श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1183 समरथ सुआमी कारण करण ॥ मोहि अनाथ प्रभ तेरी सरण ॥ जीअ जंत तेरे आधारि ॥ करि किरपा प्रभ लेहि निसतारि ॥२॥ पद्अर्थ: समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! सुआमी = हे मालिक! कारण करण = हे करण के कारण! हे जगत के मूल! मेहि = मुझे, मैं। प्रभ = हे प्रभु! आधारि = आसरे में। करि = कर के। प्रभ = हे प्रभु! लेहि निसतारि = पार लंघा ले।2। अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक! हे स्वामी! हे जगत के मूल! हे प्रभु! मैं अनाथ तेरी शरण में आया हूँ। हे प्रभु! सारे जीव-जंतु तेरे ही आसरे हैं, मेहर कर (इनको संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।2। भव खंडन दुख नास देव ॥ सुरि नर मुनि जन ता की सेव ॥ धरणि अकासु जा की कला माहि ॥ तेरा दीआ सभि जंत खाहि ॥३॥ पद्अर्थ: भव खंडन = हे जनम मरण के चक्करों को काटने वाले! देव = हे प्रकाश रूप। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ता की = उस (परमात्मा) की। सेव = भक्ति। धरणि = धरती। जा की = जिस (परमात्मा) की। कला = सत्ता। सभि = सारे। खाहि = खते हैं (बहुवचन)। निहालि = देख।3। अर्थ: हे जनम-मरण के चक्कर काटने वाले! हे दुखों का नाश करने वाले! हे प्रकाश-स्वरूप! सारे जीव तेरा दिया (अन्न) खाते हैं। हे भाई! धरती और आकाश जिस (परमात्मा) की कला के आसरे टिके हुए हैं, दैवी गुणों वाले मनुष्य और मुनि-जन उसकी सेवा-भक्ति करते हैं।3। अंतरजामी प्रभ दइआल ॥ अपणे दास कउ नदरि निहालि ॥ करि किरपा मोहि देहु दानु ॥ जपि जीवै नानकु तेरो नामु ॥४॥१०॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले! कउ = को। नदरि = मेहर की निगाह। करि = कर के। मोहि = मुझे। जपि = जप के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करे।4। अर्थ: हे सबके दिलों की जानने वाले दयालु प्रभु! अपने दास को मेहर की निगाह से देख। मेहर करके मुझे (यह) दान दे कि (तेरा दास) नानक तेरा नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त करे।4।10। बसंतु महला ५ ॥ राम रंगि सभ गए पाप ॥ राम जपत कछु नही संताप ॥ गोबिंद जपत सभि मिटे अंधेर ॥ हरि सिमरत कछु नाहि फेर ॥१॥ पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में (जुड़ने से)। जपत = जपते हुए। संताप = दुख-कष्ट। सभि = सारे। अंधेर = माया के मोह के अंधेरे। फेर = जनम मरण के चक्कर।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के प्यार में (टिकने से) सारे पाप मिट जाते हैं, परमात्मा का नाम जपने से दुख-कष्ट छू नहीं सकते, गोबिंद का नाम जपने से (माया के मोह के) सारे अंधेरे मिट जाते हैं, हरि-नाम स्मरण करने से जनम-मरण के चक्कर नहीं रह जाते।1। बसंतु हमारै राम रंगु ॥ संत जना सिउ सदा संगु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय में। रंगु = प्यार। बसंत = खिलाव। सिउ = साथ। संगु = साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) संत-जनों के साथ (मेरा) सदा साथ बना रहता है, (अब) मेरे अंदर परमात्मा (के नाम) का प्यार बन गया है, मेरे हृदय में उमंग पैदा हो गई है।1। रहाउ। संत जनी कीआ उपदेसु ॥ जह गोबिंद भगतु सो धंनि देसु ॥ हरि भगतिहीन उदिआन थानु ॥ गुर प्रसादि घटि घटि पछानु ॥२॥ पद्अर्थ: जनी = जनों ने। जह = जहाँ। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। उदिआन = उद्यान, उजाड़। प्रसादि = कृपा से। घटि घटि = हरेक शरीर में (व्यापक)। पछानु = समझ ले।2। अर्थ: हे भाई! संत-जनों ने शिक्षा दी है कि जहाँ परमात्मा का भक्त बसता है वह देश भाग्यशाली है और परमात्मा की भक्ति से वंचित स्थान उजाड़ (बिआबान के तूल्य) है। हे भाई! गुरु की कृपा से (तू उस परमात्मा को) हरेक शरीर में बसता समझ।2। हरि कीरतन रस भोग रंगु ॥ मन पाप करत तू सदा संगु ॥ निकटि पेखु प्रभु करणहार ॥ ईत ऊत प्रभ कारज सार ॥३॥ पद्अर्थ: रस = स्वाद। रंगु = मौज बहार। मन = हे मन! संगु = संकोच, झिझका कर, शर्म। निकटि = नजदीक। पेखु = देख। करणहार = सब कुछ कर सकने वाला। ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। सार = सँवारने वाला।3। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा की महिमा को ही दुनिया के रसों-भोगों की मौज-बहार समझ। हे मन! पाप करते हुए सदा झिझका कर। सब कुछ कर सकने वाले प्रभु को (अपने) नजदीक बसता देख। इस लोक के और परलोक के सारे काम प्रभु ही सँवारने वाला है।3। चरन कमल सिउ लगो धिआनु ॥ करि किरपा प्रभि कीनो दानु ॥ तेरिआ संत जना की बाछउ धूरि ॥ जपि नानक सुआमी सद हजूरि ॥४॥११॥ पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। बाछउ = मैं माँगता हूँ। धूरि = चरण धूल। जपि = मैं जपता रहूँ।4। अर्थ: हे भाई! प्रभु ने मेहर करके (जिस मनुष्य पर) बख्शिश की, उसकी तवज्जो प्रभु के सुंदर चरणों में जुड़ गई। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरे संत-जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, (ताकि) हे स्वामी! (उनकी संगति की इनायत से तुझे) सदा अंग-संग समझ के जपता रहूँ।4।11। बसंतु महला ५ ॥ सचु परमेसरु नित नवा ॥ गुर किरपा ते नित चवा ॥ प्रभ रखवाले माई बाप ॥ जा कै सिमरणि नही संताप ॥१॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। नित नवा = सदा नया, सदा सुंदर। ते = से। चवा = चवां, मैं उच्चारता रहूँ। जा कै सिमरणि = जिसके स्मरण से। संताप = दुख-कष्ट।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, (फिर वह प्यारा लगता है क्योंकि वह) सदा ही नया है। गुरु की मेहर से मैं सदा (उसका नाम) उचारता हूँ। हे भाई! (जैसे) माता-पिता (अपने बच्चे का ध्यान रखते हैं, वैसे ही) प्रभु जी सदा (मेरे) रखवाले हैं (वह प्रभु ऐसा है) कि उसके स्मरण से कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकते।1। खसमु धिआई इक मनि इक भाइ ॥ गुर पूरे की सदा सरणाई साचै साहिबि रखिआ कंठि लाइ ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: हे भाई! मैं पूरे गुरु की सदा शरण पड़ा रहता हूँ (उसकी मेहर से) सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु ने (मुझे) अपने गले से लगा के (मेरी) रक्षा की हुई है, (अब) मैं एकाग्र मन से उसके प्यार में टिक के उस पति-प्रभु को स्मरण करता रहता हूँ।1। रहाउ। अपणे जन प्रभि आपि रखे ॥ दुसट दूत सभि भ्रमि थके ॥ बिनु गुर साचे नही जाइ ॥ दुखु देस दिसंतरि रहे धाइ ॥२॥ पद्अर्थ: धिआई = दास, सेवक (बहुवचन)। प्रभि = प्रभु ने। दुसट दूत = दुष्ट वैरी ने। सभि = सारे। भ्रमि = भटक भटक के। थके = हार गए। जाइ = जगह, स्थान। देस दिसंतरि = देश देश अंतरि, और-और देशों में, देश देशांतर। रहे धाइ = दौड़ दोड़ के थक गए।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु ने अपने सेवकों की सदा स्वयं रक्षा की है (सेवकों के) दुष्ट वैरी सारे भटक-भटक के हार जाते हैं। (सेवकों को) सदा-स्थिर प्रभु के रूप गुरु के बिना और कोई आसरा नहीं होता। (जो मनुष्य गुरु को छोड़ के) और-और जगहों पर भटकते फिरते हैं, उन्हें दुख (व्यापता है)।2। किरतु ओन्हा का मिटसि नाहि ॥ ओइ अपणा बीजिआ आपि खाहि ॥ जन का रखवाला आपि सोइ ॥ जन कउ पहुचि न सकसि कोइ ॥३॥ पद्अर्थ: किरतु = किया हुआ काम। ओइ = वे। खाहि = खाते हैं। सोइ = वह (प्रभु) ही। पहुचि न सकसि = बराबरी नहीं कर सकता।3। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (गुरु को छोड़ के अन्य जगहों पर भटकने वाले) उन मनुष्यों का (यह) किया हुआ काम (किए इन कामों का संस्कार-समूह उनके अंदर से) मिटता नहीं। अपने किए कर्मों का फल वह स्वयं ही खाते हैं। अपने सेवक का रखवाला प्रभु स्वयं बनता है। कोई और मनुष्य प्रभु के सेवक की बराबरी नहीं कर सकता।3। प्रभि दास रखे करि जतनु आपि ॥ अखंड पूरन जा को प्रतापु ॥ गुण गोबिंद नित रसन गाइ ॥ नानकु जीवै हरि चरण धिआइ ॥४॥१२॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। करि = कर के। अखंड = अटुट। पूरन = पूर्ण। जा को = जिस (परमात्मा) का। रसन = जीभ से। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। धिआइ = ध्यान धर के।4। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का अटुट व सम्पूर्ण प्रताप है, उसने (विशेष) प्रयत्न कर के अपने सेवकों की सदा स्वयं रक्षा की है। हे भाई! उस गोबिंद के गुण सदा अपनी जीभ से गाया कर। नानक (भी) उस परमात्मा के चरणों का ध्यान धर के आत्मिक जीवन हासिल करता रहता है।4।12। बसंतु महला ५ ॥ गुर चरण सरेवत दुखु गइआ ॥ पारब्रहमि प्रभि करी मइआ ॥ सरब मनोरथ पूरन काम ॥ जपि जीवै नानकु राम नाम ॥१॥ पद्अर्थ: सरेवत = हृदय में बसाने से, स्मरण करते हुए। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। मइआ = दइआ। सरब = सारे। मनोरथ = जरूरतें, मुरादें। काम = काम। जपि = जप के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है।1। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) पारब्रहम ने मेहर की, गुरु के चरण हृदय में बसा के उस मनुष्य का हरेक दुख दूर हो जाता है, उसकी सारी मुरादें उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं। हे भाई! नानक (भी) उस परमात्मा का नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा है।1। सा रुति सुहावी जितु हरि चिति आवै ॥ बिनु सतिगुर दीसै बिललांती साकतु फिरि फिरि आवै जावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। सुहावी = सुखद। जितु = जिस (ऋतु) में। चिति = चिक्त में। बिललांती = विलकती। साकतु = परमात्मा इसे टूटा हुआ मनुष्य। आवै जावै = पैदा होता है मरता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (मनुष्यों के लिए) वह ऋतु सुंदर होती है जब परमात्मा उसके चिक्त में आ बसता है। गुरु की शरण के बिना (दुनिया) बिलकती दिखती है। परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य बार-बार पैदा होता मरता रहता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |