श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1177 इन बिधि इहु मनु हरिआ होइ ॥ हरि हरि नामु जपै दिनु राती गुरमुखि हउमै कढै धोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: इन बिधि = इस तरीके से। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। धोइ = धो के।1। रहाउ। नोट: ‘इन् बिधि’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है (इन्ह)। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार धो के निकाल देता है और दिन-रात हर वक्त परमात्मा का नाम जपता है, इस तरीके से (उसका) यह मन आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है।1। रहाउ। सतिगुर बाणी सबदु सुणाए ॥ इहु जगु हरिआ सतिगुर भाए ॥२॥ पद्अर्थ: सतिगुर बाणी = गुरु की वाणी। सुणाए = (अपने आप को) सुनाता है। सतिगुर भाए = गुरु के प्यार में (टिक के)।2। अर्थ: हे भाई! जब यह जगत गुरु की वाणी सुनता है गुरु का शब्द सुनता है और गुरु के प्यार में मगन होता है तब यह आत्मिक जीवन से हरा-भरा हो जाता है।2। फल फूल लागे जां आपे लाए ॥ मूलि लगै तां सतिगुरु पाए ॥३॥ पद्अर्थ: जा = जब। आपे = प्रभु स्वयं ही। मूलि = जगत के आदि में। तां = तब ही।3। अर्थ: हे भाई! (जीव के अपने वश की बात नहीं है। मनुष्य जीवन के वृक्ष को आत्मिक गुणों के) फूल-फल (तब ही) लगते हैं जब परमात्मा स्वयं ही लगाता है। (जब प्रभु की मेहर से मनुष्य को) गुरु मिलता है, तब मनुष्य सारे जगत के विधाता में जुड़ता है।3। आपि बसंतु जगतु सभु वाड़ी ॥ नानक पूरै भागि भगति निराली ॥४॥५॥१७॥ पद्अर्थ: सभु = सारा। वाड़ी = बगीचा। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। निराली = (माया के मोह से) निर्लिप करने वाली।4। अर्थ: हे भाई! यह सारा जगत (परमात्मा की) बगीची है, (इसको हरा-भरा करने वाला) बसंत भी वह स्वयं ही है। हे नानक! (माया के मोह से) निर्लिप करने वाली हरि की भक्ति बड़ी किस्मत से ही (किसी मनुष्य को मिलती है)।4।17। बसंतु हिंडोल महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुर की बाणी विटहु वारिआ भाई गुर सबद विटहु बलि जाई ॥ गुरु सालाही सद अपणा भाई गुर चरणी चितु लाई ॥१॥ पद्अर्थ: विटहु = से। वारिआ = सदके। भाई = हे भाई! बलि जाई = बलि जाई, मैं कुर्बान जाता हूँ। सालाही = मैं सलाहता हूँ। सद = सदा। लाई = लाई, मैं लगाता हूँ।1। अर्थ: हे भाई! मैं गुरु की वाणी से गुरु के शब्द से बलिहार जाता हूँ। हे भाई! मैं सदा अपने गुरु को सलाहता हूँ, मैं अपने गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ता हूँ।1। मेरे मन राम नामि चितु लाइ ॥ मनु तनु तेरा हरिआ होवै इकु हरि नामा फलु पाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! नामि = नाम में लाइ = जोड़। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। पाइ = प्राप्त कर के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़। हे भाई! परमात्मा का नाम-फल प्राप्त करके तेरा मन खिल उठेगा तेरा तन खिल उठेगा।1। रहाउ। गुरि राखे से उबरे भाई हरि रसु अम्रितु पीआइ ॥ विचहु हउमै दुखु उठि गइआ भाई सुखु वुठा मनि आइ ॥२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। से = वे (बहुवचन)। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला रस। पीआइ = पिला के। उठि गइआ = नाश हो गया। वुठा = वश में पड़ा। आइ = आ के। मनि = मन में।2। अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस गुरमुखों की रक्षा की वे (माया के मोह के पँजे से) बच गए गुरु ने उनको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला के (बचा लिया)। हे भाई! उनके अंदर से अहंकार का दुख दूर हो गया, उनके मन में आनंद आ बसा।2। धुरि आपे जिन्हा नो बखसिओनु भाई सबदे लइअनु मिलाइ ॥ धूड़ि तिन्हा की अघुलीऐ भाई सतसंगति मेलि मिलाइ ॥३॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। नो = को। बखसिओनु = बख्शा उस (परमात्मा) ने। सबदे = शब्द से। लइअनु = लिए हैं उस (परमात्मा) ने। अघुलीऐ = निर्लिप हो जाया जाता है, मुक्त हो जाते हैं। मेलि = मेल के।3। अर्थ: हे भाई! धुर-दरगाह से परमात्मा ने स्वयं ही जिस पर बख्शिश की, उनको उसने (गुरु के) शब्द में जोड़ दिया। हे भाई! उनके चरण-धूल की इनायत से (माया से) निर्लिप हुआ जाता है (जिस पर बख्शिश करता है उन्हें) साधु-संगत में मिला के (अपने चरणों में) जोड़ लेता है।3। आपि कराए करे आपि भाई जिनि हरिआ कीआ सभु कोइ ॥ नानक मनि तनि सुखु सद वसै भाई सबदि मिलावा होइ ॥४॥१॥१८॥१२॥१८॥३०॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सभु कोइ = हरेक जीव। मनि = मन में। तनि = तन में। सद = सदा। सबदि = शब्द से। मिलावा = मिलाप।4। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने हरेक जीव को जिंद दी है वह स्वयं ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है स्वयं ही (सबमें व्यापक हो के सब कुछ) करता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! गुरु के शब्द से जिस मनुष्य का मिलाप परमात्मा के साथ हो जाता है, उसके मन में उसके तन में सदा आनंद बना रहता है।4।1।18।12।18।30। वेरवा:
रागु बसंतु महला ४ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिउ पसरी सूरज किरणि जोति ॥ तिउ घटि घटि रमईआ ओति पोति ॥१॥ पद्अर्थ: पसरी = बिखरी हुई। जोति = ज्योति, प्रकाश। घटि घटि = हरेक शरीर में। रमईआ = सुंदर राम। ओति पोति = (ओत = उना हुआ। प्रोत = परोया हुआ) ताने पेटे की तरह।1। अर्थ: हे मेरी माँ! जैसे सूरज के किरण की रौशनी (सारे जगत में) बिखरी हुई है, वैसे ही सुंदर राम ताने-पेटे की तरह हरेक शरीर में मौजूद (ओत-प्रोत) है।1। एको हरि रविआ स्रब थाइ ॥ गुर सबदी मिलीऐ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रविआ = मौजूद है। स्रब = सरब, सर्व। स्रब थाइ = सरब थाय, सारी जगहों में। सबदी = शब्द से। मिलीऐ = मिला जा सकता है। माइ = हे माँ!।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरी माँ! (चाहे सिर्फ) एक परमात्मा ही हर जगह मौजूद है, (फिर भी) गुरु के शब्द के द्वारा ही (उसको) मिला जा सकता है।1। रहाउ। घटि घटि अंतरि एको हरि सोइ ॥ गुरि मिलिऐ इकु प्रगटु होइ ॥२॥ पद्अर्थ: घटि = शरीर। घटि घटि अंतरि = हरेक शरीर के अंदर। एको = एक स्वयं ही। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। प्रगटु होइ = प्रत्यक्ष दिख जाता है।2। अर्थ: हे माँ! वह एक परमात्मा ही हरेक शरीर के अंदर व्यापक है। अगर (जीव को) गुरु मिल जाए, तब वह परमात्मा प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है।2। एको एकु रहिआ भरपूरि ॥ साकत नर लोभी जाणहि दूरि ॥३॥ पद्अर्थ: सकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। लोभी = लालची। जाणहि = जानते हें, समझते हैं (बहुवचन)।3। अर्थ: हे माँ! एक परमात्मा ही हर जगह जर्रे-जर्रे में बस रहा है। पर परमात्मा से टूटे हुए माया के लालची मनुष्य समझते हैं कि वह कहीं दूर बसता है।3। एको एकु वरतै हरि लोइ ॥ नानक हरि एकुो करे सु होइ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: लोइ = लोय, जगत में। एकुो = एक ही। सु = वह कुछ।4। नोट: ‘लोइ’ है अधिकरण कारक, एकवचन। नोट: ‘एकुो’ में ‘क’ के साथ दो मात्राएं हैं। असल शब्द ‘ऐकु’ है यहाँ ‘ऐको’ पढ़ना है। अर्थ: हे नानक! एक परमात्मा ही सारे जगत में बरत रहा है। वह सर्व-व्यापक प्रभु ही जो कुछ करता है वह होता है।4।1। बसंतु महला ४ ॥ रैणि दिनसु दुइ सदे पए ॥ मन हरि सिमरहु अंति सदा रखि लए ॥१॥ पद्अर्थ: रैणि = रात। दुइ = दोनों। सदे = आमंत्रण, संदेशा मौत के संदेश (‘सदा’ का बहुवचन)। सदे पए = मौत के संदेशे मिल रहे हैं, मौत के बुलावे आ रहे हैं। मन = हे मन! अंति = आखिर को। रखि लीए = रक्षा करता है।1। अर्थ: हे मेरे मन! रात और दिन दोनों मौत का संदेशा दे रहे हैं (कि उम्र बीत रही है, और, मौत नज़दीक आ रही है)। हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, हरि-नाम ही अंत में सदा रक्षा करता है।1। हरि हरि चेति सदा मन मेरे ॥ सभु आलसु दूख भंजि प्रभु पाइआ गुरमति गावहु गुण प्रभ केरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चेति = चेते कर। सभु = सारा। दूख = सारे दुख। भंजि = नाश करके। गुरमति = गुरु की मति ले के। करे = के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा को याद किया कर, गुरु की मति ले के परमात्मा के गुण गाया कर। (जिस मनुष्य ने ये उद्यम किया, उसने) सारा आलस दूर करके अपने सारे दुख नाश कर के परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया।1। रहाउ। मनमुख फिरि फिरि हउमै मुए ॥ कालि दैति संघारे जम पुरि गए ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मुए = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। कालि = काल ने। दैति = दैत्य ने। संघारे = मार दिए। जमपुरि = जम की पुरी में।2। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य बार-बार अहंकार के कारण आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं। जब काल दैत्य ने उन्हें मार डाला, तब जमों के वश में पड़ गए।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |