप जंगल। सिआरु = निम्रता रूप गीदड़।2। अर्थ: जब तक हृदय-रूपी जंगल में अहंकार-शेर रहता है तब तक ये हृदय-फुलवाड़ी खिलती नहीं (हृदय में कोमल गुण उघड़ते नहीं)। पर, जब (नम्रता रूप) गीदड़ (अहंकार-) शेर को खा जाता है, तब (हृदय की सारी) बनस्पति को बहार आ जाती है।2। जीतो बूडै हारो तिरै ॥ गुर परसादी पारि उतरै ॥ दासु कबीरु कहै समझाइ ॥ केवल राम रहहु लिव लाइ ॥३॥६॥१४॥ पद्अर्थ: बूडै = डूब जाता है। तिरै = तैरता है।3। नोट: ‘दासु कबीरु’’ ‘दास’ हिन्दू बोली का शब्द है, मुसलमान ये शब्द नहीं प्रयोग करते। कबीर जी हिन्दू घर में जन्मे-पले थे, मुसलमान नहीं थे। अर्थ: जो मनुष्य (किसी अहंकार में आ के) यह समझता है कि मैंने बाज़ी जीत ली है, वह संसार समुंदर में डूब जाता है। पर जो मनुष्य गरीबी स्वभाव में चलता है, वह तैर जाता है वह अपने गुरु की मेहर से पार लांघ जाता है। सेवक कबीर समझा के कहता है: हे भाई! सिर्फ परमात्मा के चरणों में मन जोड़े रखो।3।6।14। सतरि सैइ सलार है जा के ॥ सवा लाखु पैकाबर ता के ॥ सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥ छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥ पद्अर्थ: सतरि सैइ सलार = सात हजार फरिश्ते जिनको खुदा ने ज़बराईल फरिश्ते के साथ हज़रत मुहम्मद साहिब के पास बड़ी आयत पहुँचाने के लिए भेजा था। खेल खासी = खास खेल, हाज़र वाश, मुसाहिब। सेख = शेख, बुजुर्ग, विद्वान।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस खुदा के सात हजार फरिश्ते (जैसा कि तू बताता है), उसके सवा लाख पैग़ंबर (तू कहता है), अठासी करोड़ उसके (दर पर रहने वाले) बुजुर्ग आलिम शेख कहे जा रहे हैं, और छप्पन करोड़ जिसके मुसाहिब (तू बताता है, उसके दरबार तक)।1।; मो गरीब की को गुजरावै ॥ मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मजलसि = दरबार। दूरि = (भाव,) सातवें आसमान पर। को = कौन?।1। रहाउ। अर्थ: मेरी ग़रीब की अर्ज कौन पहुँचाएगा? (फिर तू कहता है कि उसका) दरबार दूर (सातवें आसमान पर) है। (मैं तो गरीब जुलाहा हूँ, उसका) घर (मेरा) कौन ढूँढेगा?।1। रहाउ। तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥ चउरासी लख फिरै दिवानां ॥ बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥ उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥ पद्अर्थ: खेल = ख़ौल, आदमियों का गिरोह। दिवाना = खाना बदोश। खेल खाना = (ख़ैल ख़ानह) घर में रहने वाले सेवक। किछु नदरि दिखाई = थोड़ी सी आँखें दिखाई। उनि = उस आदम ने। घनेरी = थोड़े ही समय के लिए। भिसति घनेरी पाई = बहिश्त में से जल्दी ही निकाला गया।2। अर्थ: (बैकुंठ की बाते बताने वाले भी कहते हैं कि) तैतीस करोड़ देवते उसके सेवक हैं (उन्होंने ने भी मेरी कहाँ सुननी है?) चौरासी लाख जूनियों के जीव (उससे टूट के) झल्ले हुए फिरते हैं। (हे भाई! तुम बताते हो कि खुदा ने बाबा आदम को बहिश्त में रखा था, पर, तुम्हारे ही कहने के मुताबिक) जब बाबा आदम को रब ने (उसकी हुक्म-अदूली पर, आज्ञा ना मानने पर) थोड़ी सी आँख दिखाई, तो वह आदम भी बहिश्त में थोड़ा समय ही रह पाया (वहाँ से जल्दी ही निकाल दिया गया, और जो बाबा आदम जैसे निकाल दिए गए, तो बताओ, मुझ गरीब को वहाँ कोई कितना वक्त रहने देगा?)।2। दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥ छोडि कतेब करै सैतानी ॥ दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥ अपना कीआ पावै सोई ॥३॥ पद्अर्थ: खलहलु = खलबली, घबराहट, गड़बड़। जा कै दिल = जिस मनुष्य के दिल में। जरद = ज़र्द, पीला। रू = मुँह। बानी = वंन, रंगत। लोई = जगत। रोसु = गुस्सा।3। अर्थ: (हे भाई!) जो भी मनुष्य अपनी धर्म-पुस्तकों (के बताए हुए राह) को छोड़ के गलत रास्ते पर चलता है, जिसके भी दिल में (विकारों की) गडबड़ है, उसके मुँह की रंगत पीली पड़ जाती है (भाव, वह ही प्रभु-दर से धकेला जाता है); मनुष्य अपना किया आप ही पाता है, पर (अंजान-पने में) दुनिया को दोष देता है, जगत पर गुस्सा करता है।3। नोट: चुँकि किसी मुसलमान के साथ चर्चा हो रही है, इस वास्ते धर्म-पुस्तकों के लिए शब्द ‘कतेब’ बरता है। तुम दाते हम सदा भिखारी ॥ देउ जबाबु होइ बजगारी ॥ दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥ भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥ पद्अर्थ: भिखारी = भिखारी। देउ = देऊँ, (यदि) मैं दूं। जबाबु = उक्तर, ना नुकर। देउ जबाबु = (जो कुछ, हे प्रभु! तू देता है, उसके आगे) यदि मैं ना नुकर करूँ। बजगारी = गुनाहगारी। पनह = पनाह, ओट, आसरा। नजीकि = (अपने) नजदीक। भिसतु = (यही है मेरा) बहिश्त। (नोट: संबंधक ‘नजीकि’ का शब्द ‘भिसतु’ के साथ कोई संबंध नहीं है। अगर होता, तो उसके आखिर में ‘ु’ मात्रा ना रह जाती। फिर उसका रूप यूँ होना था– ‘भिसत नजीकि’)। रहमाना = हे रहम करने वाले!।4। अर्थ: (हे मेरे प्रभु! मुझे किसी बहिश्त व बैकुंठ की आवश्यक्ता नहीं है) तू मेरा दाता है, मैं सदा (तेरे दर का) भिखारी हूँ (जो कुछ तू मुझे दे रहा है वही ठीक है, तेरी किसी भी दाति के आगे) अगर मैं ना-नुकर करूँ तो यह मेरी गुनहगारी होगी। मैं तेरा दास कबीर तेरी शरण में आया हूँ। हे रहम करने वाले! मुझे अपने चरणों के नजदीक रख, (यही मेरे लिए) बहिश्त है।4।7।15। नोट: शब्द को ध्यान से पढ़ने से ऐसा लगता है जैसे कोई मुसलमान मनुष्य कबीर जी को मुसलमान बनने के लिए प्रेरित कर रहा है, और कहता है कि मुसलमान बनने से बहिश्त मिलेगा। अपने खुदा की प्रतिभा भी वह बताता है कि उसके सात हजार फरिश्ते हैं, सवा लाख पैग़ंबर हैं, इत्यादिक; वह ख़ुदा सातवें आसमान पर रहता है। कबीर जी इस शब्द में उक्तर देते हैं कि मैं एक गरीब जुलाहा हूँ, मुसलमान बन के भी मैंने गरीब ही रहना है। तुम अपने खुदा का दरबार सातवें आसमान पर बता रहे हो; मुझ गरीब की वहाँ किसी ने भी सिफारिश नहीं पहुँचानी और ना ही मैं इतनी दूर तक पहुँच सकूँगा। प्रभु-चरणों में जुड़े रहना ही मेरे लिए बहिश्त है। नोट: शब्द ‘दास’ का प्रयोग बताता है कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्मे-पले थे, मुसलमान नहीं थे। नोट: इस शब्द में मुसलमानों के निहित हुए बहिश्त को रद्द कर के अगले शब्द में हिन्दुओं के कल्पित बैकुंठ का वर्णन करते हैं। सभु कोई चलन कहत है ऊहां ॥ ना जानउ बैकुंठु है कहां ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभु कोई = हर कोई, हरेक बंदा। ऊहां = उस बैकुंठ में। ना जानउ = मैं नहीं जानता, मुझे तो पता नहीं। कहा = कहाँ?।1। रहाउ। अर्थ: हर कोई कह रहा है कि मैंने उस बैकुंठ में पहुँचना है। पर मुझे समझ नहीं आई, (इनका वह) बैकुंठ कहाँ है।1। रहाउ। आप आप का मरमु न जानां ॥ बातन ही बैकुंठु बखानां ॥१॥ पद्अर्थ: मरमु = भेद। बातन ही = निरी बातों से। बखानां = बयान कर रहे हैं।1। अर्थ: (इन लोगों ने) अपने आप का तो भेद नहीं पाया, निरी बातों से ही ‘बैकुंठ’ कह रहे हैं।1। जब लगु मन बैकुंठ की आस ॥ तब लगु नाही चरन निवास ॥२॥ पद्अर्थ: मन = हे मन!।2। अर्थ: हे मन! जब तक तेरी बैकुंठ पहुँचने की उम्मीदें हैं, तब तक प्रभु के चरणों में निवास नहीं हो सकता।2। खाई कोटु न परल पगारा ॥ ना जानउ बैकुंठ दुआरा ॥३॥ पद्अर्थ: खाई = किले के चारों तरफ चौड़ी गहरी खाई जो किले की रक्षा के लिए पानी से भरी रखी जाती है। कोटु = किला। परल = (सं: पल्ल। a large granary. पल्लि = a town a city) शहर। पगारा = (सं: प्राकार = a rampart) फसील, शहर की बड़ी चार दीवारी।3। अर्थ: मुझे तो पता नहीं (इन लोगों के) बैकुंठ का दरवाजा कैसा है, किस तरह का शहर है, कैसी उसकी फसील है, और किस तरह की उसके चारों तरफ की खाई है।3। कहि कमीर अब कहीऐ काहि ॥ साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥८॥१६॥ पद्अर्थ: कमीर = कबीर। काहि = किस को? आहि = है।4। अर्थ: कबीर कहता है: (ये लोग समझते नहीं कि आगे कहीं बैकुंठ नहीं है) अब किसे कहें कि साधु-संगत ही बैकुंठ है? (और वह बैकुंठ यहीं है)।4।8।16। नोट: कई सज्जन ‘परलप गारा’ पाठ करके अर्थ करते हैं ‘गारे से अच्छी तरह से लीपा हुआ’। पर यह जचता नहीं है। किले को गारे से लीपने में कोई खूबसूरती नहीं लगती। लोगों का मिथा हुआ बैकुंठ एक सुंदर सोहाना शहर होना चाहिए, गारे से लिपे हुए कच्चे कोठे तो धरती पर भी कंगाल लोगों के ही हैं। वह बैकुंठ भी कैसा जहाँ कच्चे कोठे होंगे? किउ लीजै गढु बंका भाई ॥ दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किउ लीजै = कैसे जीता जाए? काबू करना बड़ा मुश्किल है। गढु = गढ़, किला। बंका = पक्का। भाई = हे भाई! दोवर कोट = द्वैत की दोहरी दीवार (फसील)। तेवर खाई = तीन गुणों की तेवर खाई। खाई = गहरी और चौड़ी खाली जगह जो किले की हिफाजत के लिए होती है, और पानी के साथ भरी रहती है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! यह (शरीर-रूप) पक्का किला काबू करना बहुत मुश्किल है। इसे चारों तरफ द्वैत की दोहरी दीवार और तीन गुणों की तिहरी खाई है।1। रहाउ। पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥ जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥ पद्अर्थ: पांच = पाँच (कामादिक)। पचीस = सांख मत के माने हुए 25 तत्व। मद = अहंकार का नशा। मतसर = ईष्या। आडी = आड़, छही, जिसका आसरा ले के फौजें लड़ती हैं।1। अर्थ: बलशाली माया का आसरा ले के पाँच कामादिक, पचीस तत्व, मोह, अहंकार, ईष्या (की फौज लड़ने को तैयार है)। हे प्रभु! मेरी गरीब की कोई पेश नहीं चलती, (बताओ,) मैं क्या करूँ?।1। कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥ क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥ पद्अर्थ: किवारी = किवाड़ का रखवाला, किवाड़ खोलने वाला। दरवानी = पहरेदार। दुंदर = धुरंधर, लड़ाका, झगड़ालू। तह = उस किले में। मावासी = आकी।2। अर्थ: काम (इस किले के) दरवाजे का मालिक है, दुख और सुख पहरेदार हैं, पाप और पुण्य (किले के) दरवाजे हैं, बड़ा ही झगड़ालू क्रोध (किले का) चौधरी है। ऐसे किले में मन राजा आकी हो के बैठा है।2। स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥ तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥ पद्अर्थ: सनाह = ज़िरह बकतर, संजोअ, लोहे की जाली की पोशाक जो जंग के समय पहनी जाती है। ममता = अपनत्व। कुबुधि = खोटी मति। चढाई = तानी हुई है। तिसना = तृष्णा, लालच। घट भीतरि = हृदय में।3। अर्थ: (जीभ के) चस्के (मन राजे ने) संजोअ (पहनी हुई है), ममता का टोप (पहना हुआ है), दुर्मति की कमान कसी हुई है, तृष्णा के तीर अंदर ही अंदर कसे हुए हैं। ऐसा किला (मुझसे) जीता नहीं जा सकता।3। प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥ ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: ब्रहम अगनि = रूहानी ज्योति। सहजे = सहज अवस्था में (पहुँच के)। परजाली = अच्छी तरह जलाई।4। अर्थ: (पर जब मैंने प्रभु-चरणों के) प्रेम का पलीता लगाया, (प्रभु-चरणों में जुड़ी) तवज्जो को हवाई बनाया, (गुरु के बख्शे) ज्ञान का गोला चलाया, सहज अवस्था में पहुँच के अंदर ईश्वरीय-ज्योति जलाई, तो एक ही चोट से कामयाबी हो गई।4। सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥ साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥ पद्अर्थ: दुइ = दोनों।5। अर्थ: सत और संतोष को ले के मैंने काल के फंदे, दुनियां के डरों के फंदे, काट डाले हैं। सतगुरु व सत्संग की मेहर से मैंने क़िले का बाग़ी राजा पकड़ लिया है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |