श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1169 रे मन लेखै कबहू न पाइ ॥ जामि न भीजै साच नाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लेखै न पाइ = स्वीकार नहीं हो सकता। जामि = जब तक। नाइ = नाम में।1। रहाउ। अर्थ: (तो भी) हे मन! ऐसी सुचि का कोई भी आडंबर स्वीकार नहीं होता। जब तक मनुष्य प्रभु के सच्चे नाम में नहीं भीगता (प्रीति नहीं बनाता, उसका कोई उद्यम प्रभु को पसंद नहीं)।1। रहाउ। दस अठ लीखे होवहि पासि ॥ चारे बेद मुखागर पाठि ॥ पुरबी नावै वरनां की दाति ॥ वरत नेम करे दिन राति ॥२॥ पद्अर्थ: दस अठ = अठारह पुराण। मुखागर = मुँह जबानी, मुँह के आगे। पाठि = पाठ में। पुरबी = पर्वों के मौके पर, पवित्र दिवसों पर। वरनां की दाति = अलग अलग वर्णों के लिए जो दान करना लिखा है उस अनुसार दान।2। अर्थ: अगर किसी पण्डित ने अठारह पुराण लिख के पास रखे हुए हों, यदि पाठ में वह चारों वेद ज़बानी पढ़े, यदि वह पवित्र (निहित हुए) दिवसों पर तीर्थ स्नान करे, शास्त्रों की बताई हुई मर्यादा के अनुसार अलग-अलग वर्णों के व्यक्तियों को दान-पुण्य करे, अगर वह दिन-रात व्रत रखता रहे तथा अन्य सभी नियम निभाता रहे (तो भी प्रभु को इनमें से कोई उद्यम पसंद नहीं)।2। काजी मुलां होवहि सेख ॥ जोगी जंगम भगवे भेख ॥ को गिरही करमा की संधि ॥ बिनु बूझे सभ खड़ीअसि बंधि ॥३॥ पद्अर्थ: जंगम = घंटी बजाने वाले शिव उपासक। संधि = मिलवाना। करमां की संधि = धर्म शास्त्रों के अनुसार बताए कर्मकांड को करने वाले, कर्म काण्डी। खड़ीअसि = ले जाई जाती है। बंधि = बाँध के।3। अर्थ: यदि कोई व्यक्ति काज़ी-मुल्ला-शेख बन जाए, कोई जोगी-जंगम बन के भगवे कपड़े पहन ले, कोई गृहस्थी बन के पूरा कर्मकांडी हो जाए- इनमें से हरेक को दोशियों की तरह बाँध के आगे ले जाया जाएगा, जब तक वह नाम-जपने की कद्र नहीं समझा, (जब तक वह सच्चे नाम में नहीं पतीजता)।3। जेते जीअ लिखी सिरि कार ॥ करणी उपरि होवगि सार ॥ हुकमु करहि मूरख गावार ॥ नानक साचे के सिफति भंडार ॥४॥३॥ पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। करणी उपरि = हरेक की करणी के अनुसार, हरेक जीव के किए हुए कर्मों के अनुसार। होवगि = होगी। सार = संभाल, फैसला। हुकमु करहि = जो मनुष्य हुक्म करते हैं, अहंकार करने वाले बंदे। भंडार = खजाने।4। अर्थ: (दरअसल बात ये है कि) जितने भी जीव हैं सबके सिर पर यही हुक्म-रूप लेख लिखा हुआ है कि हरेक की कामयाबी का फैसला उसके द्वारा किए कर्मों पर ही होगा। जो लोग शुद्ध कर्मकांड-भेस आदि पर ही गुमान करते हैं वह बहुत बड़े मूर्ख हैं। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की सिफतों के खजाने भरे पड़े हैं (उनमें जुड़ो। यही है स्वीकार होने वाली करणी)।4।3। बसंतु महला ३ तीजा ॥ बसत्र उतारि दिग्मबरु होगु ॥ जटाधारि किआ कमावै जोगु ॥ मनु निरमलु नही दसवै दुआर ॥ भ्रमि भ्रमि आवै मूड़्हा वारो वार ॥१॥ पद्अर्थ: उतारि = उतार के। दिगंबरु = नागा साधु (दिग्+अंबर। दिग = दिशा। अंबरु = कपड़ा। दिगंबर = जिसने दिशा को अपना कपड़ा बनाया है, नंगा)। होगु = (अगर) हो जाएगा। धारि = धार के। किआ = कौन सा? दसवै दुआर = प्राण दसवें द्वार पर चढ़ा के, प्राणायम करने से। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। मूड़ा = मूढ़, मूर्ख। वारो वार = बार बार।1। अर्थ: यदि कोई मनुष्य कपड़े उतार के नांगा साधु बन जाए (तो भी व्यर्थ ही उद्यम है)। जटा धार के भी कोई जोग नहीं कमाया जा सकता। (परमात्मा के साथ जोग-योग- नहीं हो सकेगा)। दसवें द्वार में प्राण चढ़ाने से भी मन पवित्र नहीं होता। (ऐसे साधनों में लगा हुआ) मूर्ख भटक-भटक के बार-बार जनम लेता है।1। एकु धिआवहु मूड़्ह मना ॥ पारि उतरि जाहि इक खिनां ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: एकु = एक प्रभु को। इक खिनां = एक पल में।1। रहाउ। अर्थ: हे मूर्ख मन! एक परमात्मा को स्मरण कर। (नाम-जपने की इनायत से) एक पल में ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।1। रहाउ। सिम्रिति सासत्र करहि वखिआण ॥ नादी बेदी पड़्हहि पुराण ॥ पाखंड द्रिसटि मनि कपटु कमाहि ॥ तिन कै रमईआ नेड़ि नाहि ॥२॥ पद्अर्थ: करहि = (जो मनुष्य) करते हैं। नादी = नाद बजाने वाले जोगी। बेदी = बेद पढ़ने वाले पण्डित। दिसटि = निगाह, नजर। मनि = मन में। कमाहि = जो कमाते हैं।2। अर्थ: (पण्डित लोग) स्मृतियों और शास्त्र (और लोगों को पढ़-पढ़ के) सुनाते हैं, जोगी नाद बजाते हैं, पंडित वेद पढ़ते हैं, कोई पुराण पढ़ते हैं, पर उनकी निगाह पाखण्ड वाली है, मन में वे खोट कमाते हैं। परमात्मा ऐसे व्यक्तियों के नजदीक नहीं (फटकता)।2। जे को ऐसा संजमी होइ ॥ क्रिआ विसेख पूजा करेइ ॥ अंतरि लोभु मनु बिखिआ माहि ॥ ओइ निरंजनु कैसे पाहि ॥३॥ पद्अर्थ: संजमी = संजम रखने वाला, इन्द्रियों को काबू करने का प्रयत्न करने वाला। विसेख = विशेष, खास। करेइ = (जो मनुष्य) करता है। अंतरि = अंदर, मन के अंदर। बिखिआ = माया। ओइ = एसे बंदे। पाहि = प्राप्त करें।3। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: अगर कोई ऐसा व्यक्ति भी हो जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता हो, कोई विशेष प्रकार की क्रिया करता हो, देव-पूजा भी करे, पर अगर उसके अंदर लोभ है, अगर उसका मन माया के मोह में फसा हुआ है, तो ऐसे व्यक्ति भी माया से निर्लिप परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकते।3। कीता होआ करे किआ होइ ॥ जिस नो आपि चलाए सोइ ॥ नदरि करे तां भरमु चुकाए ॥ हुकमै बूझै तां साचा पाए ॥४॥ पद्अर्थ: कीता होआ = सब कुछ परमात्मा का किया हुआ हो रहा है। करे किआ होइ = जीव के करने से क्या हो सकता है? जिस नो = जिस जीव को। सोइ = वह परमात्मा। नदरि = मेहर की निगाह। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर करता है। हुकमै = परमात्मा के हुक्म को।4। अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश?) सब कुछ परमात्मा का ही किया हुआ हो रहा है। जीव के करने से कुछ नहीं हो सकता। जब प्रभु स्वयं (किसी जीव पर) मेहर की निगाह करता है तो उसकी भटकना दूर करता है (प्रभु की मेहर से ही जब जीव) प्रभु का हुक्म समझता है तो उसका मिलाप हासिल कर लेता है।4। जिसु जीउ अंतरु मैला होइ ॥ तीरथ भवै दिसंतर लोइ ॥ नानक मिलीऐ सतिगुर संग ॥ तउ भवजल के तूटसि बंध ॥५॥४॥ पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी (बंद नं: 3 में शब्द ‘अंतरि’ संबंधक है। दोनों शब्दों को योड़ कर देखें। शब्द ‘अंतरु’ विशेषण है शब्द ‘जीउ’ का)। दिसंतर = देश अंतर, और-और देशों में। लोइ = लोक में, जगत में। तउ = तब। बंध = बंधन।5। अर्थ: जिस मनुष्य की अंदरूनी आत्मा (विकारों से) मैली हो जाती है, वह अगर तीर्थों पर जाता है अगर वह जगत में और-और देशों में भी (विरक्त रहने के लिए) चलता फिरता है (तो भी उसके माया वाले बंधन टूटते नहीं)। हे नानक! अगर गुरु का मेल प्राप्त हो तो ही परमात्मा मिलता है, तब ही संसार-समुंदर वाले बंधन टूटते हैं।5।4। नोट: यह शब्द ‘महला ३’ का है। अंक ३ को ‘तीजा’ पढ़ना है जैसे कि शब्द के आरम्भ में भी लिखा गया है ये निर्देश है। इसी तरह ‘महला’ १, २, ४, ५, ९’ के अंकों को पहला, दूजा, चौथा, पंजवाँ और नौवाँ पढ़ना है। नोट: वाणी दर्ज करने के बारे में सारे गुरु ग्रंथ साहिब में बरती गई मर्यादा के अनुसार इस राग में भी गुरु नानक साहिब के शब्द-संग्रह के उपरांत गुरु अमरदास जी के शब्द दर्ज हैं। फिर, ये अलग से शब्द गुरु अमरदास जी का यहाँ क्यों दिया गया है? उक्तर जानने के लिए, इस सारे शब्द को ध्यान से पढ़िए। इससे पहला शब्द नंबर 3 भी फिर पढ़ें। दोनों में भेस और कर्मकांड की निंदा की गई है। स्मरण को ही जनम-उद्देश्य बताया गया है। गुरु अमरदास जी ने गुरु नानक साहिब के विचारों की प्रोढ़ता की है। गुरु नानक देव जी का यह शब्द गुरु अमरदास जी के पास मौजूद था। बसंतु महला १ ॥ सगल भवन तेरी माइआ मोह ॥ मै अवरु न दीसै सरब तोह ॥ तू सुरि नाथा देवा देव ॥ हरि नामु मिलै गुर चरन सेव ॥१॥ पद्अर्थ: तोह = तेरा (प्रकाश)। सुरि = देवते।1। अर्थ: हे प्रभु! सारे भवनों में (सारे जगत में) तेरी माया के मोह का पसारा है। मुझे तेरे बिना कोई और नहीं दिखता, सब जीवों में तेरा ही प्रकाश है। तू देवताओं का नाथों का भी देवता है। हे हरि! गुरु के चरणों की सेवा करने से ही तेरा नाम मिलता है।1। मेरे सुंदर गहिर ग्मभीर लाल ॥ गुरमुखि राम नाम गुन गाए तू अपर्मपरु सरब पाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लाल = हे लाल! गुरमुखि = गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के। सरब पाल = हे सब को पालने वाले! अपरंपरु = परे से परे, बेअंत।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे सुंदर लाल! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले प्रभु! हे सब जीवों के पालने वाले प्रभु! तू बड़ा ही बेअंत है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह तेरी महिमा करता है।1। रहाउ। बिनु साध न पाईऐ हरि का संगु ॥ बिनु गुर मैल मलीन अंगु ॥ बिनु हरि नाम न सुधु होइ ॥ गुर सबदि सलाहे साचु सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: साध = गुरु। सुधु = शुद्ध, पवित्र।2। अर्थ: गुरु की शरण के बिना परमात्मा का साथ प्राप्त नहीं होता, (क्योंकि) गुरु के बिना मनुष्य का शरीर (विकारों की) मैल से गंदा रहता है। प्रभु का नाम-स्मरण के बिना (यह शरीर) पवित्र नहीं हो सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु की महिमा करता है वह सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है।2। जा कउ तू राखहि रखनहार ॥ सतिगुरू मिलावहि करहि सार ॥ बिखु हउमै ममता परहराइ ॥ सभि दूख बिनासे राम राइ ॥३॥ पद्अर्थ: सार = संभाल। बिखु = जहर। परहराइ = दूर करा लेता है। सभि = सारे। रामराइ = हे प्रकाश रूप प्रभु!।3। अर्थ: हे राखनहार प्रभु! जिसको तू स्वयं (विकारों से) बचाता है, जिसको तू गुरु मिलाता है और जिसकी तू संभाल करता है, वह मनुष्य अपने अंदर से अहंकार और मल्कियतें बनाने के जहर को दूर कर लेता है। हे रामराय! तेरी मेहर से उसके सारे दुख नाश हो जाते हैं।3। ऊतम गति मिति हरि गुन सरीर ॥ गुरमति प्रगटे राम नाम हीर ॥ लिव लागी नामि तजि दूजा भाउ ॥ जन नानक हरि गुरु गुर मिलाउ ॥४॥५॥ पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। हीर = हीरा। तजि = त्याग के। दूजा भाउ = प्रभु के बिना और का प्यार। गुर मिलाउ = गुरु का मिलाप।4। अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर प्रभु के गुण बस जाते हैं उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है वह फराख दिल हो जाता है, गुरु की मति पर चल के उसके अंदर प्रभु के नाम का हीरा चमक उठता है, माया का प्यार त्याग के उसकी तवज्जो प्रभु के नाम में जुड़ती है। हे प्रभु! (मेरी तेरे दर पर अरदास है कि) मुझे दास नानक को गुरु मिला, गुरु का मिलाप करा दे।4।5। बसंतु महला १ ॥ मेरी सखी सहेली सुनहु भाइ ॥ मेरा पिरु रीसालू संगि साइ ॥ ओहु अलखु न लखीऐ कहहु काइ ॥ गुरि संगि दिखाइओ राम राइ ॥१॥ पद्अर्थ: सखी सहेली = हे सखी सहेलियो! भाइ = (पढ़ना है ‘भाय’) प्रेम से। रीसालु = सुंदर। संगि = (जिसके) साथ है। साइ = (साय), वह सखी (सोहागनि है)। ओहु = वह पिर प्रभु। कहहु = बताओ। काइ = (काय), कैसे (दिखे, मिले)? गुरि = गुरु ने। संगि = साथ ही।1। अर्थ: हे मेरी (सत्संगी) सहेलियो! प्रेम से (मेरी बात) सुनो (कि) मेरा सुंदर पति-प्रभु जिस सहेली के अंग-संग है वही सहेली (सोहागनि) है। वह (सुंदर प्रभु) बयान से परे है, उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। बताओ (हे सहेलियो!) वह (फिर) कैसे (मिले)। गुरु के वह प्रकाश-रूप प्रभु जिस सहेली को अंग-संग (बसा हुआ) दिखा दिया है (उसी को ही वह मिला है)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |