श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु महला ५ घरु १ दुतुके    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

गुरु सेवउ करि नमसकार ॥ आजु हमारै मंगलचार ॥ आजु हमारै महा अनंद ॥ चिंत लथी भेटे गोबिंद ॥१॥

पद्अर्थ: सेवउ = मैं सेवा करता हूँ। करि = कर के। आजु = अब जबकि मैंने प्रभु के गुण गाए हैं। हमारै = मेरे हृदय में। मंगलचार = आनंद का समय। महा = बड़ा। लथी = उतर गई है, दूर हो गई है। भेटै = मिल गए हैं।1।

अर्थ: हे भाई! (गुण गाने की इनायत से) मुझे गोबिंद जी मिल गए हैं, मेरी चिन्ता दूर हो गई है, अब मेरे हृदय में बहुत आनंद बन गया है, अब मेरे अंदर खुशियां ही खुशियां हैं। (हे भाई! यह सारी मेहर गुरु की ही है, इस वास्ते) मैं गुरु के आगे सीस झुका के गुरु की सेवा करता हूँ।1।

आजु हमारै ग्रिहि बसंत ॥ गुन गाए प्रभ तुम्ह बेअंत ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हमारै ग्रिहि = मेरे हृदय घर में। बसंत = खिलाव, खुशी, आत्मिक आनंद। प्रभ बेअंत = हे बेअंत प्रभु! 1। रहाउ।

अर्थ: हे बेअंत प्रभु! जब से मैंने तेरी महिमा के गीत गाने शुरू किए हैं, तब से अब मेरे हृदय-घर में आत्मिक आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

आजु हमारै बने फाग ॥ प्रभ संगी मिलि खेलन लाग ॥ होली कीनी संत सेव ॥ रंगु लागा अति लाल देव ॥२॥

पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय में। फाग = फागुन का महीना, फागुन महीने का त्यौहार, होली। प्रभ संगी = प्रभु के संगी साथी, संत जन। मिलि = मिल के। संत सेव = संत जनों की सेवा। अति = बहुत गाढ़ी। रंगु देव = प्रभु देव के प्यार रंग।2।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की महिमा की इनायत से) मेरे अंदर (मानो) फागुन की होली बनी हुई है, प्रभु के संत-जन (साधु-संगत में) मिल के (ये होली) खेलने लग पड़े हैं। (हे भाई! यह होली क्या है?) संत जनों की सेवा को मैंने होली बनाया है (संतजनों की संगति की इनायत से) मेरे साथ परमात्मा के प्यार का गाढ़ा (आत्मिक) रंग चढ़ गया है।2।

मनु तनु मउलिओ अति अनूप ॥ सूकै नाही छाव धूप ॥ सगली रूती हरिआ होइ ॥ सद बसंत गुर मिले देव ॥३॥

पद्अर्थ: मउलिओ = खिल उठा है, आत्मिक जीवन देने वाला बन गया है। अनूप = सुंदर। सूकै नाही = आत्मिक जीवन की तरावट खत्म नहीं होती। छाव धूप = सुख दुख वक्त। सगली रूती = सारी ऋतुओं में, हर समय। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। गुर मिले देव = गुरुदेव जी मिल गए हैं। सद बसंत = सदा आत्मिक खिलाव।3।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु के गुण गाने की इनायत से) मेरा मन सुंदर खिल उठा है मेरा तन बहुत सुंदर पुल्कित हो गया है। अब सुख हों चाहे दुख हों (मेरे तन में) आत्मिक उमंग की तरावट कभी समाप्त नहीं होती। (अब मेरा मन) सारे समय ही आत्मिक जीवन से भरपूर रहता है। मुझे गुरदेव जी मिल गए हैं, मेरे अंदर सदा खिलाव बना रहता है।3।

बिरखु जमिओ है पारजात ॥ फूल लगे फल रतन भांति ॥ त्रिपति अघाने हरि गुणह गाइ ॥ जन नानक हरि हरि हरि धिआइ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: बिरखु = वृक्ष। जमिओ है = उग गया है। पारजात बिरखु = पारजात वृक्ष, मनोकामना पूरी करने वाला स्वर्ग का वृक्ष। भांति = कई किस्मों के। त्रिपति अघाने = (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। गाइ = गा के। धिआइ = स्मरण करके।4।

अर्थ: हे भाई! (महिमा की इनायत से मेरे अंदर से, जैसे, सारी मनोकामना पूरी करने वाला स्वर्ग वाला) पारजात वृक्ष उग गया है, जिसको भांति-भांति के कीमती फूल और फल लगे हुए हैं। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम स्मरण करके, सदा हरि के गुण गा-गा के (मनुष्य माया के मोह से) पूरी तरह से तृप्त हो जाते हैं।4।1।

बसंतु महला ५ ॥ हटवाणी धन माल हाटु कीतु ॥ जूआरी जूए माहि चीतु ॥ अमली जीवै अमलु खाइ ॥ तिउ हरि जनु जीवै हरि धिआइ ॥१॥

पद्अर्थ: हटवाणी = दुकान दार। हाटु = दुकान। कीतु = करता है। माहि = में। अमली = नशेड़ी, अफीमची। खाइ = खा के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। धिआइ = स्मरण करके। अपनै रंगि = अपने मन भाते स्वाद में।1।

अर्थ: हे भाई! (जैसे कोई) दुकानदार (अपने मन-पसंद के) धन-माल की दुकान चलाता है, (जैसे किसी) जुआरिए का मन जूए में मगन रहता है, जैसे कोई अफीमची अफीम खा के सुख प्रतीत करता है, वैसे परमात्मा का भक्त परमात्मा का नाम स्मरण करके आत्मिक जीवन हासिल करता है।1।

अपनै रंगि सभु को रचै ॥ जितु प्रभि लाइआ तितु तितु लगै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। रचै = मस्त रहता है। जितु = जिस (रंग) में। प्रभि = प्रभु ने। तितु = उस (रंग) में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! हरेक जीव अपने-अपने मन-भाते स्वाद में मस्त रहता है, (पर) प्रभु ने (ही) जिस (स्वाद) में लगाया है, उस उस (स्वाद) में (हरेक जीव) लगा रहता है।1। रहाउ।

मेघ समै मोर निरतिकार ॥ चंद देखि बिगसहि कउलार ॥ माता बारिक देखि अनंद ॥ तिउ हरि जन जीवहि जपि गोबिंद ॥२॥

पद्अर्थ: मेघ = बादल। निरतकार = (नृत्य = to dance) नाच, पैल। देखि = देख के। बिगसहि = खिलती हैं। कउलार = कुसुम। हरि जन = परमात्मा के भक्त। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं (बहुवचन)। जपि = जप के।2।

अर्थ: हे भाई! घटाएं चढ़ती हैं और मोर नृत्य करते हैं, चाँद को देख के कुसम खिलती हैं, (अपने) बच्चे को देख के माँ खुश होती है, वैसे ही परमात्मा का नाम जप के परमात्मा के भक्त आत्मिक उत्साह में आते हैं।2।

सिंघ रुचै सद भोजनु मास ॥ रणु देखि सूरे चित उलास ॥ किरपन कउ अति धन पिआरु ॥ हरि जन कउ हरि हरि आधारु ॥३॥

पद्अर्थ: सिंघ = शेर। रुचै = खुश होता है। सद = सदा। रणु = युद्ध। सूर = शूरवीर। उलास = उल्लास, जोश। किरपन = कंजूस। आधारु = आसरा।3।

अर्थ: हे भाई! मास का भोजन मिले तो शेर सदा खुश होता है, युद्ध देख के शूरवीर के चिक्त को जोश आता है, कंजूस को धन का बहुत लोभ होता है। (वैसे ही) परमात्मा के भक्त को परमात्मा के नाम का आसरा होता है।3।

सरब रंग इक रंग माहि ॥ सरब सुखा सुख हरि कै नाइ ॥ तिसहि परापति इहु निधानु ॥ नानक गुरु जिसु करे दानु ॥४॥२॥

पद्अर्थ: सरब = सारे। इक रंग माहि = एक नाम रंग में। नाइ = नाम रंग में। नाइ = नाम में। हरि के नाइ = हरि के नाम में। तिसहि = उस (मनुष्य) को ही। निधानु = (नामु) खजाना। करे दान = ख़ैर डालता है।4।

नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: पर, हे भाई! (दुनिया के) सारे स्वाद परमात्मा के नाम के स्वाद में ही आ जाते हैं (नाम-रस से घटिया हैं)। सारे बड़े से बड़े सुख परमात्मा के नाम में ही हैं। हे नानक! यह नाम-खजाना उस मनुष्य को ही मिलता है, जिसको गुरु देता है।4।2।

बसंतु महला ५ ॥ तिसु बसंतु जिसु प्रभु क्रिपालु ॥ तिसु बसंतु जिसु गुरु दइआलु ॥ मंगलु तिस कै जिसु एकु कामु ॥ तिसु सद बसंतु जिसु रिदै नामु ॥१॥

पद्अर्थ: बसंतु = खिलाव, उमंग। मंगलु = आनंद, खुशी। तिस कै = उस (मनुष्य) के हृदय में। कामु = काम। सद = सदा। रिदै = हृदय में।1।

नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक खिलाव उस मनुष्य को प्राप्त होता है, जिस पर प्रभु दयावान होता है, जिस पर गुरु दयावान होता है। हे भाई! उस मनुष्य के हृदय में खुशी पैदा होती है, जिसको एक हरि-नाम स्मरण का सदा आहर रहता है। उस मनुष्य को खिलाव सदा ही मिला रहता है जिसके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है।1।

ग्रिहि ता के बसंतु गनी ॥ जा कै कीरतनु हरि धुनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ग्रिहि ता के = उस मनुष्य के हृदय में। गनी = मैं गिनता हूँ, मैं समझता हूँ। जा कै = जिसके हृदय में। कीरतनु = महिमा के गीत। धुनी = धुनि, लगन, प्यार।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं तो उस मनुष्य के हृदय में उमंग (खिड़ाव पैदा हुआ) समझता हूँ, जिसके हृदय में प्रभु की महिमा टिकी हुई है, जिसके हृदय में परमात्मा (के नाम) की लगन है।1। रहाउ।

प्रीति पारब्रहम मउलि मना ॥ गिआनु कमाईऐ पूछि जनां ॥ सो तपसी जिसु साधसंगु ॥ सद धिआनी जिसु गुरहि रंगु ॥२॥

पद्अर्थ: मउलि = खिला रह। मना = हे मन! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। पूछि जनां = संत जनों से पूछ के। साध संगु = गुरु का संग। धिआनी = जुड़े मन वाला। गुरहि रंगु = गुरु का प्यार।2।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा (के चरणों) के साथ प्रीति डाल के सदा खिला रह। हे मन! संत-जनों को पूछ के आत्मिक जीवन की सूझ हासिल की जाती है। हे भाई! (असल) तपस्वी वह मनुष्य है जिसको गुरु की संगति प्राप्त होती है, वह मनुष्य सदा जुड़ी हुई तवज्जो वाला जानो, जिसके अंदर गुर (-चरणों) का प्यार है।2।

से निरभउ जिन्ह भउ पइआ ॥ सो सुखीआ जिसु भ्रमु गइआ ॥ सो इकांती जिसु रिदा थाइ ॥ सोई निहचलु साच ठाइ ॥३॥

पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। भउ = (परमात्मा का) डर। सो = वह मनुष्य (एकवचन)। भ्रमु = भटकना। इकांती = एकांत जगह में रहने वाला। रिदा = हृदय। थाइ = एक जगह पर, शांत। निहचलु = अडोल चिक्त। साच ठाइ = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के चरणों में। ठाइ = जगह में।3।

अर्थ: हे भाई! वह लोग (दुनिया के) डरों से ऊपर हैं जिनके मन में परमात्मा का डर बसता है। वह मनुष्य सुखी जीवन वाला है जिस (के मन) की भटकना दूर हो गई। सिर्फ वह मनुष्य एकांत जगह में रहता है जिसका हृदय शांत है (एक जगह पर टिका हुआ है)। वही मनुष्य अडोल चिक्त वाला है, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है।3।

एका खोजै एक प्रीति ॥ दरसन परसन हीत चीति ॥ हरि रंग रंगा सहजि माणु ॥ नानक दास तिसु जन कुरबाणु ॥४॥३॥

पद्अर्थ: खोजै = खोजता है। परसन = छूह। हीत = हित, चाहत, प्यार। चीति = चिक्त में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। कुरबाणु = सदके।4।

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) मैं उस मनुष्य पर से बलिहार जाता हूँ, जो (हर जगह) एक परमात्मा को ही तलाशता है, जिसके मन में एक परमात्मा का ही प्यार है, जिसके चिक्त में एक प्रभु के दर्शनों की छूह की तमन्ना है, जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के सब रसों से श्रेष्ठ हरि-नाम-रस भोगता है।4।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh