श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1162 भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥ दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥ पद्अर्थ: भगवत भीरि = भगवान का स्मरण करने वालों की भीड़, साधु-संगत। सकति = ताकत। अबनासी = नाश ना होने वाला।6। अर्थ: प्रभु का दास कबीर अब किले के ऊपर चढ़ बैठा है (शरीर को वश में कर चुका है), और कभी ना नाश होने वाली आत्मिक बादशाहियत हासिल कर चुका है।6।9।17। नोट: पचीस = साँख मत के माने हुए 25 तत्व: ♦ प्रक्रिति (प्रकृति, कुदरत जिससे सब वस्तुएं बनी हैं और जो खुद किसी से नहीं बनी और जो सत-रज-तम तीन गुणों की सम अवस्था रूप है)। ♦ महतत्व (यह तत्व शरीर में बुद्धि के रूप में टिका हुआ है; प्रकृति में हिलजुल के कारण यह तत्व पैदा हुआ)। ♦ अहंकार (जिसका रूप ‘अहम्’ है)। ♦ से 8. पाँच तनमात्र (रूप, रस, गंध, स्पर्ष, शब्द)। (तनमात्र = साँख मत के अनुसार पाँच तत्वों का आदि रूप जिनमें कोई मिलावट ना हुई हो– रूप, रस, गंध, स्पर्ष, शब्द। साँख अनुसार प्रकृति से महतत्व पैदा हुआ, महतत्व से अहंकार और अहंकार से 16 पदार्थ– पाँच ज्ञान-इंद्रिय, कर्म इन्द्रियाँ, पाँच तनमात्र और एक मन।) ♦ से 19. ज्ञान-इंद्रिय– पाँच ज्ञान-इंद्रिय, पाँच कर्म इंद्रिय, एक मन। ♦ से 24. पंच महा भूत– पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश। ♦ पुरुष (चेतन शक्ति) साँख अनुसार जगत नित्य है, परिणाम-रूप प्रवाह के साथ सदा बदलता रहता है। प्रकृति को पुरुष की, पुरुष को प्रकृति की सहायता की आवश्यक्ता रहती है। एकेले दोनों ही निष्फल हैं। जीवात्मा हरेक शरीर में अलग-अलग हैं। बुद्धि, अहंकार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पाँच तनमात्र– इन अठारहों का समुदाय सूक्ष्म शरीर है। यही सूक्ष्म शरीर कर्म और ज्ञान का आसरा है। स्थूल शरीर के नाश होने से इसका नाश नहीं होता। कर्म और ज्ञान वासना का प्रेरित हुआ सूक्ष्म शरीर एक स्थूल शरीर में से निकल के दूसरे में जा के प्रवेश करता है। प्रलय तक इसका नाश नहीं होता। प्रलय के समय यह प्रकृति में लीन हो जाता है। सृष्टि की उत्पक्ति के समय फिर नए सिरे से पैदा हो जाता है। जब पुरुष विवेक से अपने आप को प्रकृति और उसके कामों से अलग देखता है, तब बुद्धि के कारण प्राप्त हुए संतापों से दुखी नहीं होता इस भिन्नता का नाम मुक्ति है। गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥ जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥ पद्अर्थ: गुसाइनि = जगत की माता। गोसाई = जगत का मालिक।1। (नोट: शब्द ‘गोसाई’ से ‘गुसाइन’ स्त्रीलिंग है)। अर्थ: (ये विरोधी लोग) मुझे कबीर को जंजीरों से बाँध के गहरी गंभीर गंगा माता में (डुबोने के लिए) ले गए (भाव, उस गंगा में ले गए जिसको ये ‘माता’ कहते हैं और उस माता से जान से मरवाने का अपराध करवाने लगे)।1। मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥ चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गहिर = गहरी। खरे = ले गए। डिगै = डोलता। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य का मन प्रभु के सुंदर चरणों में लीन रहे, उसका मन (किसी कष्ट के समय) डोलता नहीं, उसके शरीर को (कष्ट दे दे के) डराने का कोई लाभ नहीं हो सकता। रहाउ। गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥ म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥ पद्अर्थ: म्रिगछाला = मृग छाला, हिरन की खाल।2। अर्थ: (पर डूबने की बजाए) गंगा की लहरों से मेरी जंजीर टूट गई, मैं कबीर (उस जल पर इस प्रकार तैरने लग पड़ा जैसे) मृगछाला पर बैठा हुआ हूँ।2। कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥ जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥ पद्अर्थ: रघुनाथ = परमात्मा।3। अर्थ: कबीर कहता है: (हे भाई! तुम्हारे निहित हुए कर्मकांड व तीर्थ स्नान) कोई भी संगी नहीं बन सकते, कोई भी साथी नहीं हो सकते। पानी और धरती हर जगह एक परमात्मा ही रखने-योग्य है।3।10।18। नोट: कबीर जी सारी उम्र धार्मिक ज़ाहरदारी, भेख, कर्मकांड आदि को व्यर्थ कहते रहे। हिन्दूऔं के गढ़ बानारस में रहते हुए भी ये लोगों से नहीं डरे। यह कुदरती बात थी कि ऊँची जाति के लोग इनके विरोध बन जाते। उनकी तरफ से आए किसी कष्ट का इस शब्द में वर्णन है, और फरमाते हैं कि जो मनुष्य प्रभु चरणों में जुड़ा रहे वह किसी मुसीबत में डोलता नहीं। भैरउ कबीर जीउ असटपदी घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥ जा महि जोति करे परगास ॥ बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥ जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥ पद्अर्थ: अगम = अ+गम, जिस तक पहुँच ना हो सके। द्रुगम = दुर+गम, जिस तक पहुँचना मुश्किल हो। गढ़ि = किले में। बास = बसेरा। जा महि = जिस (मनुष्य के हृदय) में। जिह पउढ़े = जिस ठिकाने में, जिस हृदय में।1। अर्थ: (नाम जपने की इनायत से) जिस हृदय में बाल-स्वभाव प्रभु गोबिंद आ बसता है, जिस मनुष्य के अंदर प्रभु अपनी ज्योति की रौशनी करता है उसके अंदर, मानो, बिजली चमक उठती है, वहाँ सदा खिड़ाव ही खिड़ाव हो जाता है, वह मनुष्य एक ऐसे किले में बसेरा बना लेता है जहाँ (विकार आदि की) पहुँच नहीं हो सकती, जहाँ (विकारों का) पहुँचना बहुत मुश्किल होता है।1। इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥ जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीउ = जीव। जरा = बुढ़ापा। मरनु = मौत। भ्रमु = भटकना।1। रहाउ। अर्थ: (जब) यह जीव परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ता है, तो इसका बुढ़ापा (बुढ़ापे का डर) समाप्त हो जाता है, मौत (का सहम) समाप्त हो जाता है और भटकना दूर हो जाती है।1। रहाउ। अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥ हउमै गावनि गावहि गीत ॥ अनहद सबद होत झुनकार ॥ जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥ पद्अर्थ: अबरन बरन सिउ = नीच और ऊँची जाति से। अबरन = नीच जाति। सिउ = साथ। हउमै गीत गावनि = सदा अहंकार की बातें करते रहते हैं। अनहद = एक रस। झुनकार = सुंदर राग।2। अर्थ: पर, जिस मनुष्यों के मन में इसी ख्याल की लगन है कि फलाना नीच जाति का फलाना उच्च जाति का है, वे सदा अहंकार भरी बातें करते रहते हैं। जिस हृदय में श्री गोपाल प्रभु जी बसते हैं, वहाँ प्रभु की महिमा का एक रस, मानो, राग होता रहता है।2। खंडल मंडल मंडल मंडा ॥ त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥ अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥ पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥ पद्अर्थ: मंडा = बनाए हैं। त्रिअ असथान = तीनों भवन। अभ अंत = (‘राम राम’ के साथ ‘लिव’ लगाने वाले) हृदय में। अभ = हृदय। अंत = अंतरि। धरनीधर मंत = धरती के आसरे प्रभु के भेद का।3। अर्थ: जो प्रभु सारे खंडों का, मंडलों का सृजन करने वाला है, जो (फिर) तीनों भवनों का, तीन गुणों का नाश करने वाला भी है, जिस तक मनुष्य की इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, वह प्रभु उस मनुष्य के हृदय में बसता है (जिसने परमात्मा के नाम के साथ लगन लगाई हुई है)। पर, कोई जीव धरती-के-आसरे उस प्रभु के भेद का अंत नहीं पा सकता।3। कदली पुहप धूप परगास ॥ रज पंकज महि लीओ निवास ॥ दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥ जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥ पद्अर्थ: कदली = केला। पुहप = फूल। धूप = सुगंधि। रज = मकरंद, फूल के अंदर की धूल। पंकज = कमल फूल। (पंक = कीचड़। ज = पैदा हुआ। कीचड़ में उगा हुआ)। दुआदस दल अभ = बारह पक्तियों वाला (कमल फूल रूपी) हृदय, पूरी तौर पर खिला हृदय। दुआदस = बारह। दल = पक्तियां। कमला कंत = लक्ष्मी का पति, परमात्मा।4। अर्थ: (नाम-जपने की इनायत से) जिस हृदय में माया-का-पति प्रभु आ बसता है उस मनुष्य के पूरी तौर पर खिले हुए हृदय में प्रभु का मंत्र इस प्रकार बस जाता है जैसे केले के फूलों में सुगंधि का वास होता है, जैसे कमल-फूल में मकरंद आ निवास करता है।4। अरध उरध मुखि लागो कासु ॥ सुंन मंडल महि करि परगासु ॥ ऊहां सूरज नाही चंद ॥ आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥ पद्अर्थ: अरध = नीचे। उरध = ऊपर। मुखि लागो = दिखता है। कास = प्रकाश, रोशनी।5। अर्थ: (जो मनुष्य प्रभु के नाम में लगन लगाता है) उसको आकाश-पाताल हर जगह प्रभु का ही प्रकाश दिखाई देता है, उसकी अफुर समाधि में (भाव, उसके टिके हुए मन में) परमात्मा अपनी रौशनी करता है (इतनी रौशनी कि) सूरज और चँद्रमा का प्रकाश उसकी बराबरी नहीं कर सकता (वह रोशनी सूरज और चाँद जैसी नहीं है)। सारे जगत का मूल माया-रहित प्रभु उसके हृदय में उमाह पैदा करता है।5। सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥ मान सरोवरि करि इसनानु ॥ सोहं सो जा कउ है जाप ॥ जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥ पद्अर्थ: ब्रहमंडि = सारे जगत में। पिंडि = शरीर में। जानु = जानता है। मानसरोवरि = मानसरोवर में। करि = करे, करता है। जा कउ = जिस मनुष्य का। सो हं सो = वह मैं वह।6। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में सदा ये लगन है कि वह प्रभु और मैं एक हूँ (भाव, मेरे अंदर प्रभु की ज्योति बस रही है), (इस लगन की इनायत से) जिस पर ना पुण्य ना पाप कोई भी प्रभाव नहीं पड़ सकता (भाव, जिसको ना कोई पाप-विकार आकर्षित कर सकते हैं, और ना ही पुण्य कर्मों के फल की लालसा है) वह मनुष्य (लगन की इनायत से) सारे जगत में उसी प्रभु को पहचानता है जिसको अपने शरीर में (बसता देखता है), वह (प्रभु नाम-रूप) मान-सरोवर में स्नान करता है।6। अबरन बरन घाम नही छाम ॥ अवर न पाईऐ गुर की साम ॥ टारी न टरै आवै न जाइ ॥ सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥ पद्अर्थ: घाम = गरमी, धूप। छाम = छाया। घाम छाम = दुख सुख। साम = शरण। टारी = टाली हुई। न टरै = हटती नहीं।7। अर्थ: (लगन के सदका) वह मनुष्य सदा अफुर अवस्था में टिका रहता है, सहज अवस्था में जुड़ा रहता है। यह अवस्था किसी के हटाए नहीं हट सकती, सदा कायम रहती है। उस मनुष्य के अंदर किसी ऊँची-नीच जाति का भेदभाव नहीं रहता, कोई दुख-सुख उसको नहीं व्यापते। पर यह आत्मिक हालत गुरु की शरण पड़ने से मिलती है।7। मन मधे जानै जे कोइ ॥ जो बोलै सो आपै होइ ॥ जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥ कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥ पद्अर्थ: मंत्रि = (गुरु के) मंत्र द्वारा। मनि = मन में।8। नोट: शब्द का केन्द्रिय विचार ‘रहाउ’ की तुक में है। अर्थ: कबीर कहता है: जो मनुष्य प्रभु को अपने मन में बसता पहचान लेता है, जो मनुष्य प्रभु की महिमा करता है, वह प्रभु का ही रूप हो जाता है; जो मनुष्य गुरु के शब्द से प्रभु की ज्योति को अपने मन में पक्का करके टिका लेता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।8।1। भक्त-वाणी विरोधी सज्जन जी इस शब्द के बारे में लिखते हैं: “इस शब्द के अंदर जोग-अभ्यास का पूर्ण मंडन है, पर गुरमति इसका जोरदार खंडन करती है। सिख धर्म में उक्त हठ योग कर्म को निंदा गया है, पर भक्त जी प्रचार करते हैं।” शब्द के अर्थ पाठकों के सामने है। बड़ा कठिन शब्द है। ठीक अर्थ समझने का प्रयत्न ना करने के कारण ही शायद विरोधी सज्जन भुलेखा खा गए हैं। जब पाठक सज्जन इस असूल को याद रखेंगे कि ‘रहाउ’ की तुक वाले केन्द्रिय-विचार की सारे शब्द में व्याख्या की गई है, तो यहाँ किसी जोग-अभ्यास के प्रचार का भुलेखा नहीं रह जाएगा। कोटि सूर जा कै परगास ॥ कोटि महादेव अरु कबिलास ॥ दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥ ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज। जा कै = जिस के दर पर। महादेव = शिव। कबिलास = कैलाश। मरदनु = मालिश, चरण मलना।1। अर्थ: (मैं उस प्रभु के दर से माँगता हूँ) जिस के दर पे करोड़ों सूरज रौशनी कर रहे हैं, जिसके दर पर करोड़ों शिव जी और कैलाश हैं; और करोड़ों ही ब्रहमा जिसके दर पर वेद उचार रहे हैं।1। जउ जाचउ तउ केवल राम ॥ आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जउ = जब। जाचउ = मैं माँगता हूँ। आन = अन्य। काम = गरज़।1। रहाउ। अर्थ: मैं जब भी माँगता हूँ, सिर्फ प्रभु के दर से ही माँगता हूँ, मुझे किसी और देवते के साथ कोई गर्ज नहीं है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |