श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1165 घर की नारि तिआगै अंधा ॥ पर नारी सिउ घालै धंधा ॥ जैसे सि्मबलु देखि सूआ बिगसाना ॥ अंत की बार मूआ लपटाना ॥१॥ पद्अर्थ: घालै धंधा = बुरे कर्म करता है, झख मारता है। सूआ = तोता। बिगसाना = खुश होता है। लपटाना = (पर तन विकार में) फस के।1। अर्थ: अंधा (पापी) अपनी पत्नी का त्याग कर देता है, और पराई औरत के साथ झखें मारता है, (पराई नारि को देख के वह ऐसे खुश होता है) जैसे तोता सिंबल वृक्ष को देख के खुश होता है (पर उस सिंबल से उस तोते को कुछ हासिल नहीं होता); आखिर में ऐसा विकारी मनुष्य (इस विकार) में ग्रसा हुआ ही मर जाता है।1। पापी का घरु अगने माहि ॥ जलत रहै मिटवै कब नाहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अगने माहि = आग में।1। रहाउ। अर्थ: विकारी बँदे का ठिकाना सदा उस आग में रहता है जो आग सदा जलती रहती है, कभी बुझती नहीं।1। रहाउ। हरि की भगति न देखै जाइ ॥ मारगु छोडि अमारगि पाइ ॥ मूलहु भूला आवै जाइ ॥ अम्रितु डारि लादि बिखु खाइ ॥२॥ पद्अर्थ: अमारगि = गलत रास्ते पर। मूलहु = जगत के मूल प्रभु से। डारि = डोल के। लादि = लाद के, संच के।2। अर्थ: जहाँ प्रभु की भक्ति होती है (विकारी मनुष्य) वह जगह जा के नहीं देखता, (जीवन का सीधा) राह छोड़ के (विकारों के) उल्टे रास्ते पर पड़ता है, जगत के मूल प्रभु से टूट के जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है, नाम-अमृत डोल के (गिरा के) (विकारों का) जहर लाद के खाता है।2। जिउ बेस्वा के परै अखारा ॥ कापरु पहिरि करहि सींगारा ॥ पूरे ताल निहाले सास ॥ वा के गले जम का है फास ॥३॥ पद्अर्थ: अखारा = अखाड़ा, तमाशा। पूरे ताल = नाचती है। निहाले = देखती है, ध्यान से देखती है। सास = सूर।3। अर्थ: जैसे वैश्या के मुजरे होते हैं, (सुंदर-सुंदर) पोशाकें पहन के श्रृंगार करती हैं। वैश्या नाचती है, और बड़े ध्यान से अपने सुर को तोलती है, (बस, इस विकारी जीवन के कारण) उसके गले में जमों का फंदा पड़ता है।3। जा के मसतकि लिखिओ करमा ॥ सो भजि परि है गुर की सरना ॥ कहत नामदेउ इहु बीचारु ॥ इन बिधि संतहु उतरहु पारि ॥४॥२॥८॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। करमा = बख्शिश (का लेख)। भजि = दौड़ के। परि है = पड़ता है। इन बिधि = इस तरीके से, गुरु की शरण पड़ कर।4। अर्थ: नामदेव यह एक विचार के वचन कहता है: जिस मनुष्य के माथे पर प्रभु की बख्शिश (का लेख) लिखा हुआ है (भाव, पिछले किए कर्मों के अनुसार धुर से बख्शिश होती है) वह (विकारों से) हट के सतिगुरु की शरण पड़ता है। हे संत जनो! गुरु की शरण पड़ कर ही (संसार-समुंदर के विकारों से) पार लांघ सकोगे।4।2।8। शब्द का भाव: विकारी का जीवन- विकारों की ना-बुझने वाली आगसदा उसको जलाती रहती है। प्रभु की मेहर हो तो गुरु की शरण पड़ने से खलासी होती है। संडा मरका जाइ पुकारे ॥ पड़ै नही हम ही पचि हारे ॥ रामु कहै कर ताल बजावै चटीआ सभै बिगारे ॥१॥ पद्अर्थ: संडा मरका = शुक्राचार्य के दो पुत्र संड और अमरक जो प्रहलाद को पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए थे। पचि हारे = थक के हार गए। कर = हाथों से। चटीआ = विद्यार्थी।1। अर्थ: (प्रहलाद के दोनों उस्ताद, अध्यापक) संड और अमरक ने (हर्णाकश्यप् के पास) जा के फरियाद की- हम थक-हार गए हैं, प्रहलाद पढ़ता नहीं, वह हाथों से ताल बजाता है, और राम-नाम गाता है, और सारे विद्यार्थी भी उसने बिगाड़ दिए हैं।1। राम नामा जपिबो करै ॥ हिरदै हरि जी को सिमरनु धरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपिबो करै = सदा जपता रहता है।1। रहाउ। अर्थ: (प्रहलाद) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करता है, परमात्मा के नाम का स्मरण अपने हृदय में धारण किए रखता है।1। रहाउ। बसुधा बसि कीनी सभ राजे बिनती करै पटरानी ॥ पूतु प्रहिलादु कहिआ नही मानै तिनि तउ अउरै ठानी ॥२॥ पद्अर्थ: बसुधा = धरती। पटरानी = बड़ी रानी (प्रहलाद की माँ)। तिनि = उस (प्रहलाद) ने। अउरै = कोई और बात ही। ठानी = मन में पक्की की हुई है।2। अर्थ: (प्रहलाद की माँ) बड़ी रानी (प्रहलाद के आगे) तरले करती है (और समझाती है कि तेरे पिता) राजे ने सारी धरती अपने वश में की हुई है (उसकी आज्ञा का उलंघन ना कर), पर पुत्र प्रहलाद (माँ का) कहा नहीं मानता, उसने तो कोई और ही बात मन में दृढ़ की हुई है।2। दुसट सभा मिलि मंतर उपाइआ करसह अउध घनेरी ॥ गिरि तर जल जुआला भै राखिओ राजा रामि माइआ फेरी ॥३॥ पद्अर्थ: मंतर उपाइआ = सलाह पका ली। करसह = हम कर देंगे। करसह...घनेरी = उम्र समाप्त कर देंगे, मार डालेंगे। गिरि = पहाड़। तर = वृक्ष। जुआला = आग। भै राखिओ = डरों से बचा लिया। रामि = राम ने। माइआ फेरी = माया का स्वभाव उलट दिया।3। अर्थ: दुष्टों की जुण्डली ने मिल के सलाह कर ली- (अगर प्रहलाद नहीं मानता तो) हम इसे मार डालेंगे; पर जगत के मालिक प्रभु ने अपनी माया का स्वभाव ही बदल डाला, (प्रभु ने प्रहलाद को) पहाड़, वृक्ष, पानी, आग (इन सबके) डर से बचा लिया।3। काढि खड़गु कालु भै कोपिओ मोहि बताउ जु तुहि राखै ॥ पीत पीतांबर त्रिभवण धणी थ्मभ माहि हरि भाखै ॥४॥ पद्अर्थ: खड़गु = तलवार। कालु = मौत। भै = (अंदर से) डर से। कोपिओ = गुस्से में आया। मोहि = मुझे। तुहि = तुझे। पीतांबर = पीले कपड़ों वाला कृष्ण, प्रभु। त्रिभवण धणी = तीनों भवनों का मालिक, परमात्मा। भाखै = बोलता है।4। अर्थ: (अब अंदर से) डरा हुआ (पर बाहर से) क्रोधवान हो के, मौत-रूप तलवार निकाल के (बोला-) मुझे बताओ जो तुझे (इस तलवार से) बचा सकता है; (आगे से) जगत का मालिक परमात्मा खम्भे में से बोलता है।4। हरनाखसु जिनि नखह बिदारिओ सुरि नर कीए सनाथा ॥ कहि नामदेउ हम नरहरि धिआवह रामु अभै पद दाता ॥५॥३॥९॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। नखह = नाखूनों से। बिदारिओ = चीर डाला। सनाथा = स+नाथ, पति वाले। नरहरि = परमात्मा। अभै पद दाता = निडरता का दर्जा देने वाला।5। अर्थ: नामदेव कहता है: जिस प्रभु ने हर्णाकश्यप को नाखूनों से चीर दिया, देवताओं और मनुष्यों को ढारस दी (सांत्वना दी), मैं भी उसी प्रभु को स्मरण करता हूँ; प्रभु ही निर्भयता का दर्जा बख्शने वाला है।5।3।9। शब्द का भाव: नाम-जपने की महिमा- दुनिया का कोई डर पोह नहीं सकता। नोट: इस शब्द को इसी राग में दिए हुए गुरु अमरदास जी के शब्द (पन्ना 1133) के साथ मिला के पढ़िए; भैरउ महला ३॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला॥ हरि सुखदाता मेरै नाला॥१॥ गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै॥ सासना ते बालकु गमु न करै॥१॥ रहाउ॥ माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ॥२॥ संडा मरका सभि जाइ पुकारे॥ प्रहिलादु आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े॥ दुसट सभा महि मंत्रु पकाइआ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ॥३॥ हाथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि॥ खिन महि भैआनु रूपु निकसिआ थंम् उपाड़ि॥ हरणाखसु नखी बिदारिआ प्रहलादु लीआ उबारि॥४॥ संत जना के हरि जीउ कारज सवारे॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे॥ नानक राम नामि संत निसतारे॥५॥१०॥२०॥ (पन्ना ११३३) जिस मनुष्य ने भक्त प्रहलाद की साखी कभी ना सुनी हो, उसको नामदेव जी का शब्द पढ़ के असल साखी समझने के लिए कई बातें पूछने की आवश्यक्ता रह जाती है। उन सारे सवालों के जवाब गुरु अमरादास जी ने इस शब्द में दे दिए हैं। दोनों शबदों की ‘रहाउ’ की तुक पढ़ के देखें; नामदेव जी ने जो बात खोल के नहीं थी बताई, गुरु अमरदास जी ने कितने सुंदर शब्दों में वह बयान कर दी है। नामदेव जी के शब्द का दूसरा बँद पढ़ के गुरु अमरदास जी के शब्द का दूसरा बँद पढ़ें, मन में उल्लास पैदा होता है, नामदेव जी के बरते हुए शब्द ‘बिनती’ को गुरु अमरदास जी ने किस तरह प्यार भरे शब्दों में समझाया है। ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि नामदेव जी का यह शब्द गुरु अमरदास जी के सामने मौजूद है। ये ख्याल गलत है कि भगतों के शब्द गुरु अरजन देव जी ने एकत्र किए थे। नामदेव जी के इस शब्द में कुछ ऐसे शब्दों के प्रयोग हुए मिलते हैं जो गुरबाणी को खोज-विचार के पढ़ने वालों के लिए बड़े ही मजेदार हैं। बंद नंबर–3 में नामदेव जी लिखते हैं “राजा रामि माइआ फेरी”। प्रहलाद जी की साखी सतियुग के समय की बताई जाती है, श्री राम अवतार त्रेते युग में हुए, यह साखी श्री रामचंद्र जी के पहले की है। सो, शब्द “राजा रामि’ श्री राम चंद्र जी के बाबत नहीं है। यही शब्द भक्त रविदास जी ने भी कई बार बरता है, सिर्फ इतने प्रयोग से ये ख्याल बना लेना भारी गलती का सबब है कि रविदास जी श्री राम चंद्र जी के उपासक थे। बँद नंबर–8 में उसी “राजा राम” के प्रथाय नामदेव जी कहते हैं “पीत पीतांबर त्रिभवण धणी, थंभ माहि हरि भाखै”। शब्द ‘पीतांबर’ कृष्ण जी का नाम है। पर भक्त नामदेव जी यहाँ कृष्ण जी का वर्णन नहीं कर रहे। कृष्ण जी द्वापर में हुए, श्री रामचंद्र जी के भी बाद में। और यह साखी है सतियुग की। जैसे इस शब्द के शब्द ‘पीतांबर’ से ये फैसला कर लेना भारी भूल है कि नामदेव जी कृष्ण जी के उपासक थे, वैसे ही उनके द्वारा बरते गए शब्द ‘बीठुल’ से उनको कृष्ण जी की बीठुल-मूर्ति का पुजारी समझ लेना भी गलत है। नामदेव जी के किसी भी शब्द से ये जाहिर नहीं होता कि उन्होंने कभी किसी बिठुल मूर्ति की पूजा की। सुलतानु पूछै सुनु बे नामा ॥ देखउ राम तुम्हारे कामा ॥१॥ पद्अर्थ: बे = हे! देखउ = मैं देखूं, मैं देखना चाहता हूँ।1। अर्थ: (मुहम्मद-बिन-तुग़लक) बादशाह पूछता है: हे नामे! सुन, मैं तेरे राम के काम देखना चाहता हूँ।1। नामा सुलताने बाधिला ॥ देखउ तेरा हरि बीठुला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुलताने = सुल्तान ने। बाधिआ = बाँध लिया। बीठुला = माया से रहित, प्रभु।1। रहाउ। अर्थ: बादशाह ने मुझे (नामे को) बाँध लिया (और कहने लगा-) मैं तेरा हरि, तेरा बीठल, देखना चाहता हूँ।1। रहाउ। बिसमिलि गऊ देहु जीवाइ ॥ नातरु गरदनि मारउ ठांइ ॥२॥ पद्अर्थ: बिसमिलि = मरी हुई। नातर = नहीं तो। ठांइ = इसी जगह पर, अभी ही।2। अर्थ: (मेरी यह) मरी हुई गाय जीवित कर दे, नहींतो तुझे भी यहीं (अभी) मार दूँगा।2। बादिसाह ऐसी किउ होइ ॥ बिसमिलि कीआ न जीवै कोइ ॥३॥ पद्अर्थ: बादिसाह = हे बादशाह!।3। अर्थ: (मैंने कहा-) बादशाह! ऐसी बात कैसे हो सकती है? कभी कोई मरा हुआ मुड़ के नहीं जीया।3। मेरा कीआ कछू न होइ ॥ करि है रामु होइ है सोइ ॥४॥ अर्थ: (तथा एक बात और भी है) वही कुछ होता है जो परमात्मा करता है, मेरा किया कुछ नहीं हो सकता।4। बादिसाहु चड़्हिओ अहंकारि ॥ गज हसती दीनो चमकारि ॥५॥ पद्अर्थ: अहंकारि = अहंकार में। चमकारि दीनो = प्रेर दिया, उकसाया।5। अर्थ: बदशाह (यह उक्तर सुन के) अहंकार में आया, उसने (मेरे पर) एक बड़ा हाथी उकसा के चढ़ा दिया।5। रुदनु करै नामे की माइ ॥ छोडि रामु की न भजहि खुदाइ ॥६॥ पद्अर्थ: की न = क्यों नहीं?।6। अर्थ: (मेरी) नामे की माँ रोने लगी (और कहने लगी- हे बच्चा!) तू राम छोड़ के खुदा-खुदा क्यों नहीं कहने लग जाता?।6। न हउ तेरा पूंगड़ा न तू मेरी माइ ॥ पिंडु पड़ै तउ हरि गुन गाइ ॥७॥ पद्अर्थ: पूंगड़ा = बच्चा। पिंडु पड़ै = अगर शरीर भी नाश हो जाए।7। अर्थ: (मैंने उक्तर दिया-) ना मैं तेरा पुत्र हूँ, ना तू मेरी माँ है; अगर मेरा शरीर भी नाश हो जाए, तो भी नामा हरि के गुण गाता रहेगा।7। करै गजिंदु सुंड की चोट ॥ नामा उबरै हरि की ओट ॥८॥ पद्अर्थ: गजिंदु = हाथी, बड़ा हाथी। उबरै = बच गया।8। अर्थ: हाथी अपनी सुंड की चोट करता है, पर नामा बच निकलता है; नामे को परमात्मा का आसरा है।8। काजी मुलां करहि सलामु ॥ इनि हिंदू मेरा मलिआ मानु ॥९॥ पद्अर्थ: इनि = इस ने। मलिआ = तोड़ दिया है।9। अर्थ: (बादशाह सोचता है:) मुझे (मेरे मज़हब के नेता) काजी और मौलवी सलाम करते हैं, पर इस हिन्दू ने मेरा माण तोड़ दिया है।9। बादिसाह बेनती सुनेहु ॥ नामे सर भरि सोना लेहु ॥१०॥ पद्अर्थ: सर भरि = तोल बराबर।10। अर्थ: (हिन्दू लोग मिल के आए, और कहने लगे,) हे बादशाह! हमारी अर्ज सुन, नामदेव के बराबर का तोल के सोना ले लो (और इसे छोड़ दो)।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |