श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1178 गुरमुखि हरि हरि हरि लिव लागे ॥ जनम मरण दोऊ दुख भागे ॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। लिव = लगन। भागे = दूर हो जाते हैं।3। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर परमात्मा के नाम की लगन लगती है (जिसकी इनायत से) पैदा होने व मरने के उनके दोनों दुख दूर हो जाते हैं।3। भगत जना कउ हरि किरपा धारी ॥ गुरु नानकु तुठा मिलिआ बनवारी ॥४॥२॥ पद्अर्थ: कउ = को। तुठा = दयावान हुआ। बनवारी = परमात्मा।4। अर्थ: हे भाई! अपने भक्तों पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है (उनको गुरु से मिलाता है)। हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु नानक दयावान हुआ, उसको परमात्मा मिल गया।4।2। बसंतु हिंडोल महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम नामु रतन कोठड़ी गड़ मंदरि एक लुकानी ॥ सतिगुरु मिलै त खोजीऐ मिलि जोती जोति समानी ॥१॥ पद्अर्थ: रतन = श्रेष्ठ आत्मिक गुण। कोठड़ी = सुंदर सा कोठा, सुंदर सा खजाना। रतन कोठड़ी = श्रेष्ठ आत्मिक गुणों का सुंदर सा खजाना। गढ़ = किला। मंदरि = मन्दिर में। गढ़ मंदरि = शरीर किले में, शरीर मन्दिर में। लुकानी = छुपी हुई है, गुप्त है। खोजीऐ = खोज की जा सकती है। मिलि = (गुरु को) मिल के। जोती = प्रभु की ज्योति में।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम श्रेष्ठ आत्मिक गुणों का सुंदर सा खजाना है, यह खजाना शरीर-किले में शरीर-मन्दिर में गुप्त पड़ा रहता है। जब (मनुष्य को) गुरु मिलता है तब (उस खजाने की) तलाश की जा सकती है। (गुरु को) मिल के मनुष्य की जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।1। माधो साधू जन देहु मिलाइ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासहि पवित्र परम पदु पाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माधो = हे माया के पति! हे प्रभु! साधू = गुरु। सभि = सारे। नासहि = दूर हो जाते हैं। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाइ = प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ। अर्थ: हे माया के पति प्रभु! (मुझे) दास को गुरु मिला दे। गुरु के दर्शन करते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं। (जो मनुष्य गुरु के दर्शन करता है, वह) पवित्र और सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेता है।1। रहाउ। पंच चोर मिलि लागे नगरीआ राम नाम धनु हिरिआ ॥ गुरमति खोज परे तब पकरे धनु साबतु रासि उबरिआ ॥२॥ पद्अर्थ: पंच चोर = कामादिक पाँच चोर। लागे = लगे हुए हैं, सेंध लगा रहे हैं। हिरिआ = चुरा लिया है। खोज = खुरा, निशान। पकरे = पकड़े जाते हैं। उबरिआ = बच जाता है।2। अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के इस शरीर-) नगर में (कामादिक) पाँच चोर के मिल के सेंध लगाए रखते हैं, और (मनुष्य के अंदर से) परमात्मा का नाम-धन चुरा लेते हैं। जब कोई मनुष्य गुरु की मति ले के इनका खुरा-निशान ढूँढता है तब (ये चोर) पकड़े जाते हैं, और उस मनुष्य का नाम-धन नाम-राशि सारे का सारा बच जाता है।2। पाखंड भरम उपाव करि थाके रिद अंतरि माइआ माइआ ॥ साधू पुरखु पुरखपति पाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: उपाव = उपाय, प्रयास। रिद = हृदय। पुरख पति = सब मनुष्यों का पति, सब मनुष्यों से श्रेष्ठ। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।3। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! धर्म का दिखावा करने वाले और वहमों-भरमों वाले उपाय करके (मनुष्य) थक जाते हैं उनके हृदय में सदा माया (की तृष्णा ही टिकी रहती है)। पर जिस मनुष्य को श्रेष्ठ पुरख गुरु मिल जाता है, वह मनुष्य अपने अंदर से आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का अंधकार दूर कर लेता है।3। जगंनाथ जगदीस गुसाई करि किरपा साधु मिलावै ॥ नानक सांति होवै मन अंतरि नित हिरदै हरि गुण गावै ॥४॥१॥३॥ पद्अर्थ: जगंनाथ = जगत का नाथ। जगदीस = जगत का ईश्वर। गुसाई = धरती का पति। साधू = गुरु। अंतरि = अंदर, में। हिरदै = हृदय में। गावै = गाता है।4। अर्थ: हे नानक! जगत का नाथ, जगत का मालिक, जगत का पति मेहर करके जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है, उस मनुष्य के मन में आत्मिक अडोलता बनी रहती है, वह मनुष्य अपने हृदय में सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।4।1।3। नोट: शीर्षक के अनुसार यह शब्द बसंत और हिंडोल दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं। बसंतु महला ४ हिंडोल ॥ तुम्ह वड पुरख वड अगम गुसाई हम कीरे किरम तुमनछे ॥ हरि दीन दइआल करहु प्रभ किरपा गुर सतिगुर चरण हम बनछे ॥१॥ पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = धरती का पति। कीरे = कीड़े। किरम = छोटे छोटे कीड़े, कृमि। तुमनछे = तेरे (पैदा किए हुए)। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! बनछे = बांछे, चाहत रखते हैं।1। अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू जगत का मालिक है, तू सबसे बड़ा पुरख है, हम तेरे पैदा किए हुए तुच्छ से जीव हैं। हे दीनों पर दया करने वाले हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर (मुझे गुरु मिला) मैं गुरु सतिगुरु के चरणों (की धूल) की तमन्ना रखता हूँ।1। गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि करि क्रिपछे ॥ जनम जनम के किलविख मलु भरिआ मिलि संगति करि प्रभ हनछे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेलि = मिला। क्रिपछे = कृपा। किलविख = पाप। मिलि = मेलि, मिला के (साधारणतया ‘मिलि’ का अर्थ है ‘मिल के’)। हनछे = हच्छे, पवित्र जीवन वाले।1। रहाउ। अर्थ: हे गोबिंद जी! (मेरे पर) मेहर कर (मुझे साधु-) संगति में मिला। मैं अनेक जन्मों के पापों की मैल से लिबड़ा हुआ हूँ। हे प्रभु! (मुझे साधु-) संगति में मिला के पवित्र जीवन वाला बना।1। रहाउ। तुम्हरा जनु जाति अविजाता हरि जपिओ पतित पवीछे ॥ हरि कीओ सगल भवन ते ऊपरि हरि सोभा हरि प्रभ दिनछे ॥२॥ पद्अर्थ: जाति अविजाता = ऊँची जाति का चाहे नीच जाति का। पतित = विकारों में गिरा हुआ। पवीछे = पवित्र। पतित पवीछे = विकारियों को पवित्र करने वाला। ते = से। सगल भवन ते = सारे भवनों से। ऊपरि = ऊँचा। दिनछे = दी। सोभा = शोभा, महिमा, बड़ाई।2। अर्थ: हे हरि! तेरा सेवक उच्च जाति का हो चाहे नीच जाति का, विकारियों को पवित्र करने वाला तेरा नाम जिसने जपा है, हे हरि! तूने उसको सारे जगत के जीवों से ऊँचा कर दिया। हे प्रभु! तूने उसको (लोक-परलोक की) बड़ाई बख्श दी।2। जाति अजाति कोई प्रभ धिआवै सभि पूरे मानस तिनछे ॥ से धंनि वडे वड पूरे हरि जन जिन्ह हरि धारिओ हरि उरछे ॥३॥ पद्अर्थ: अजाति = नीच जाति। सभि मानस = सारे मनोरथ। तिनछे = उनके। पूरे = पूर्ण करता है। सो = वह (बहुवचन)। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। पूरे = गुणों से सम्पूर्ण। उरछे = हृदय में।3। अर्थ: हे भाई! ऊँची जाति का हो चाहे नीच जाति का, जो जो भी मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है, उनके सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं। हे भाई! प्रभु के जिस सेवकों ने हरि-प्रभु को अपने हृदय में बसा लिया, वे भाग्यशाली हैं, वे सबसे बड़े हैं, वे पूरन पुरख हैं।3। हम ढींढे ढीम बहुतु अति भारी हरि धारि क्रिपा प्रभ मिलछे ॥ जन नानक गुरु पाइआ हरि तूठे हम कीए पतित पवीछे ॥४॥२॥४॥ पद्अर्थ: ढींढ = नीच। ढीम = मिट्टी का ढेला। मिलछे = मिल। प्रभ = हे प्रभु! तूठे = दयावान हुए।4। अर्थ: हे हरि! हम जीव नीच हैं, हम मूर्ख हैं, हम पापों के भार तले दबे हुए हैं। हे हरि! मेहर कर, हमें मिल। हे दास नानक! (कह:) प्रभु दयावान हुआ हमें मिल गया, (गुरु ने) हमें विकारियों को पवित्र बना दिया।4।2।4। बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मेरा इकु खिनु मनूआ रहि न सकै नित हरि हरि नाम रसि गीधे ॥ जिउ बारिकु रसकि परिओ थनि माता थनि काढे बिलल बिलीधे ॥१॥ पद्अर्थ: मनूआ = अंजान मन। रहि न सकै = धीरज नहीं रख सकता। नाम रसि = नाम के स्वाद में। गीधे = गिझ गया है। बारिकु = छोटा बच्चा। रसकि = स्वाद से। थनि माता = माँ के थन पर। थनि काढे = यदि थन (उसके मुँह से) निकाल लिया जाए। बिलल बिलीधे = विलकने लग जाता है।1। अर्थ: हे भाई! (जब से मुझे गुरु मिला है, तब से) मेरा मन सदा परमात्मा के नाम के स्वाद में मस्त रहता है, अब यह मन एक छिन के वास्ते भी (उस स्वाद के बिना) रह नहीं सकता; जैसे छोटा बच्चा बड़े स्वाद से अपनी माँ के थन से चिपकता है, पर अगर थन (उसके मुँह में से) निकाल लें तो वह विलकने लग जाता है।1। गोबिंद जीउ मेरे मन तन नाम हरि बीधे ॥ वडै भागि गुरु सतिगुरु पाइआ विचि काइआ नगर हरि सीधे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंद जी! (संबोधन)। बीधे = भेद दिए गए हैं। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। सीधे = सिद्ध हो गया है, मिल गया है।1। रहाउ। अर्थ: हे गोबिंद जी! हे हरि! (गुरु की मेहर से) मेरा मन मेरा तन तेरे नाम में भेदे गए हैं। हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे गुरु सतिगुरु मिल गया है। (गुरु की कृपा से अब मैंने) अपने शरीर-नगर में ही परमात्मा को पा लिया है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |