श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अनदिनु कीरतनु करहि दिन राति ॥ सतिगुरि गवाई विचहु जूठि भरांति ॥ परपंच वेखि रहिआ विसमादु ॥ गुरमुखि पाईऐ नाम प्रसादु ॥३॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। सतिगुरि = गुरु ने। जूठि भरांति = भटकना की जूठ, भटकना की मैल, जूठी भ्रांति। परपंच = जगत पसारा। विसमादु = हैरान। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। प्रसादु = खैर, दान।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की महिमा करते हैं, गुरु ने उनके अंदर से (माया की खातिर) भटकना की मैल दूर कर दी है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने से परमात्मा के नाम की दाति मिलती है (जिसको यह दाति मिलती है वह मनुष्य परमात्मा की रची हुई इस) जगत-खेल को देख के ‘वाह-वाह’ कर उठता है।3।

आपे करता सभि रस भोग ॥ जो किछु करे सोई परु होग ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥ नानक मिलीऐ सबदु कमाइ ॥४॥६॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सभि = सारे। परु होग = जरूर होगा। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = लालच। सबदु कमाइ = शब्द कमा के, गुरु के शब्द अनुसार चल के।4।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा सब जगह व्यापक हो के) स्वयं ही सारे रस भोग रहा है। जो कुछ वह प्रभु करना चाहता है जरूर वही होता है। वह परमात्मा सबसे बड़ा दाता है, उसको स्वयं रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। हे नानक! गुरु के शब्द को अपने जीवन में ढाल के (ही उसको) मिला जा सकता है।4।6।

बसंतु महला ३ ॥ पूरै भागि सचु कार कमावै ॥ एको चेतै फिरि जोनि न आवै ॥ सफल जनमु इसु जग महि आइआ ॥ साचि नामि सहजि समाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: पूरे भागि = बड़ी किस्मत से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचु कार = सदा स्थिर हरि नाम (स्मरण की) कार। एको = एक परमात्मा को। चेतै = याद करता है। सफल = कामयाब। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले हरि नाम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य बड़ी किस्मत से सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण का कर्म करता है, जो मनुष्य सिर्फ एक परमात्मा को ही चिक्त में टिकाता है, वह बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता। इस जगत में आया हुआ वह मनुष्य सफल जिंदगी वाला है, जो सदा-स्थिर हरि-नाम में आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1।

गुरमुखि कार करहु लिव लाइ ॥ हरि नामु सेवहु विचहु आपु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। सेवहु = स्मरण करो। आपु = स्वै भाव।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। गुरु की शरण पड़ कर तवज्जो जोड़ कर कर्म करते रहा करो।1। रहाउ।

तिसु जन की है साची बाणी ॥ गुर कै सबदि जग माहि समाणी ॥ चहु जुग पसरी साची सोइ ॥ नामि रता जनु परगटु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: साची बाणी = सदा कायम रहने वाली महिमा की वाणी। कै सबदि = के शब्द से। पसरी = बिखरी हुई है। सोइ = सोय, शोभा। नामि = नाम में। रता = रंगा हुआ। जनु = भक्त।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा गुरु के शब्द में लीन रहता है, उस मनुष्य की टेक सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वह वाणी बन जाती है जो सारे जगत में (जीवन-लौ बन के) समाई हुई है। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगा हुआ मनुष्य (जगत में) प्रसिद्ध हो जाता है, उसकी अटल शोभा चारों युगों में पसरी रहती है।2।

इकि साचै सबदि रहे लिव लाइ ॥ से जन साचे साचै भाइ ॥ साचु धिआइनि देखि हजूरि ॥ संत जना की पग पंकज धूरि ॥३॥

पद्अर्थ: इकि = कई। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। साचै भाइ = साचै भाय, सदा स्थिर प्रभु के प्यार में। साचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। देखि = देख के। हजूरि = अंग संग (बसता)। पंकज = कमल का फूल। पग = पैर। पग पंकज = कमल फूल जैसे सुंदर चरण।3।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! कई ऐसे मनुष्य हैं जो सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में तवज्जो जोड़ के रखते हैं। सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम में टिक के वे मनुष्य सदा-स्थिर-प्रभु का रूप हो जाते हैं। वे मनुष्य सदा-स्थिर-प्रभु को अपने अंग-संग बसता देख के उसका नाम स्मरण करते रहते हैं, और संत-जनों के सुंदर चरणों की धूल (अपने माथे पर लगाते हैं)।3।

एको करता अवरु न कोइ ॥ गुर सबदी मेलावा होइ ॥ जिनि सचु सेविआ तिनि रसु पाइआ ॥ नानक सहजे नामि समाइआ ॥४॥७॥

पद्अर्थ: गुर सबदी = गुरु के शब्द से। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सेविआ = स्मरण किया। तिनि = उस ने (एकवचन)। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।4।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण किया है, उसने आत्मिक आनंद पाया है, वह सदा आत्मिक अडोलता में हरि-नाम में लीन रहता है। गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के साथ) उसका मिलाप हो जाता है। उसको (हर जगह) एक कर्तार ही दिखाई देता है, उसके बिना कोई और उसको नज़र नहीं आता।4।7।

बसंतु महला ३ ॥ भगति करहि जन देखि हजूरि ॥ संत जना की पग पंकज धूरि ॥ हरि सेती सद रहहि लिव लाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बुझाइ ॥१॥

पद्अर्थ: करहि = करते हैं (बहुवचन)। जन = सेवक (बहुवचन)। देखि = देख के। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। पग = चरण। पंकज = कमल फूल (पंक = कीचड़। ज = पैदा हुआ)। सेती = साथ। सद = सदा। लिव = लगन। सतिगुरि = गुरु ने।1।

अर्थ: हे भाई! भक्त-जन परमात्मा को अंग-संग बसता देख के उसकी भक्ति करते हैं, संत-जनों के सुंदर चरणों की धूल (अपने माथे पर लगाते हैं) वे सदा परमात्मा के साथ तवज्जो जोड़ के रखते हैं। पूरे गुरु ने उन्हें ये समझ बख्शी होती है।1।

दासा का दासु विरला कोई होइ ॥ ऊतम पदवी पावै सोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पदवी = आत्मिक दर्जा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य (परमात्मा के) सेवकों का सेवक बनता है, (जो मनुष्य बनता है) वह श्रेष्ठ आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

एको सेवहु अवरु न कोइ ॥ जितु सेविऐ सदा सुखु होइ ॥ ना ओहु मरै न आवै जाइ ॥ तिसु बिनु अवरु सेवी किउ माइ ॥२॥

पद्अर्थ: सेवहु = स्मरण करो। जितु = जिससे। जितु सेविऐ = जिसकी भक्ति से। आवै = पैदा होता है। जाइ = जाए, मरता है। अवरु = अन्य। सेवी = मैं सेवा करूँ। माइ = माय, हे माँ!।2।

अर्थ: हे भाई! उस एक परमात्मा की भक्ति किया करो, जिस जैसा और कोई नहीं है, और जिसकी भक्ति करने से सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे (मेरी) माँ! वह परमात्मा ना कभी मरता है, ना जनम-मरण के चक्कर में पड़ता है। मैं उसके बिना किसी और की भक्ति क्यों करूँ?।2।

से जन साचे जिनी साचु पछाणिआ ॥ आपु मारि सहजे नामि समाणिआ ॥ गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ मनु निरमलु निरमल सचु सोइ ॥३॥

पद्अर्थ: साचे = अटल जीवन वाले, सदा स्थिर प्रभु का रूप। साचु = सदा स्थिर प्रभु। पछाणिआ = सांझ डाली। आपु = स्वै भाव। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। सचु सोइ = वह सदा स्थिर प्रभु।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाल ली, वे अटल जीवन वाले हो गए। वे मनुष्य स्वै भाव गवा के आत्मिक अडोलता में हरि-नाम में लीन रहते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम गुरु की शरण पड़ने से मिलता है, (जिसको मिलता है उसका) मन पवित्र हो जाता है, (उसको) सदा-स्थिर और पवित्र परमात्मा (ही हर जगह दिखता है)।3।

जिनि गिआनु कीआ तिसु हरि तू जाणु ॥ साच सबदि प्रभु एकु सिञाणु ॥ हरि रसु चाखै तां सुधि होइ ॥ नानक नामि रते सचु सोइ ॥४॥८॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। जाणु = सांझ डाल ले। साच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। सिञांणु = सिंझाण = सांझ डाल। सुधि = सूझ। नामि रते = नाम में रंग के।4।

अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (तेरे अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा की है, उसके साथ सदा गहरी सांझ डाले रख। उस सदा-स्थिर-प्रभु की महिमा की वाणी उस एक परमात्मा के साथ जान-पहचान बनाए रख। हे नानक! जब मनुष्य परमात्मा के नाम का स्वाद रखता है तब (उसके आत्मिक जीवन की) समझ प्राप्त हो जाती है। नाम में रंग के वह सदा-स्थिर-प्रभु (उसको हर जगह बसा हुआ दिखता है)।4।8।

बसंतु महला ३ ॥ नामि रते कुलां का करहि उधारु ॥ साची बाणी नाम पिआरु ॥ मनमुख भूले काहे आए ॥ नामहु भूले जनमु गवाए ॥१॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। करहि = करते हैं (बहुवचन)। उधारु = पार उतारा। साची बाणी = सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा। नाम पिआरु = नाम का प्यार। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। काहे आए = क्यों आए? (भाव, जीवन व्यर्थ गवा गए)। भूले = कुमार्ग पर पड़े रहे। नामहु = नाम से। गवाए = गवा के।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य (अपनी सारी) कुलों का (भी) पार-उतारा कर लेते हैं। सदा-स्थिर-प्रभु की महिमा (उनके हृदय में टिकी रहती है), हरि-नाम का प्यार (उनके मन में बसा रहता है)।

पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, नाम से टूट के जीवन व्यर्थ गवा के वे जगत में जैसे आए जैसे ना आए।1।

जीवत मरै मरि मरणु सवारै ॥ गुर कै सबदि साचु उर धारै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीवत मरै = जीवित मरता है, दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ विकारों की तरफ से मर जाता है अर्थात विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। मरि = मर के, विकारों से बचा रह के। मरणु = मौत, विकारों के प्रति मौत, विकारों की मार से बचा हुआ जीवन। सवारै = सुंदर बना लेता है। कै सबदि = के शब्द से। साचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। उर = हृदय।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा सदा कायम रहने वाले हरि-नाम को अपने हृदय में बसाता है, वह मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से बचा रहता है। विकारों के प्रति मर के वह मनुष्य विकारों से बचे हुए अपने जीवन को सुंदर बना लेता है।1। रहाउ।

गुरमुखि सचु भोजनु पवितु सरीरा ॥ मनु निरमलु सद गुणी गहीरा ॥ जमै मरै न आवै जाइ ॥ गुर परसादी साचि समाइ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सचु = सदा-स्थिर हरि नाम। भोजनु = (आत्मिक जीवन की) खुराक। सद = सदा। गुणी गहीरा = गुणों के मालिक गहरे जिगरे वाला प्रभु। परसादी = कृपा से। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम को (अपने आत्मिक जीवन की) खुराक बनाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, उसका मन पवित्र हो जाता है। गुणों का मालिक गहरे जिगरे वाला हरि सदा (सदा उसके अंदर बसता है)। वह मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, गुरु की कृपा से वह सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh