श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1179

जन के सास सास है जेते हरि बिरहि प्रभू हरि बीधे ॥ जिउ जल कमल प्रीति अति भारी बिनु जल देखे सुकलीधे ॥२॥

पद्अर्थ: जेते = जितने भी। है = हैं (बहुवचन)। सास सास = हर सांस के साथ। बिरहि = विरह में, प्यार भरे विछोड़े में। बीधे = भेदे हुए हैं। सुकलीधे = सूख जाता है।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त (की उम्र) की जितनी भी सांसें होती हैं, वे सारी परमात्मा के विरह में भेदित रहती हैं। जैसे कमल के फूल और पानी का बहुत ही गहरा प्यार होता है, पानी के दर्शनों के बिना कमल का फूल सूख जाता है (यही हाल होता है भक्त-जनों का)।2।

जन जपिओ नामु निरंजनु नरहरि उपदेसि गुरू हरि प्रीधे ॥ जनम जनम की हउमै मलु निकसी हरि अम्रिति हरि जलि नीधे ॥३॥

पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = माया के मोह की कालिख) पवित्र। नरहरि = परमात्मा। उपदेसि गुरू = गुरु के अपने उपदेश से। प्रीधे = परोस रखा, सामने दिखा दिया। निकसी = निकल गई, दूर हो गई। जलि = जल से। अंम्रिति जलि = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। नीधे = नहाए, आत्मिक स्नान किया।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा का पवित्र नाम (सदा) जपते हैं। गुरु ने (अपने) उपदेश से उनको परमात्मा के सामने (हर जगह बसता) दिखा दिया होता है। (नाम की इनायत से उनके अंदर से) जन्म-जनमांतरों की अहंकार की मैल दूर हो जाती है। वह आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल में (सदा) स्नान करते रहते हैं।3।

हमरे करम न बिचरहु ठाकुर तुम्ह पैज रखहु अपनीधे ॥ हरि भावै सुणि बिनउ बेनती जन नानक सरणि पवीधे ॥४॥३॥५॥

पद्अर्थ: हमरे = हम जीवों के। ठाकुर = हे ठाकुर! बिचरहु = विचारो। पैज = इज्जत, सत्कार। अपनीधे = अपने दास की। हरि = हे हरि! भावै = यदि तुझे ठीक लगे। बिनउ = (विनय) बिनती। पवीधे = पड़ा है।4।

अर्थ: हे मालिक प्रभु! हम जीवों के (अच्छे-बुरे) कर्म ना विचारने; अपने सेवक दास की तुमने खुद इज्जत रखनी। हे दास नानक! (कह:) जैसे तुझे अच्छा लगे मेरी विनती आरज़ू सुन, मैं तेरी शरण पड़ा हूँ।4।3।5।

बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु घरि नही वासा पाईऐ ॥ गुरि अंकसु सबदु दारू सिरि धारिओ घरि मंदरि आणि वसाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: भरमि भरमि = भटक भटक के। धावै = दौड़ता फिरता है। तिलु = रक्ती भर भी। घरि = घर में, शरीर घर में, एक ठिकाने पर, अडोलता में। वासा = निवास। नह पाईऐ = नहीं पाया जा सकता। गुरि = गुरु ने। अंकसु = हाथी को चलाने वाला लोहे का कुंडा जो महावत के हाथ में होता है। दारू = दवा। सिरि = सिर पर। धारिओ = रखा। घरि = घर में। मंदरि = मन्दिर में। आणि = ला के। वसाईऐ = बसाया जा सकता है।1।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) मन हरेक छिन भटक-भटक के (माया की खातिर) बहुत दौड़ता फिरता है, इस तरह यह रक्ती भर समय के लिए भी अपने शरीर-घर में (स्वै-स्वरूप में) टिक नहीं सकता। (गुरु का) शब्द (मन की भटकना दूर करने के लिए) दवाई (है। जैसे महावत हाथी को वश में रखने के लिए लोहे का डंडा अंकुश उसके सिर पर मारता है, वैसे ही) गुरु ने (जिस मनुष्य के) सिर पर अपना शब्द-अंकुश रख दिया, उसके मन को हृदय-घर में हृदय-मन्दिर में ला के टिका दिया।1।

गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि हरि धिआईऐ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ हरि सहजि समाधि लगाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे प्रभु जी! (संबोधन)। मेलि = मिला। धिआईऐ = ध्याया जा सकता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाधि = जुड़ी हुई तवज्जो/ध्यान।1। रहाउ।

अर्थ: हे गोबिंद जी! (मुझे) साधु-संगत में मिला। (साधु-संगत में मिल के) हे हरि! (तेरा नाम) स्मरण किया जा सकता है। हे हरि! जो मनुष्य (साधु-संगत की इनायत से) आत्मिक अडोलता में तवज्जो जोड़ता है, उसका अहंकार का रोग दूर हो जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।1। रहाउ।

घरि रतन लाल बहु माणक लादे मनु भ्रमिआ लहि न सकाईऐ ॥ जिउ ओडा कूपु गुहज खिन काढै तिउ सतिगुरि वसतु लहाईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: घरि = हृदय घर में। भ्रमिआ = भटकता रहा। ओडा = सेंघा जो धरती को सूँघ के ही बता देता है कि यहाँ पुराना कूआँ मिट्टी के नीचे दबा हुआ है। कूपु = कूआँ। गुहज = छुपा हुआ। खिन = तुरन्त। सतिगुरि = गुरु से। वसतु = नाम पदार्थ। लहाईऐ = पा लेते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! (हरेक मनुष्य के हृदय-) घर में (परमात्मा की महिमा के) अनेक रत्न-लाल मोती भरे हुए हैं। (पर जब तक) मन (माया की खातिर) भटकता फिरता है, तब तक उनको पाया नहीं जा सकता। हे भाई! जैसे कोई सेंघा (धरती में) दबा हुआ (पुराना) कूआँ तुरंत ढूँढ लेता है, वैसे ही (मनुष्य के अंदर छुपा हुआ) नाम-पदारथ गुरु के माध्यम से मिल जाता है।2।

जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते ध्रिगु ध्रिगु नर जीवाईऐ ॥ जनमु पदारथु पुंनि फलु पाइआ कउडी बदलै जाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: जिन = (बहुवचन) जिन्होंने। साधु = साधे हुए मन वाला। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। पुंनि = पुण्य, किए हुए भले कर्मों के कारण। बदलै = की खातिर।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने साधे हुए मन वाला ऐसा गुरु नहीं पाया, उन मनुष्यों का जीना सदा धिक्कार-योग्य ही होता है (वे सदा ऐसे काम ही करते रहते हैं कि उनको जगत में फिटकारें पड़ती रहती हैं)। हे भाई! (ऐसे मनुष्यों ने) कीमती मनुष्य जनम पिछली की नेक कमाई के फल के कारण पा तो लिया, पर अब वह जनम कौड़ी के मोल (व्यर्थ गवाए) जा रहा है।3।

मधुसूदन हरि धारि प्रभ किरपा करि किरपा गुरू मिलाईऐ ॥ जन नानक निरबाण पदु पाइआ मिलि साधू हरि गुण गाईऐ ॥४॥४॥६॥

पद्अर्थ: मधुसूदन = (‘मधु’ राक्षस को मारने वाला) हे दुष्ट दमन परमात्मा! करि = कर के। निरबाण पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती, वासना रहित आत्मिक दर्जा। मिलि साधू = गुरु को मिल के।4।

अर्थ: हे दुष्ट-दमन हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर। कृपा करके (मुझे) गुरु से मिला। हे दास नानक! (कह: जो मनुष्य) गुरु को मिल के परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य ऐसी आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।4।4।6।

बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ आवण जाणु भइआ दुखु बिखिआ देह मनमुख सुंञी सुंञु ॥ राम नामु खिनु पलु नही चेतिआ जमि पकरे कालि सलुंञु ॥१॥

पद्अर्थ: आवण जाणु = जनम मरण का चक्कर। बिखिआ = माया (के मोह के कारण)। देह = शरीर। मनमुख देह = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य का शरीर। सुंञी = सूनी, (काया नाम के) बग़ैर। सुंञु = (नाम से) बग़ैर खालीपन। जमि = जम ने। कालि = काल ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने। सलुंञु = केसों समेत, केसों से।1।

अर्थ: हे भाई! माया (के मोह) के कारण अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का जनम-मरण का चक्कर बना रहता है उन्हें कष्ट बना रहता है, उनका शरीर नाम से वंचित रहता है, उनके अंदर नाम की शुन्यता बनी रहती है। वे मनुष्य परमात्मा का नाम एक छिन के लिए भी एक पल के लिए भी याद नहीं करते। आत्मिक मौत ने हर वक्त उनको सिर से पकड़ा हुआ होता है।1।

गोबिंद जीउ बिखु हउमै ममता मुंञु ॥ सतसंगति गुर की हरि पिआरी मिलि संगति हरि रसु भुंञु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंद जी! (संबोधन)। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। ममता = अपनत्व। मुंञु = दूर कर। मिलि = मिल के। भुंञु = मैं भुंचूँ, मैं भोगूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) गोबिंद जी! (मेरे अंदर से आत्मिक मौत लाने वाली) अहंकार और ममता का जहर दूर कर। हे हरि! साधु-संगत तेरी प्यारी है गुरु की प्यारी है। (मेहर कर) मैं साधु-संगत में मिल के तेरे नाम का रस लेता रहूँ।1। रहाउ।

सतसंगति साध दइआ करि मेलहु सरणागति साधू पंञु ॥ हम डुबदे पाथर काढि लेहु प्रभ तुम्ह दीन दइआल दुख भंञु ॥२॥

पद्अर्थ: सत संगति साध = गुरु की सत्संगति। करि = कर के। साधू = गुरु। पंञु = मैं पड़ा रहूँ। प्रभ = हे प्रभु! दुख भंञु = दुख भंजु, दुखों का नाश करने वाला।2।

अर्थ: हे प्रभु! मेहर कर के (मुझे) गुरु की सत्संगति में मिलाए रख, मैं गुरु की शरण (सदा) पड़ा रहूँ। हे प्रभु! (पापों से भारी) पत्थर (हो चुके) हम जीवों को (पापों में) डूब रहों को निकाल ले। हे प्रभु जी! तुम दीनों पर दया करने वाले हो, तुम हमारे दुख नाश करने वाले हो।2।

हरि उसतति धारहु रिद अंतरि सुआमी सतसंगति मिलि बुधि लंञु ॥ हरि नामै हम प्रीति लगानी हम हरि विटहु घुमि वंञु ॥३॥

पद्अर्थ: उसतति = महिमा। रिद अंतरि = (मेरे) हृदय में। सुआमी = हे स्वामी! बुधि = (मेरी) बुद्धि। लंञु = रौशन हो जाए। हरि नामै = हरि नाम में। विटहु = से। घुमि वंञु = मैं सदके जाता हूँ।3।

अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! (अपनी) महिमा (मेरे) हृदय में बसाए रख। (मेहर कर) तेरी साधु-संगत में मिल के (मेरी) बुद्धि (तेरे नाम की रौशनी से) रौशन हो जाए। हे भाई! परमात्मा के नाम में मेरी प्रीति बन गई है, मैं (अब) परमात्मा से (सदा) सदके जाता हूँ।3।

जन के पूरि मनोरथ हरि प्रभ हरि नामु देवहु हरि लंञु ॥ जन नानक मनि तनि अनदु भइआ है गुरि मंत्रु दीओ हरि भंञु ॥४॥५॥७॥१२॥१८॥७॥३७॥

पद्अर्थ: पूरि = पूरे कर। हरि प्रभ = हे हरि! हे प्रभु! लंञु = (आत्मिक) रौशनी। मनि = मन में। तनि = तन में। गुरि = गुरु ने। हरि भंञु = हरि भजन, हरि नाम।4।

अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! (मुझ) सेवक के उद्देश्य पूरे कर, मुझे अपना नाम बख्श, (तेरा नाम ही मेरे वास्ते) प्रकाश (है)। हे दास नानक! (कह: जिस मनुष्य को) गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र बख्शा है, उसके मन में उसके तन में आत्मिक उमंग बन गई।4।5।7।37।

वेरवा शबदों का:
महला १----------------12
महला ३----------------18
महला ४----------------07
कुल जोड़---------------37

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh