श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1175 साचा सेवहु साचु पछाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ दरि साचै सचु सोभा होइ ॥ निज घरि वासा पावै सोइ ॥३॥ पद्अर्थ: सेवहु = स्मरण किया करो। पछाणै = सांझ डालता है। दरि = दर पर। नीसाणै = निशान, राहदारी, परवाना। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। निज घरि = अपने घर में।3। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले प्रभु की भक्ति किया करो। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा सदा-स्थिर-प्रभु के साथ सांझ डालता है, परमात्मा के दर पर उसको आदर मिलता है। सदा-स्थिर हरि-नाम (जिसके मन में बसता है) सदा-स्थिर-प्रभु के दर पर उसकी शोभा होती है। वह मनुष्य अपने घर में टिका रहता है (भटकना से बचा रहता है)।3। आपि अभुलु सचा सचु सोइ ॥ होरि सभि भूलहि दूजै पति खोइ ॥ साचा सेवहु साची बाणी ॥ नानक नामे साचि समाणी ॥४॥९॥ पद्अर्थ: होरि = अन्य, और। सभि = सारे। भूलहि = गलत राह पड़े रहते हैं। दूजै = माया (के प्यार) में। पति = इज्जत। खोइ = गवा के। नामे = नाम से।4। नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं भूलें करने वाला नहीं। और सारे जीव माया के मोह में इज्जत गवा के (जिंदगी के) गलत राह पर पड़े रहते हैं। हे भाई! सदा-स्थिर-प्रभु की भक्ति करते रहा करो। हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा (टिकी रहती है) उस मनुष्य की तवज्जो सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहती है।4।9। बसंतु महला ३ ॥ बिनु करमा सभ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि बहुतु दुखु पाई ॥ मनमुख अंधे ठउर न पाई ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि समाई ॥१॥ पद्अर्थ: करमा = करम, बख्शिश, मेहर। सभ = सारी लोकाई। भरमि = भटकना ने। भुलाई = गलत राह पर डाल रखी है। मोहि = मोह में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधे = (आत्मिक जीवन से) अंधे। ठउर = शांति का ठिकाना।1। अर्थ: हे भाई! प्रभु की बख्शिश के बिना सारी (लोकाई) को भटकना में गलत राह पर डाल रखा है, माया के मोह में फंस के (लोकाई) बहुत दुख पाती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (माया के मोह में) अंधे हुए रहते हैं। (मोह-ग्रसित मनुष्य) आत्मिक शांति का ठिकाना प्राप्त नहीं कर सकता (विकारों में ही फसा रहता है, जैसे) गंदगी का कीड़ा गंदगी में ही मस्त रहता है।1। हुकमु मंने सो जनु परवाणु ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: परवाणु = (प्रभु के दर पर) स्वीकार। कै सबदि = के शब्द में। नामि = नाम में। नीसाणु = परवाना, राहदारी, आदर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (परमात्मा की) रज़ा को (मीठा करके) मानता है, गुरु के शब्द से परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है, आदर प्राप्त करता है।1। रहाउ। साचि रते जिन्हा धुरि लिखि पाइआ ॥ हरि का नामु सदा मनि भाइआ ॥ सतिगुर की बाणी सदा सुखु होइ ॥ जोती जोति मिलाए सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: साचि = सदा स्थिर हरि नाम। रते = रंगे हुए। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के। मनि = मन मे। भाइआ = भाया, प्यारा लगा। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = जीवात्मा।2। अर्थ: हे भाई! जिस के माथे पर धुर-दरगाह से भक्ति का लेख लिखा होता है, वे सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगे रहते हैं। परमात्मा का नाम सदा उनको अपने मन में प्यारा लगता है। गुरु की वाणी की इनायत से उनके अंदर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है, वाणी उनकी जिंद को परमात्मा की ज्योति में मिला देती है।2। एकु नामु तारे संसारु ॥ गुर परसादी नाम पिआरु ॥ बिनु नामै मुकति किनै न पाई ॥ पूरे गुर ते नामु पलै पाई ॥३॥ पद्अर्थ: तारे = पार लंघाता है। परसादी = कृपा से। नाम पिआरु = नाम का प्यार। मुकति = विकारों से मुक्ति। ते = से। पलै पाई = प्राप्त करता है।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जगत को (विकारों भरे समुंदर से) पार लंघाता है, पर नाम का प्यार गुरु की कृपा से बनता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना किसी मनुष्य ने विकारों से मुक्ति हासिल नहीं की। नाम पूरे गुरु से मिलता है।3। सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ सतिगुर सेवा नामु द्रिड़्हाए ॥ जिन इकु जाता से जन परवाणु ॥ नानक नामि रते दरि नीसाणु ॥४॥१०॥ पद्अर्थ: बूझै = समझता है। बुझाए = समझ बख्शता है। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। जाता = गहरी सांझ डाल ली। से जन = वह मनुष्य (बहुवचन)। दरि = प्रभु के दर पर।4। अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन का सही रास्ता) वह मनुष्य समझता है जिसको परमात्मा स्वयं समझाता है, परमात्मा उसको गुरु की शरण डाल के उसके हृदय में अपना नाम दृढ़ करवाता है। हे नानक! जिन्होंने एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली, वे परमात्मा के दर पर स्वीकार हो गए, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे गए, परमात्मा के दर पर उनको आदर मिला।4।10। बसंतु महला ३ ॥ क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ आपे आपि वसै मनि आए ॥ निहचल मति सदा मन धीर ॥ हरि गुण गावै गुणी गहीर ॥१॥ पद्अर्थ: करे = (परमात्मा) करता है। आपे = स्वयं ही। मनि = मन में। आए = आ के। निहचल = ना डोलने वाली। मन धीर = मन की धीरज। गावै = गाता है। गुणी गहीर हरि गुण = गुणों के खजाने और बड़े जिग्ररे वाले हरि के गुण।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरु मिलाता है (और गुरु के द्वारा) स्वयं ही उसके मन में आ बसता है। वह मनुष्य गुणों के खजाने बड़े जिगरे वाले हरि के गुण गाता रहता है (जिसकी इनायत से उसकी) मति (विकारों के हमलों के प्रति) अडोल रहती है, उसके मन में सदा धैर्य बना रहता है।1। नामहु भूले मरहि बिखु खाइ ॥ ब्रिथा जनमु फिरि आवहि जाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नामहु = नाम से। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का) जहर। खाइ = खाय, खा के। जाइ = जाए, जा के, मर के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटे हुए मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का) जहर खा के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, उनकी जिंदगी व्यर्थ चली जाती है, बार-बार जूनियों में पड़े रहते हैं।1। रहाउ। बहु भेख करहि मनि सांति न होइ ॥ बहु अभिमानि अपणी पति खोइ ॥ से वडभागी जिन सबदु पछाणिआ ॥ बाहरि जादा घर महि आणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: सांति = अडोलता। अभिमानि = अहंकार के कारण। पति = इज्जत। खोइ = गवा लेता है। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। जांदा = भटकता (मन)। आणिआ = ले आए।2। अर्थ: हे भाई! (नाम में टूट के जो मनुष्य निरे) कई धार्मिकभेष करते हैं उनके मन में शांति नहीं आ सकती। (बल्कि भेस के) बहुत अहंकार के कारण (भेखधारी मनुष्य लोक-परलोक में) अपनी इज्जत गवा लेता है। हे भाई! वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरु के शब्द से गहरी सांझ डाल ली है (और, शब्द की इनायत से अपने) बाहर भटकते मन को अंदर की ओर मोड़ के ले आते हैं।2। घर महि वसतु अगम अपारा ॥ गुरमति खोजहि सबदि बीचारा ॥ नामु नव निधि पाई घर ही माहि ॥ सदा रंगि राते सचि समाहि ॥३॥ पद्अर्थ: वसतु = हरि नाम पदार्थ। अगम अपारा वसतु = अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत हरि का नाम पदार्थ। खोजहि = तलाशते हैं। सबदि = शब्द से। बीचारा = प्रभु के गुणों की विचार। नव निधि = (धरती के सारे) नौ ही खजाने। रंगि = (प्रेम) रंग में। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में।3। अर्थ: हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम पदार्थ (मनुष्य के) हृदय में ही बसता है। गुरु की मति पर चल के गुरु के शब्द द्वारा (परमात्मा के गुणों की) विचार करके (जो मनुष्य नाम-पदार्थ की) तलाश करते हैं, उन्होंने (धरती के) नौ-खजानों के तूल्य हरि-नाम को अपने हृदय में ही पा लिया। वे मनुष्य सदा प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहते हैं।3। आपि करे किछु करणु न जाइ ॥ आपे भावै लए मिलाइ ॥ तिस ते नेड़ै नाही को दूरि ॥ नानक नामि रहिआ भरपूरि ॥४॥११॥ पद्अर्थ: करणु न जाइ = किया नहीं जा सकता। भावै = अच्छा लगता है। ते = से। नामि = नाम में। को = कोई जीव।4। नोट: ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: पर, हे भाई! (नाम से टूटे रहना व नाम में लीन रहना- ये सब कुछ) परमात्मा स्वयं ही करता है (जीव द्वारा अपने आप) कुछ नहीं किया जा सकता। जिस पर प्रभु स्वयं ही मेहर करता है उसको अपने साथ जोड़ लेता है। (अपने उद्यम के आसरे) ना कोई मनुष्य उसके नज़दीक है, ना कोई मनुष्य उससे दूर है। हे नानक! (जो मनुष्य उसकी मेहर से उसके) नाम में टिक जाता है, उसको वह हर जगह व्यापक दिखता है।4।11। बसंतु महला ३ ॥ गुर सबदी हरि चेति सुभाइ ॥ राम नाम रसि रहै अघाइ ॥ कोट कोटंतर के पाप जलि जाहि ॥ जीवत मरहि हरि नामि समाहि ॥१॥ पद्अर्थ: सबदी = शब्द से। चेति = चेत के, स्मरण करके। सुभाइ = सुभाय, प्यार से। रसि = रस से। रहै अघाइ = (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। कोट = किले, शरीर किले। कोट कोटंतर के = कोट कोट अंतर के, और-और किलों के, अनेक शरीर किलों के, अनेक जन्मों के। जलि जाहि = जल जाते हैं। जीवत मरहि = दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए विकारों से अडोल रहते हैं। नामि = नाम में।1। नोट: ‘कोट’ है ‘कोटु’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से प्रेम से परमात्मा को याद कर-कर के, मनुष्य हरि-नाम के स्वाद की इनायत से (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। जो मनुष्य हरि-नाम में लीन रहते हैं, वे दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए ही माया के मोह से बचे रहते हैं, उनके अनेक जन्मों के पाप जल जाते हैं।1। हरि की दाति हरि जीउ जाणै ॥ गुर कै सबदि इहु मनु मउलिआ हरि गुणदाता नामु वखाणै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जाणै = जानता है (एकवचन)। मउलिआ = खिला हुआ, आत्मिक जीवन से भरपूर। वखाणै = (वह मनुष्य) उचारता है। हरि गुण दाता नामु = हरि के गुण (हृदय में) पैदा करने वाला हरि नाम।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही जानता है कि अपने नाम की दाति किसको देनी है। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु के गुणों की बख्शिश करने वाला हरि-नाम उचारता है, उसका ये मन आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ। भगवै वेसि भ्रमि मुकति न होइ ॥ बहु संजमि सांति न पावै कोइ ॥ गुरमति नामु परापति होइ ॥ वडभागी हरि पावै सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: वेसि = वेश से, भेस से। भ्रमि = (धरती पर) भ्रमण कर कर के। मुकति = विकारों से मुक्ति। संजमि = संयम से, कठिन तपों से, सिर्फ विकारों से बचने के प्रयत्नों से। सोइ = वह मनुष्य।2। अर्थ: हे भाई! भगवे रंगों के भेस से (धरती पर) भ्रमण करने से विकारों से खलासी नहीं होती। कठिन तपस्या से निरे विकारों के प्रयत्नों से भी कोई मनुष्य आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर सकता। जो मनुष्य गुरु की मति लेता है, उसको प्रभु का नाम प्राप्त होता है, वह भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा को मिल जाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |