श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1173 नदरि करे चूकै अभिमानु ॥ साची दरगह पावै मानु ॥ हरि जीउ वेखै सद हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥३॥ पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। चूकै = समाप्त हो जाता है। मानु = इज्जत। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। कै सबदि = के शब्द से। भरपूरि = व्यापक।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में आदर प्राप्त करता है। गुरु के शब्द के इनायत से वह मनुष्य परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता देखता है, परमात्मा उसको हर जगह बसता दिखाई देता है।3। जीअ जंत की करे प्रतिपाल ॥ गुर परसादी सद सम्हाल ॥ दरि साचै पति सिउ घरि जाइ ॥ नानक नामि वडाई पाइ ॥४॥३॥ पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। घरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के घर में। पति सिउ = इज्जत से। नामि = नाम से। वडाई = इज्जत।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से उस परमात्मा को सदा याद रखता है जो सारे जीवों की पालना करता है वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के घर में इज्जत से जाता है। हे नानक! नाम की इनायत से वह मनुष्य (लोक-परलोक में) आदर पाता है।4।3। बसंतु महला ३ ॥ अंतरि पूजा मन ते होइ ॥ एको वेखै अउरु न कोइ ॥ दूजै लोकी बहुतु दुखु पाइआ ॥ सतिगुरि मैनो एकु दिखाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरि = (उस मनुष्य के) अंदर ही। पूजा = भक्ति। मन ते = मन से, जुड़े मन से। होइ = (होय) होती रहती है। एको = एक (परमात्मा) को ही। दूजै = माया के मोह में (फस के)। लोकी = दुनिया के। सतिगुरि = गुरु ने। मैनो = मुझे।1। अर्थ: हे भाई! (जो भी मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसके) अंदर ही जुड़े मन से परमात्मा की भक्ति होती रहती है, (वह मनुष्य हर जगह) सिर्फ परमात्मा को (बसता) देखता है, (कहीं भी परमात्मा के बिना) किसी और को नहीं देखता। हे भाई! दुनियां ने माया के मोह में फंस के सदा बहुत दुख पाया है, पर गुरु ने (मेहर कर के) मुझे सिर्फ परमात्मा ही (हर जगह बसता) दिखा दिया है (और, मैं दुख से बच गया हूँ)।1। मेरा प्रभु मउलिआ सद बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ गाइ गुण गोबिंद ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मउलिआ = (हर जगह) खिला हुआ है, (हर जगह) प्रकाशमान है। सद बसंतु = सदा खिले रहने वाला परमात्मा। गाइ = गा के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा आनन्द-स्वरूप मेरा परमात्मा (हर जगह) अपना प्रकाश कर रहा है। उस परमात्मा के गुण गा-गा के (मेरा) यह मन सदा खिला रहता है।1। रहाउ। गुर पूछहु तुम्ह करहु बीचारु ॥ तां प्रभ साचे लगै पिआरु ॥ आपु छोडि होहि दासत भाइ ॥ तउ जगजीवनु वसै मनि आइ ॥२॥ पद्अर्थ: गुर पूछहु = गुरु की शिक्षा लो। वीचारु = (परमात्मा के गुणों की) विचार। तां = तब। आपु = स्वै भाव। छोडि = छोड़ के। होहि = अगर तू हो जाए। भाइ = भावना में। दासत = (दासत्व)। शब्द ‘दास’ से भाव वाचक संज्ञा। दासत भाइ = (दासत भाय) सेवक स्वभाव में, दासत्व भाव में। तउ = तब। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु, जगत को पैदा करने वाला प्रभु। मनि = मन में।2। नोट: ‘भाइ’ है शब्द ‘भउ’ का अधिकरण कारक एकवचन। अर्थ: हे भाई! (तुमने भी अगर दुखों से बचना है, तो) गुरु की शिक्षा लो, और, परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसाए रखो, (जब प्रभु को अपने मन में बसाओगे) तब सदा कायम रहने वाला परमात्मा के साथ (तुम्हारा) प्यार बन जाएगा। हे भाई! अगर तू स्वै भाव (अहंकार) छोड़ के सेवक-भाव में टिका रहे, तो जगत को पैदा करने वाला परमात्मा (तेरे) मन में आ बसेगा।2। भगति करे सद वेखै हजूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥ इसु भगती का कोई जाणै भेउ ॥ सभु मेरा प्रभु आतम देउ ॥३॥ पद्अर्थ: भगति = बँदगी। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। रहिआ भरपूरि = सब जगह व्यापक है। कोई = जो कोई मनुष्य। भेउ = भेद। सभु = हर जगह। आतम देउ = परमात्मा।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है, वह परमात्मा को सदा अपने अंग-संग देखता है, प्यारा प्रभु उसको हर जगह व्यापक दिखाई देता है। हे भाई! जो भी मनुष्य परमात्मा की इस भक्ति (के करिश्मे) का भेद समझ लेता है, उसको परमात्मा हर जगह बसता दिखाई दे जाता है।3। आपे सतिगुरु मेलि मिलाए ॥ जगजीवन सिउ आपि चितु लाए ॥ मनु तनु हरिआ सहजि सुभाए ॥ नानक नामि रहे लिव लाए ॥४॥४॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। मेलि = मिला के। मिलाए = (अपने साथ) मिलाता है। सिउ = साथ। लाए = जोड़ता है। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सुभाय, प्यार में। नामि = नाम में। लिव = लगन। रहे लाए = लगाए रखते हैं।4। अर्थ: पर, हे भाई! (भक्ति की दाति उसकी अपनी मेहर से ही मिलती है) जगत का जीवन प्रभु स्वयं ही (मनुष्य को) गुरु मिला के (अपने चरणों में) जोड़ता है, वह स्वयं ही मनुष्य का चिक्त अपने साथ जोड़ता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, उनका मन उनका तन आत्मिक जीवन से भरपूर रहता है।4।4। बसंतु महला ३ ॥ भगति वछलु हरि वसै मनि आइ ॥ गुर किरपा ते सहज सुभाइ ॥ भगति करे विचहु आपु खोइ ॥ तद ही साचि मिलावा होइ ॥१॥ पद्अर्थ: वछलु = (वात्सल्य) प्यारा। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। मनि = मन में। आइ = आ के। ते = से। सहज = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। आपु = स्वै भाव। खोहि = दूर कर के। तद = तब। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से आत्मिक अडोलता में प्रभु के प्यार में लीन रहता है, भक्ति से प्यार करने वाला प्रभु उसके मन में आ बसता है। हे भाई! जब मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव (अहम्) दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है, तब ही सदा-स्थिर परमात्मा में उसका मिलाप हो जाता है।1। भगत सोहहि सदा हरि प्रभ दुआरि ॥ गुर कै हेति साचै प्रेम पिआरि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सोहहि = शोभते हैं। प्रभ दुआरि = प्रभु के दर पर। कै हेति = के प्यार में। साचै पिआरि = सदा स्थिर हरि के प्यार में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की बँदगी करने वाले मनुष्य सदा परमात्मा के दर पर शोभते हैं, वे सदा गुरु के प्रेम में सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम में (जुड़े रहते हैं)।1। रहाउ। भगति करे सो जनु निरमलु होइ ॥ गुर सबदी विचहु हउमै खोइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥ सदा सांति सुखि सहजि समाइ ॥२॥ पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र जीवन वाला। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से अपने अंदर से अहंकार दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है। प्रभु स्वयं उसके मन में आ बसता है, उसके अंदर शांति बनी रहती है, वह सदा आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।2। साचि रते तिन सद बसंत ॥ मनु तनु हरिआ रवि गुण गुविंद ॥ बिनु नावै सूका संसारु ॥ अगनि त्रिसना जलै वारो वार ॥३॥ पद्अर्थ: रते = रंगे हुए। सद बसंत = सदा कायम रहने वाला खिड़ाव। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। रवि = स्मरण करके। सूका = आत्मिक जीवन से वंचित। वारो वार = बार बार।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु (के प्यार) में रंगे जाते हैं, उनके अंदर सदा उल्लास बना रहता है (मन सदा प्रफुल्लित रहता है)। गोबिंद के गुण याद कर-कर के उनका मन उनका तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना जगत बहुत छोटे आकार का बना रहता है, बार-बार (माया की) तृष्णा की आग में जलता रहता है।3। सोई करे जि हरि जीउ भावै ॥ सदा सुखु सरीरि भाणै चितु लावै ॥ अपणा प्रभु सेवे सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु वसै मनि आइ ॥४॥५॥ पद्अर्थ: जि = जो बात, जो कुछ। भावै = पसंद आती है। सरीरि = शरीर में। भाणै = (प्रभु की) रज़ा में। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सुभाइ = प्रभु के प्रेम में।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य वही कुछ करता है जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है (जो मनुष्य प्रभु की रज़ा में चलता है), जो मनुष्य परमात्मा की मर्जी में अपना चिक्त जोड़ता है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु-प्यार में जुड़ के परमात्मा की भक्ति करता है, परमात्मा का नाम उसके मन में आ बसता है।4।5। बसंतु महला ३ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाए ॥ मनु तनु हरिआ सतिगुर भाए ॥ सफलिओु बिरखु हरि कै दुआरि ॥ साची बाणी नाम पिआरि ॥१॥ पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। सतिगुर भाए = सतिगुर भाय, गुरु के प्यार में (टिक के)। सफलिओ = फल देने वाला। बिरखु = वृक्ष। कै दुआरि = के दर पर। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में। नाम पिआरि = हरि नाम के प्यार में।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) माया का मोह जला देता है, गुरु के प्यार की इनायत से उसका तन आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा में, हरि-नाम के प्यार में (टिक के सदा) परमात्मा के दर पर (प्रभु-चरणों में) टिका रहता है उसका (शरीर-) वृक्ष सफल हो जाता है।1। ए मन हरिआ सहज सुभाइ ॥ सच फलु लागै सतिगुर भाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ए मन = हे मन! (संबोधन)। सहज सुभाइ = आत्मिक अडोलता देने वाले प्रभु प्यार में। सच फलु = सदा स्थिर प्रभु का नाम फल।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! आत्मिक अडोलता देने वाले (गुर-) प्यार में (टिका रह। इस तरह तू) आत्मिक जीवन की तरावट से भरपूर हो जाएगा। हे मन! गुरु के प्यार की इनायत से (शरीर-वृक्ष को) सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम-फल लगता है।1। रहाउ। आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ गुर कै सबदि वेखै सद हजूरि ॥ छाव घणी फूली बनराइ ॥ गुरमुखि बिगसै सहजि सुभाइ ॥२॥ पद्अर्थ: आपे = प्रभु स्वयं ही। कै सबदि = के शब्द से। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। घणी = संघनी। फूली = खिली हुई। बनराइ = बनस्पति। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बिगसै = खिलता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = सुभाय, प्रभु के प्यार में।2। अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द की इनायत से (जो मनुष्य परमात्मा को) सदा अपने अंग-संग बसता देखता है (उसको समझ आ जाती है कि प्रभु) स्वयं ही (किसी को) नजदीक (दिखाई दे रहा है) स्वयं ही (किसी को) दूर बसता लगने लगता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु-प्यार में जुड़ के (सदा) आनंद-भरपूर रहता है (उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि परमात्मा की ज्योति-अग्नि से ही) सारी बनस्पति सघन छाया वाली है और खिली हुई है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |