श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1181 बसंतु महला ५ ॥ जीअ प्राण तुम्ह पिंड दीन्ह ॥ मुगध सुंदर धारि जोति कीन्ह ॥ सभि जाचिक प्रभ तुम्ह दइआल ॥ नामु जपत होवत निहाल ॥१॥ पद्अर्थ: जीअ = जिंद। पिंडु = शरीर। मुगध = मूर्ख। धारि = धार के, टिका के। सभि = सारे (जीव)। जाचिक = भिखारी। निहाल = प्रसन्न चिक्त।1। अर्थ: हे प्रभु! (सब जीवों को) जिंद, प्राण, शरीर तूने ही दिए हैं। अपनी ज्योति तूने (शरीरों में) टिका के मूर्खों को सुंदर बना दिया है। हे प्रभु! सारे जीव (तेरे दर पर) भिखारी हैं, तू सब के ऊपर दया करने वाला है। तेरा नाम जपते हुए जीव प्रसन्न-चिक्त हो जाते हैं।1। मेरे प्रीतम कारण करण जोग ॥ हउ पावउ तुम ते सगल थोक ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! करण = जगत। जोग = सामर्थ्य वाला। हउ = मैं। पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य वाले! हे मेरे प्रीतम! मैं तेरे दास से सारे पदार्थ हासिल कर सकता हूँ।1। रहाउ। नामु जपत होवत उधार ॥ नामु जपत सुख सहज सार ॥ नामु जपत पति सोभा होइ ॥ नामु जपत बिघनु नाही कोइ ॥२॥ पद्अर्थ: उधार = पार उतारा। सहज = आत्मिक अडोलता। पति = इज्जत। बिघनु = रुकावट।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (जगत से) पार-उतारा होता है, आत्मिक अडोलता के श्रेष्ठ सुख प्राप्त हो जाते हैं, (लोक-परलोक में) इज्जत शोभा मिलती है, (जीवन-यात्रा में विकारों से) कोई रुकावट नहीं पड़ती।2। जा कारणि इह दुलभ देह ॥ सो बोलु मेरे प्रभू देहि ॥ साधसंगति महि इहु बिस्रामु ॥ सदा रिदै जपी प्रभ तेरो नामु ॥३॥ पद्अर्थ: जा कारणि = जा बोल कारणि, जिस हरि नाम की खातिर। दुलभ = मुश्किलों से मिलने वाली। देह = शरीर। प्रभ = हे प्रभु! बिस्रामु = टिकाणा। रिदै = हृदय में। जपी = मैं जपूँ। प्रभ = हे प्रभु!।3। अर्थ: हे मेरे प्रभु! जिस हरि-नाम को जपने के लिए (तेरा मेहर से) ये दुर्लभ मनुष्य-शरीर मिला हुआ है, वह हरि-नाम मुझे बख्श। (मेरा) यह (मन) साधु-संगत में ठिकाना प्राप्त किए रहें। हे प्रभु! (मेहर कर) मैं सदा तेरा नाम जपता रहूँ।3। तुझ बिनु दूजा कोइ नाहि ॥ सभु तेरो खेलु तुझ महि समाहि ॥ जिउ भावै तिउ राखि ले ॥ सुखु नानक पूरा गुरु मिले ॥४॥४॥ पद्अर्थ: सभु खेलु = सारा जगत तमाशा। समाहि = (सारे जीव) लीन हो जाते हैं (बहुवचन)।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरे बिना मेरा कोई और (आसरा) नहीं है। ये सारा जगत-तमाशा तेरा ही बनाया हुआ है। सारे जीव तेरे में ही लीन हो जाते हैं। जैसे तुझे अच्छा लगे (मेरी) रक्षा कर। हे नानक! जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, उासको आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।4।4। बसंतु महला ५ ॥ प्रभ प्रीतम मेरै संगि राइ ॥ जिसहि देखि हउ जीवा माइ ॥ जा कै सिमरनि दुखु न होइ ॥ करि दइआ मिलावहु तिसहि मोहि ॥१॥ पद्अर्थ: मेरै संगि = मेरे साथ। राइ = राजा, बादशाह। देखि = देख के। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। माइ = (माय) हे माँ! सिमरनि = स्मरण से। जा कै सिमरनि = जिस के स्मरण से। मोहि = मुझे। करि = कर के।1। नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे माँ! प्रीतम प्रभु, प्रभु पातशाह (वैसे तो हर वक्त) मेरे साथ बसता है (पर मुझे दिखाई नहीं देता)। हे माँ! मेहर करके मुझे उस प्रभु से मिला दे, जिसको देख के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर सकूँ, जिसके स्मरण से कोई दुख छू नहीं सकता।1। मेरे प्रीतम प्रान अधार मन ॥ जीउ प्रान सभु तेरो धन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! प्रान अधार मन = हे मेरे प्राणों और मन के आसरे! जीउ = जिंद।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे मेरी जिंद और मन के आसरे प्रभु! मेरी ये जिंद मेरे यह प्राण- सब कुछ तेरा ही दी हुई संपत्ति है।1। रहाउ। जा कउ खोजहि सुरि नर देव ॥ मुनि जन सेख न लहहि भेव ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ घटि घटि घटि घटि रहिआ समाइ ॥२॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (परमात्मा) को। सुरि नर = देवी गुणों वाले मनुष्य। देव = देवता। सेख = शेष नाग। न लहहि = नहीं पा सकते (बहुवचन)। भेव = भेद। गति = हालत। मिति = माप। जा की गति मिति = जिसकी आत्मिक उच्चता और जिसका बड़प्पन। घटि घटि = हरेक शरीर में।2। अर्थ: हे माँ! जिस परमात्मा को दैवी गुणों वाले मनुष्य और देवते तलाशते रहते हैं, जिसका भेद मुनि जन और शेष-नाग भी नहीं पा सकते, जिसकी उच्च आत्मिक अवस्था और बड़प्पन बयान नहीं किए जा सकते, हे माँ! वह परमात्मा हरेक शरीर में व्याप रहा है।2। जा के भगत आनंद मै ॥ जा के भगत कउ नाही खै ॥ जा के भगत कउ नाही भै ॥ जा के भगत कउ सदा जै ॥३॥ पद्अर्थ: आनंद मै = आनंदमय, आनन्द स्वरूप, आनंद भरपूर। खै = क्षय, नाश, आत्मिक मौत। भै = दुनिया के डर। जै = जीत, विकारों से मुकाबले में विजय।3। अर्थ: हे माँ! जिस परमात्मा के भक्त सदा आनंद-भरपूर रहते हैं, जिस परमात्मा के भक्तों को कभी आत्मिक मौत नहीं आती, जिस परमात्मा के भक्तों को (दुनिया का कोई) डर सता नहीं सकता, जिस परमात्मा के भक्तों की (विकारों के मुकाबले में) सदा जीत होती है (वह परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है)।3। कउन उपमा तेरी कही जाइ ॥ सुखदाता प्रभु रहिओ समाइ ॥ नानकु जाचै एकु दानु ॥ करि किरपा मोहि देहु नामु ॥४॥५॥ पद्अर्थ: उपमा = कीर्ति, बड़ाई। रहिओ समाइ = सब जगह मौजूद है। जाचै = जाचना करता है, माँगता है। दानु = ख़ैर। मोहि = मुझे।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरी कोई उपमा कही नहीं जा सकती (तेरे जैसा कोई कहा नहीं जा सकता)। तू (सब जीवों को) सुख देने वाला मालिक है, तू हर जगह मौजूद है। हे प्रभु! (तेरे पास से) एक ख़ैर माँगता हूँ- मेहर करके मुझे अपना नाम बख्श।4।5। बसंतु महला ५ ॥ मिलि पाणी जिउ हरे बूट ॥ साधसंगति तिउ हउमै छूट ॥ जैसी दासे धीर मीर ॥ तैसे उधारन गुरह पीर ॥१॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। बूट = पौधे। छूट = समाप्त हो जाती है। दासे = दास को। धीर = धैर्य, हौसला, सहारा। मीर = मालिक (का)। गुरह पीर = गुरु पीर। उधारन = उद्धार के लिए आसरा।1। अर्थ: हे भाई! जैसे पानी को मिल के पौधे हरे हो जाते हैं (और, उसका सूखापन समाप्त हो जाता है) वैसे ही साधु-संगत में मिल के (मनुष्य के अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है। हे भाई! जैसे किसी दास को अपने मालिक का धैर्य होता है, वैक्से ही गुरु-पीर (जीवों को) पार उतारने के लिए आसरा होता है।1। तुम दाते प्रभ देनहार ॥ निमख निमख तिसु नमसकार ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: देनहार = सब कुछ दे सकने वाले। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। तिसु = उस (परमात्मा) को।1। रहाउ। नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे प्रभु! तू (जीवों को) सब कुछ दे सकने वाला दातार है। हे भाई! मैं पल-पल उस (दातार प्रभु) को नमस्कार करता हूँ।1। रहाउ। जिसहि परापति साधसंगु ॥ तिसु जन लागा पारब्रहम रंगु ॥ ते बंधन ते भए मुकति ॥ भगत अराधहि जोग जुगति ॥२॥ पद्अर्थ: साध संगु = गुरु का साथ। रंगु = प्यार। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। ते = से। बंधन ते = माया के मोह के बंधनो से। अराधहि = जपते हैं, स्मरण करते हैं। जोग = मिलाप। जोग जुगति = परमात्मा के साथ मिलाप का तरीका।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की संगति प्राप्त होती है, उस मनुष्य (के मन) को परमात्मा का प्रेम-रंग चढ़ जाता है। हे भाई! (जिस मनुष्यों को नाम-रंग चढ़ जाता है) वे मनुष्य माया के मोह के बंधनो से मुक्ति हासिल कर लेते हैं। परमात्थ्मा के भक्त परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं: यही उसके साथ मिलाप का सही तरीका है।2। नेत्र संतोखे दरसु पेखि ॥ रसना गाए गुण अनेक ॥ त्रिसना बूझी गुर प्रसादि ॥ मनु आघाना हरि रसहि सुआदि ॥३॥ पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। नेत्र संतोखे = आँखों को (पराया रूप ताकने के ललक से) संतोष आ जाता है। पेखि = देख के। रसना = जीभ। गाए = गाती है। बूझी = मिट जाती है। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। आघाना = तृप्त हो जाता है। हरि रसहि सुआदि = हरि नाम रस के स्वाद से।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन कर के (मनुष्य की) आँखों को (पराया रूप देखने की लालसा खत्म हो जाती है) संतोष आ जाता है। (ज्यों-ज्यों मनुष्य की) जीभ परमात्मा के अनेक गुण गाती है, गुरु की कृपा से (उसके अंदर से माया की) तृष्णा (-अग्नि) बुझ जाती है, उसका मन हरि-नाम-रस के स्वाद से (माया के प्रति) तृप्त हो जाता है।3। सेवकु लागो चरण सेव ॥ आदि पुरख अपर्मपर देव ॥ सगल उधारण तेरो नामु ॥ नानक पाइओ इहु निधानु ॥४॥६॥ पद्अर्थ: आदि = हे सारे जगत के मूल! पुरख = हे सर्व व्यापक! अपरंपर = हे परे से परे! सगल उधारण = सारे जीवों का पार उतारा करने वाले। निधानु = खजाना।4। अर्थ: हे सबके आदि प्रभु! हे सर्व-व्यापक प्रभु! हे परे से परे प्रभु! हे प्रकाश-रूप प्रभु! तेरा नाम सब जीवों का पार-उतारा (उद्धार) करने वाला है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जो तेरा) सेवक (तेरे) चरणों की सेवा में लगता है, उसको (तेरा) ये नाम-खजाना मिल जाता है।4।6। बसंतु महला ५ ॥ तुम बड दाते दे रहे ॥ जीअ प्राण महि रवि रहे ॥ दीने सगले भोजन खान ॥ मोहि निरगुन इकु गुनु न जान ॥१॥ पद्अर्थ: दे रहे = (दातें) दे रहा है। रवि रहे = मौजूद है, व्यापक है। खान = खाने के लिए। मोहि निरगुन = मैं गुणहीन ने। गुनु = उपकार। न जान = नहीं समझा।1। अर्थ: हे प्रभु! तू सबसे बड़ा दाता है, (सब जीवों को तू सब पदार्थ) दे रहा है, तू सबकी जिंद में सबके प्राणों में व्यापक है। तू खाने के लिए सारे पदार्थ दे रहा है, पर, मैंने गुणहीन ने तेरा एक भी उपकार नहीं समझा।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |