श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिन कउ तखति मिलै वडिआई गुरमुखि से परधान कीए ॥ पारसु भेटि भए से पारस नानक हरि गुर संगि थीए ॥४॥४॥१२॥

पद्अर्थ: कउ = को। तखति = तख़्त पर। तखति वडिआई = तख्त पर बैठने की बड़ाई, हृदय तख़्त पर बैठे रहने की इज्जत, माया के पीछे भटकने से बचे रहने का आदर। गुरमुखि = गुरु से। परधान = प्रधान, जाने माने। पारसु = गुरु पारस। भेटि = मिल के, छू के। पारस = लोहा आदि धातुओं को सोना बना देने की स्मर्था रखने वाले। गुर संगि = गुरु के संगी। थीए = बन गए।4।

अर्थ: गुरु की शरण पड़ कर जिस लोगों को हृदय-तख़्त पर बैठे रहने की (भाव, माया के पीछे भटकने से बचे रहने की) इज्जत मिलती है, उनको परमात्मा जगत में प्रसिद्ध कर देता है। हे नानक! गुरु-पारस को मिल के वे स्वयं भी पारस हो जाते हैं (उनके अंदर भी यह समर्थता आ जाती है कि माया-ग्रसित मनों को प्रभु-चरणों में जोड़ सकें), वह लोग सदा के लिए परमात्मा और गुरु के साथी बन जाते हैं (उनकी तवज्जो सदा) गुरु-प्रभु के चरणों में टिकी रहती है।4।4।12।

बसंतु महला ३ घरु १ दुतुके    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

माहा रुती महि सद बसंतु ॥ जितु हरिआ सभु जीअ जंतु ॥ किआ हउ आखा किरम जंतु ॥ तेरा किनै न पाइआ आदि अंतु ॥१॥

पद्अर्थ: माहा महि = सब महीनों में। रुती महि = सारी ऋतुओं में। सद = सदा। सद बसंतु = सदा खिले रहने वाला परमात्मा। जितु = जिस (परमात्मा) से। सभु = हरेक। हउ = मैं। किआ आखा = मैं क्या कह सकता हूँ। किरम = कीड़ा। किरम जंतु = छोटा सा जीव। किनै = किसी ने भी। न पाइआ = नहीं पाया। आदि = शुरूवात। अंत = आखिर।1।

नोट: ‘रुति’ है ‘रितु’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! सारे महीनों में सारी ऋतुओं में सदा खिले रहने वाला तू स्वयं ही मौजूद है, जिस (तेरी) इनायत से हरेक जीव जीवित है (सजिंद है)। मैं तुच्छ सा जीव क्या कह सकता हूँ? किसी ने भी तेरा ना आदि पाया है ना अंत पाया है।1।

तै साहिब की करहि सेव ॥ परम सुख पावहि आतम देव ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तै की = तेरी। साहिब की = मालिक की। करहि = करते हैं (बहुवचन)। परम = सबसे ऊँचा। पावहि = हासिल करते हैं। आतम देव = हे परमात्मा!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मालिक! हे प्रभु देव! जो मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद पाते हैं।1। रहाउ।

करमु होवै तां सेवा करै ॥ गुर परसादी जीवत मरै ॥ अनदिनु साचु नामु उचरै ॥ इन बिधि प्राणी दुतरु तरै ॥२॥

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। तां = तब। सेवा = भक्ति। परसादी = कृपा से। जीवत मरै = जीवित ही विकारों से अडोल हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचु = सदा कायम रहने वाला। इन बिधि = इस तरीके से। दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है।2।

अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश होती है तब वह (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करता है, गुरु की कृपा से (वह मनुष्य) दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही विकारों से बचा रहता है, वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा का सदा रहने वाला नाम उचारता रहता है, और, इस तरीके से वह मनुष्य उस संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।2।

बिखु अम्रितु करतारि उपाए ॥ संसार बिरख कउ दुइ फल लाए ॥ आपे करता करे कराए ॥ जो तिसु भावै तिसै खवाए ॥३॥

पद्अर्थ: बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। करतारि = कर्तार ने। बिरख = वृक्ष। कउ = को। आपे = स्वयं ही। करता = कर्तार। भावै = अच्छा लगता है। तिसै = उसी को।3।

नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया और आत्मिक जीवन देने वाला नाम- यह कर्तार ने (ही) पैदा किए हैं। जगत-वृक्ष को उसने ये दोनों फल लगाए हुए हैं। (सर्व-व्यापक हो के) कर्तार स्वयं ही (सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। जिस जीव को जो फल खिलाने की उसकी मर्जी होती है उसी को वही खिला देता है।3।

नानक जिस नो नदरि करेइ ॥ अम्रित नामु आपे देइ ॥ बिखिआ की बासना मनहि करेइ ॥ अपणा भाणा आपि करेइ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = (करेय) (एकवचन) करता है। देइ = (देय) देता है। बिखिआ = माया। बासना = लालसा। मनहि करेइ = रोक देता है। भाणा = रजा, मर्जी।4।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर कर्तार मेहर की निगाह करता है, उसको वह स्वयं ही आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम देता है, (उसके अंदर से) माया की लालसा रोक देता है। हे भाई! अपनी रज़ा परमात्मा स्वयं (ही) करता है।4।1।

बसंतु महला ३ ॥ राते साचि हरि नामि निहाला ॥ दइआ करहु प्रभ दीन दइआला ॥ तिसु बिनु अवरु नही मै कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखै सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: राते = रंगे हुए। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले हरि नाम में। निहाला = प्रसन्न चिक्त। प्रभ = हे प्रभु! जिउ भावै = जैसे उसको अच्छा लगता है।1।

अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे सदा-स्थिर नाम में रंगे जाते हैं, वे प्रसन्न-चिक्त रहते हैं। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरे ऊपर भी) मेहर कर (मुझे भी अपना नाम बख्श)। हे भाई! उस प्रभु के बिना मुझे और कोई बेली नहीं दिखाई देता। जैसे उसकी रज़ा होती है वैसे ही वह (जीवों की) रक्षा करता है।1।

गुर गोपाल मेरै मनि भाए ॥ रहि न सकउ दरसन देखे बिनु सहजि मिलउ गुरु मेलि मिलाए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। भाए = प्यारा लगता है। सकउ = सकूँ। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। मेलि = संगति में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु परमेश्वर मेरे मन को प्यारा लगता है, मैं उसके दर्शन किए बिना नहीं रह सकता (दर्शनों के बिना मुझे धैर्य नहीं आता)। (जब) गुरु (मुझे अपनी) संगति में मिलाता है, (तब) मैं आत्मिक अडोलता में (टिक के उसको) मिलता हूँ।1। रहाउ।

इहु मनु लोभी लोभि लुभाना ॥ राम बिसारि बहुरि पछुताना ॥ बिछुरत मिलाइ गुर सेव रांगे ॥ हरि नामु दीओ मसतकि वडभागे ॥२॥

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का यह लालची मन (सदा) लालच में फसा रहता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के फिर हाथ मलता है। जो मनुष्य गुरु की बताई हुई हरि-भक्ति में रंगे जाते हैं उनको (प्रभु-चरणों से) विछुड़ों को गुरु (दोबारा) मिला देता है। जिनके माथे पर भाग्य जाग उठे उनको गुरु ने परमात्मा का नाम बख्श दिया।2।

पउण पाणी की इह देह सरीरा ॥ हउमै रोगु कठिन तनि पीरा ॥ गुरमुखि राम नाम दारू गुण गाइआ ॥ करि किरपा गुरि रोगु गवाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: पउण = पवन, हवा। देह = शरीर। कठिन = करड़ी। तनि = शरीर में। पीरा = पीड़ा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। दारू = दवाई। करि = कर के। गुरि = गुरु ने।3।

अर्थ: हे भाई! यह शरीर हवा पानी (आदि तत्वों) का बना हुआ है। जिस मनुष्य के इस शरीर में अहंकार का रोग है, (उसके शरीर में इस रोग की) कठिन पीड़ा बनी रहती है। गुरु के सन्मुख हो के जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, परमात्मा का नाम (उसके लिए अहम्-रोग दूर करने के लिए) दवा बन जाता है। जो भी मनुष्य (गुरु की शरण आया) गुरु ने कृपा करके उसका यह रोग दूर कर दिया।3।

चारि नदीआ अगनी तनि चारे ॥ त्रिसना जलत जले अहंकारे ॥ गुरि राखे वडभागी तारे ॥ जन नानक उरि हरि अम्रितु धारे ॥४॥२॥

पद्अर्थ: नदीआ अगनी = (हंस, हेत, लोभ, कोप = यह) आग की नदियाँ। तनि = शरीर में। चारे = ये चार ही। गुरि = गुरु ने। राखै = रक्षा की। उरि = हृदय में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम।4।

अर्थ: हे भाई! (जगत में हंस, हेत, लोभ, कोप) चार आग की नदियां बह रही हैं, (जिस मनुष्यों के) शरीर में ये चारों आग प्रबल हैं, वे मनुष्य तृष्णा में जलते हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस भाग्यशाली सेवकों की गुरु ने रक्षा की, (गुरु ने उनको इन नदियों से) पार लंघा लिया, उन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम अपने हृदय में बसा लिया।4।2।

बसंतु महला ३ ॥ हरि सेवे सो हरि का लोगु ॥ साचु सहजु कदे न होवै सोगु ॥ मनमुख मुए नाही हरि मन माहि ॥ मरि मरि जमहि भी मरि जाहि ॥१॥

पद्अर्थ: सेवे = स्मरण करता है। सो = वह मनुष्य। साचु = सदा स्थिर। सहज = आत्मिक अडोलता। सोगु = शोक। मुए = आत्मिक मौत मरे हुए। माहि = में। भी = फिर, दोबारा।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है वह परमात्मा का भक्त है, उसको सदा कायम रहने वाली आत्मिक अडोलता मिली रहती है, उसको कभी कोई ग़म छू नहीं सकता। पर, हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं (क्योंकि) उनके मन में परमात्मा की याद नहीं है। वह मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़-सहेड़ के जन्मों के चक्करों में पड़े रहते हैं, और बार-बार आत्मिक मौत के चुंगल में फसे रहते हैं।1।

से जन जीवे जिन हरि मन माहि ॥ साचु सम्हालहि साचि समाहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: से जन = वह मनुष्य (बहुवचन)। जीवे = आत्मिक जीवन वाले हैं। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। समालहि = हृदय में सम्भालते हैं। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम बसता है जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु को हृदय में बसाए रखते हैं, सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं, वे मनुष्य आत्मिक जीवन वाले हैं।1। रहाउ।

हरि न सेवहि ते हरि ते दूरि ॥ दिसंतरु भवहि सिरि पावहि धूरि ॥ हरि आपे जन लीए लाइ ॥ तिन सदा सुखु है तिलु न तमाइ ॥२॥

पद्अर्थ: ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। दिसंतरु = (देस+अंतरु) और-और देश। सिरि = सिर पर। धूरि = राख। आपे = आप ही, स्वयं ही। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = तमाय, लालच, लोभ।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, वे परमात्मा से विछुड़े रहते हैं। वे मनुष्य और-और देशों में भटकते फिरते हैं, अपने सिर में मिट्टी डालते हैं (दुखी होते रहते हैं)। हे भाई! अपने भक्तों को प्रभु स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़े रखता है उनको सदा आत्मिक आनंद प्राप्त रहता है, उनको कभी रक्ती भर भी (माया का) लालच नहीं व्यापता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh