श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1168 रागु बसंतु महला १ घरु १ चउपदे दुतुके ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु माहा माह मुमारखी चड़िआ सदा बसंतु ॥ परफड़ु चित समालि सोइ सदा सदा गोबिंदु ॥१॥ पद्अर्थ: माहा माह = महा महा, महान महान, बड़ी बड़ी। मुमारखी = मुबारकें, वधाईयाँ। सदा बसंतु = सदा खिले रहने वाला (प्रभु = प्रकाश)। परवतु = प्रफुल्लित हो, खिल। चित = हे चिक्त! समालि = संभाल के रख। गोबिंदु = सृष्टि की सार लेने वाले प्रभु।1। अर्थ: (हे मन! अगर तू अहंकार वाली रुचि भुला दे तो तुझे) बड़ी-बड़ी मुबारकें (हों, तेरे अंदर सदा चढ़दीकला टिकी रहे, क्योंकि तेरे अंदर) सदा खिले रहने वाला परमात्मा प्रकट हो जाए। हे मेरे चिक्त! सृष्टि की सार लेने वाले प्रभु को तू सदा (अपने अंदर) संभाल के रख और (इसकी इनायत से) खिला रह।1। भोलिआ हउमै सुरति विसारि ॥ हउमै मारि बीचारि मन गुण विचि गुणु लै सारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भोलिआ = हे कमले (मन)! सुरति = तवज्जो। विसारि = भुला के। बीचारि = सोच समझ, होश कर। मन = हे मन! गुण विचि गुणु = गुणों में श्रेष्ठ गुण, सबसे उत्तम गुण। लै सारि = संभाल ले।1। रहाउ। अर्थ: हे कमले मन! मैं-मैं करने वाली रुचि भुला दे। हे मन! होश कर, अहंकार को (अपने अंदर से) खत्म कर दे। (अहंकार को खत्म करने वाला यह) सबसे श्रेष्ठ गुण (अपने अंदर) संभाल ले।1। रहाउ। करम पेडु साखा हरी धरमु फुलु फलु गिआनु ॥ पत परापति छाव घणी चूका मन अभिमानु ॥२॥ पद्अर्थ: करम = (रोजाना जीवन वाले) कर्म। पेडु = पेड़, वृक्ष। साखा = टहनियाँ। हरी = हरि का नाम सिरन। गिआनु = प्रभु से गहरी जान-पाहचान। पत = पत्र, पत्ते। घणी = संघनी। मान अभिमानु = मन का अहंकार। चूका = समाप्त हो गया।2। अर्थ: (हे मन! अगर तू अहंकार भुलाने वाले रोजाना) काम (करने लग जाए, यह तेरे अंदर एक ऐसा) वृक्ष (उग जाएगा, जिसको) हरि-नाम (स्मरण) की टहनियाँ (फूटेंगीं, जिसको) धार्मिक जीवन का फूल (लगेगा और प्रभु से) गहरी जान-पहचान वाला फल (लगेगा)। परमात्मा की प्राप्ति (उस वृक्ष के) पत्ते (होंगे, और) विनम्रता (उस वृक्ष की) घनी छाया होगी।2। अखी कुदरति कंनी बाणी मुखि आखणु सचु नामु ॥ पति का धनु पूरा होआ लागा सहजि धिआनु ॥३॥ पद्अर्थ: अखी = आँखों से। कंनी = कानों से। बाणी = महिमा। मुखि = मुँह में। आखणु = बोल। पति = इज्जत। सहजि = सहज, अडोलता में। धिआनु = ध्यान, टिकाव।3। अर्थ: (जो भी मनुष्य अहंकार को भुलाने वाले रोजाना कर्म करेगा उसको) कुदरति में बसता ईश्वर अपनी आँखों से दिखेगा, उसके कानों में प्रभु की महिमा बसेगी, उसके मुँह में सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु का नाम ही बोल होगा। उसको लोक-परलोक की इज्जत का सम्पूर्ण धन मिल जाएगा, अडोलता में सदा उसकी तवज्जो टिकी रहेगी।3। माहा रुती आवणा वेखहु करम कमाइ ॥ नानक हरे न सूकही जि गुरमुखि रहे समाइ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: माहा रुती = महीने की ऋतुएं। करम = (अहंकार भुलाने वाले) कर्म।4। अर्थ: (हे भाई! अहंकार को बिसारने वाले) काम करके देख लो, ये दुनियावी ऋतुएं और महीने तो सदा आने-जाने वाले हैं (पर वह सदा प्रफुल्लित रहने वाली आत्मिक अवस्था वाली ऋतु कभी अलोप नहीं होगी)। हे नानक! जो लोग गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के प्रभु-याद में टिके रहते हैं, उनकी आत्मा सदा खिली रहती है और यह खिलाव कभी सूखता नहीं।4।1। महला १ बसंतु ॥ रुति आईले सरस बसंत माहि ॥ रंगि राते रवहि सि तेरै चाइ ॥ किसु पूज चड़ावउ लगउ पाइ ॥१॥ पद्अर्थ: रुति = ऋतु, सुहावनी ऋतु। आईले = आई है। सरस = रस सहित, खुश। माहि = में। रंगि = तेरे रंगि, हे प्रभु! तेरे प्रेम में। राते = रंगे हुए। रवहि = जो लोग स्मरण करते हैं। सि = वह लोग। चाइ = चाव में। तेरै चाइ = तेरे मिलाप की खुशी में। चढ़ावउ = मैं चढ़ाऊँ। लगउ = मैं लगूँ। पाइ = पाय, पैरों पर।1। अर्थ: हे प्रभु! जो बंदे तेरे प्यार-रंग में रंगे जाते हैं, जो तुझे स्मरण करते हैं, वे तेरे मिलाप की खुशी में रहते हैं, उनके लिए (ये मानव जन्म, मानो, बसंत की) ऋतु आई हुई है, वह (मनुष्य जन्म वाली) इस ऋतु में सदा खिले रहते हैं। (लोग बसंत ऋतु में खिले हुए फूल ले के देवी-देवताओं की भेट चढ़ा के पूजा करते हैं। पर, मैं तेरे दासों का दास बन के तुझे स्मरण करता हूँ, तेरे बिना) मैं और किस की पूजा के लिए (फूल) भेट करूँ? (तेरे बिना) मैं और किसके चरणों में लगूँ?।1। तेरा दासनि दासा कहउ राइ ॥ जगजीवन जुगति न मिलै काइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दासनि दासा = दासों का दास हो के। कहउ = मैं कहता हूँ, स्मरण करता हूँ। काइ = किसी और जगह से।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रकाश-रूप प्रभु! मैं तेरे दासों का दास बन के तुझे स्मरण करता हूँ। हे जगत के जीवन प्रभु! तेरे मिलाप की जुगती (तेरे दासों के बिना) किसी और जगह से नहीं मिल सकती।1। रहाउ। तेरी मूरति एका बहुतु रूप ॥ किसु पूज चड़ावउ देउ धूप ॥ तेरा अंतु न पाइआ कहा पाइ ॥ तेरा दासनि दासा कहउ राइ ॥२॥ पद्अर्थ: मूरति = हस्ती। देउ = मैं देऊँ। कहा पाइ = कहाँ पाया जा सकता है?।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरी हस्ती एक है, तेरे रूप अनेक हैं। तुझे छोड़ के मैं और किस को धूप दूँ? तुझे छोड़ के मैं और किस की पूजा के लिए (फूल आदि) भेटा रखूँ। हे प्रभु! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे प्रकाश-रूप प्रभु! मैं तो तेरे दासों का दास बन के तुझे ही स्मरण करता हूँ।2। तेरे सठि स्मबत सभि तीरथा ॥ तेरा सचु नामु परमेसरा ॥ तेरी गति अविगति नही जाणीऐ ॥ अणजाणत नामु वखाणीऐ ॥३॥ पद्अर्थ: सठि संबति = साठ साल (ब्रहमा विष्णु शिव की तीन बीसियाँ। इनका बीस = बीस साल का प्रभाव माना गया है)। सभि = सारे। गति = हालत। तेरी गति = तू कैसा है, ये बात। अविगत = जानने से परे।3। अर्थ: हे परमेश्वर! तेरा सदा-स्थिर रहने वाला नाम ही मेरे लिए तेरे साठ साल (ब्रहमा-विष्णू-शिव की बीसियाँ) हैं और सारे तीर्थ हैं। तू किस प्रकार का है; ये बात समझी नहीं जा सकती, जानी नहीं जा सकती। ये समझने का यत्न किए बिना ही (तेरे दासों का दास बन के) तेरा नाम स्मरणा चाहिए।3। नानकु वेचारा किआ कहै ॥ सभु लोकु सलाहे एकसै ॥ सिरु नानक लोका पाव है ॥ बलिहारी जाउ जेते तेरे नाव है ॥४॥२॥ पद्अर्थ: वेचारा = गरीब। एकसै = एक प्रभु को। सिरु नानक = नानक का सिर। लोका पाव = (उन महिमा करने वाले) लोगों के पैरों पर। जेते = जितने भी।4। अर्थ: (सिर्फ मैं नानक ही नहीं कह रहा कि तू बेअंत है) गरीब नानक कह भी क्या सकता है? सारा संसार ही तुझ एक का सराहना कर रहा है (तेरी महिमा कर रहा है)। हे प्रभु! जितने भी तेरे नाम हैं मैं उनसे बलिहार जाता हूँ (तेरे ये बेअंत नाम तेरे बेअंत गुणों को देख-देख के तेरे बंदों ने बनाए हैं)।4।2। बसंतु महला १ ॥ सुइने का चउका कंचन कुआर ॥ रुपे कीआ कारा बहुतु बिसथारु ॥ गंगा का उदकु करंते की आगि ॥ गरुड़ा खाणा दुध सिउ गाडि ॥१॥ पद्अर्थ: चउका = रसोई से बाहर खुली जगह रोटी पकाने के लिए घेरी हुई जगह। कंचन = सोना। कुआर = करवे, गागर। रुपा = चाँदी। कारा = लकीरें, चौके के चारों तरफ हदबंदी की लकीरें। बिसथारु = सुचि रखने के लिए ऐसे और उद्यमों का विस्तार। उदक = पानी। करंते की आगि = (क्रतु = अग्नि। क्रतु = यज्ञ) यज्ञ की आग। एक विशेष वृक्ष (अरणी) के दो डंडे बना के एक डंडे में छेद कर लेते हैं, उसमें दूसरा डंडा फसा के उसका मथानी की तरह रस्सी के लपेटे दे के बड़ी तेजी से घुमाते हैं। इस तरह दोनों डंडों की रगड़ से आग पैदा होती है। यह आग सुचि (शुद्ध) मानी गई है। यज्ञों में इस आग को बरतना अच्छा बताया गया है। गरुड़ा = पके हुए चावल। गाडि = मिला के।1। अर्थ: (जो कोई मनुष्य) सोने का चौका (तैयार करे), सोने के ही (उसमें) बरतन (बरते), (चौके को शुद्ध रखने के लिए उसके चारों तरफ) चाँदी की लकीरें (डाले) (और शुद्धि के वास्ते) इस तरह के अनेक प्रकार के कामों का पसारा (पसारे); (भोजन तैयार करने के लिए अगर वह) गंगा का (पवित्र) जल (लाए), और अरणी की लकड़ी की आग (तैयार करे); और फिर वह दूध में मिला के पके हुए चावलों का भोजन करे;।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |