श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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से धनवंत जिन हरि प्रभु रासि ॥ काम क्रोध गुर सबदि नासि ॥ भै बिनसे निरभै पदु पाइआ ॥ गुर मिलि नानकि खसमु धिआइआ ॥२॥

पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। रासि = राशि, पूंजी। सबदि = शब्द से। भै = सारे डर। पदु = आत्मिक दर्जा। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई डर छू ना सके। मिलि = मिल के। नानकि = नानक ने।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा की नाम-पूंजी मौजूद है वे धनवान हैं, गुरु के शब्द की इनायत से उनके अंदर से काम-क्रोध (आदि विकार) नाश हो जाते हैं। उनके सारे डर दूर हो जाते हैं, वे ऐसा आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लेते हैं जहाँ कोई डर छू नहीं सकता। हे भाई! गुरु को मिल के नानक ने (भी) उस पति-प्रभु को स्मरण किया है।2।

साधसंगति प्रभि कीओ निवास ॥ हरि जपि जपि होई पूरन आस ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ ॥ गुर मिलि नानकि हरि हरि कहिआ ॥३॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। जपि = जप के। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने जिस मनुष्य का ठिकाना साधु-संगत में बना दिया है, परमात्मा का नाम जप-जप के उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है। वह प्रभु पानी में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है। गुरु को मिल के नानक ने (भी) उसी का स्मरण किया है।3।

असट सिधि नव निधि एह ॥ करमि परापति जिसु नामु देह ॥ प्रभ जपि जपि जीवहि तेरे दास ॥ गुर मिलि नानक कमल प्रगास ॥४॥१३॥

पद्अर्थ: असट = आठ। सिधि = सिद्धियां, सिधों वाली आत्मिक ताकतें। नवनिधि = नौ खजाने। करमि = मेहर से। प्रभ = हे प्रभु! जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं (बहुवचन)। कमल प्रगास = हृदय खिल उठता है।4।

अर्थ: हे भाई! ये हरि-नाम ही (सिद्धों की) आठ आत्मिक शक्तियां हैं (कुबेर के) नौ-खजाने हैं। जिस मनुष्य को प्रभु ये नाम देता है उसी को उसकी मेहर से मिलता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरे दास (तेरा नाम) जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, गुरु को मिल के (नाम की इनायत से उनका) हृदय-कमल खिला रहता है।4।13।

बसंतु महला ५ घरु १ इक तुके    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सगल इछा जपि पुंनीआ ॥ प्रभि मेले चिरी विछुंनिआ ॥१॥

पद्अर्थ: सगल = सारी। जपि = (प्रभु का नाम) जप के। पुंनीआ = पूरी हो जाती हैं। प्रभि = प्रभु ने। मेले = मिल लिए। चिरी विछुंनिआ = चिर से विछुड़े हुओं को।1।

अर्थ: हे भाई! (जिन्होंने स्मरण किया, उनका) चिर के विछुड़े हुओं को (भी) प्रभु ने (अपने चरणों के साथ) मिला लिया, (परमात्मा का नाम) जप के उनकी सारी मुरादें पूरी हो गई।1।

तुम रवहु गोबिंदै रवण जोगु ॥ जितु रविऐ सुख सहज भोगु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रवहु = स्मरण करो। गोबिंदै = गोबिंद (के नाम) को। रवण जोगु = स्मरण करने योग्य को। जितु = जिससे। जितु रविऐ = जिसका स्मरण करने से, अगर उसका स्मरण किया जाए। सुख सहज भोगु = आत्मिक अडोलता के सुखों का स्वाद।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! तुम स्मरण करने योग्य गोबिंद का नाम स्मरण किया करो। अगर (उसका नाम) स्मरण किया जाए, तो आत्मिक अडोलता के सुखों का स्वाद (प्राप्त होता है)।1। रहाउ।

करि किरपा नदरि निहालिआ ॥ अपणा दासु आपि सम्हालिआ ॥२॥

पद्अर्थ: करि = कर के। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालिआ = देखा। समालिआ = संभाल की।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु ने अपने दास की (सदा) स्वयं संभाल की है। कृपा करके (प्रभु ने अपने दास को सदा) मेहर भरी निगाह से देखा है।2।

सेज सुहावी रसि बनी ॥ आइ मिले प्रभ सुख धनी ॥३॥

पद्अर्थ: सेज = हृदय सेज। सुहावी = सुंदर। रसि = (मिलाप के) स्वाद से। सुख धनी = सुखों के मालिक।3।

अर्थ: हे भाई! सुखों के मालिक प्रभु जी (जिस मनुष्य को) आ के मिल लेते हैं, (प्रभु-मिलाप के) स्वाद से उनकी हृदय-सेज सोहानी बन जाती है।3।

मेरा गुणु अवगणु न बीचारिआ ॥ प्रभ नानक चरण पूजारिआ ॥४॥१॥१४॥

पद्अर्थ: पूजारिआ = पुजारी बना लिया।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु ने मेरा कोई गुण नहीं बिचारा, कोई अवगुण नहीं विचारा, (मेहर कर के उसने मुझे) अपने चरणों का पुजारी बना लिया है।4।1।14।

बसंतु महला ५ ॥ किलबिख बिनसे गाइ गुना ॥ अनदिन उपजी सहज धुना ॥१॥

पद्अर्थ: किलबिख = पाप। गाइ = गा के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहज धुना = आत्मिक अडोलता की लहर।1।

अर्थ: हे भाई! (कोई भी मनुष्य हो, परमात्मा के) गुण गा-गा के उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं, उसके अंदर हर वक्त आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हुई रहती है।1।

मनु मउलिओ हरि चरन संगि ॥ करि किरपा साधू जन भेटे नित रातौ हरि नाम रंगि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मउलिओ = खिल उठता है, पुल्कित हो जाता है। करि = कर के। साधू = गुरु। भेटे = मिलाता है। रातो = रंगा रहता है। रंगि = रंग में।1। रहाउ।

नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिस सेवक को गुरु मिलाता है, वह सेवक सदा हरि-नाम रंग में रंगा जाता है, उस सेवक का मन प्रभु के चरणों में (जुड़ के) आत्मिक जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ।

करि किरपा प्रगटे गुोपाल ॥ लड़ि लाइ उधारे दीन दइआल ॥२॥

पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। लाइ = लगा के। उधारे = (संसार समुंदर से) पार लंघाता है।2।

अर्थ: हे भाई! मेहर कर के गोपाल-प्रभु (जिस मनुष्य के हृदय में) प्रगट होता है, दीनों पर दया करने वाला प्रभु उसको अपने पल्ले से लगा के (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।2।

इहु मनु होआ साध धूरि ॥ नित देखै सुआमी हजूरि ॥३॥

पद्अर्थ: साध धूरि = गुरु चरणों की धूल। देखै = देखता है (एकवचन)। हजूरि = अंग संग, हाजर नाजर।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का ये मन गुरु के चरणों की धूल बनता है, वह मनुष्य स्वामी प्रभु को सदा अपने अंग-संग बसता देखता है।3।

काम क्रोध त्रिसना गई ॥ नानक प्रभ किरपा भई ॥४॥२॥१५॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर होती है (उसके अंदर से) काम-क्रोध-तृष्णा (आदिक विकार) दूर हो जाते हैं।4।2।15।

बसंतु महला ५ ॥ रोग मिटाए प्रभू आपि ॥ बालक राखे अपने कर थापि ॥१॥

पद्अर्थ: मिटाए = मिटाता है। बालक = (बहुवचन) बच्चों को। राखे = रक्षा करता है। कर = हाथ (बहुवचन)। थापि = स्थापित करके, थाप दे के। कर थापि = हाथों से थापना दे के।1।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य पूरे गुरु की शरण आते हैं) परमात्मा स्वयं (उनके सारे) रोग मिटा देता है, उन बच्चों को अपने हाथों से थापणा दे के उनकी रक्षा करता है (जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों की संभाल करते हैं)।1।

सांति सहज ग्रिहि सद बसंतु ॥ गुर पूरे की सरणी आए कलिआण रूप जपि हरि हरि मंतु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। सद बसंतु = सदा कायम रहने वाली उमंग। कलिआण रूप हरि मंतु = सुख स्वरूप परमात्मा का नाम मंत्र। जपि = जप के।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पूरे गुरु की शरण आते हैं, सुख-स्वरूप परमात्मा का नाम-मंत्र जप के (उनके हृदय-) घर में आत्मिक अडोलता वाली शांति बनी रहती है, सदा कायम रहने वाली उमंग बनी रहती है।1। रहाउ।

सोग संताप कटे प्रभि आपि ॥ गुर अपुने कउ नित नित जापि ॥२॥

पद्अर्थ: सोग = चिन्ता फिक्र। संताप = दुख-कष्ट। प्रभि = प्रभु ने। कउ = को। जापि = जपा कर।2।

अर्थ: प्रभु आप ही चिन्ता व दुख मिटा देता है। अपने गुरु को रोज-रोज याद करना चाहिये।2।

जो जनु तेरा जपे नाउ ॥ सभि फल पाए निहचल गुण गाउ ॥३॥

पद्अर्थ: जपै = जपता है। सभि = सारे। निहचल गुण गाउ = सदा कायम रहने वाले गुणों का गायन (करके)।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य तेरा नाम जपता है, वह मनुष्य तेरे सदा कायम रहने वाले गुणों का गायन कर के सारे फल प्राप्त कर लेता है।3।

नानक भगता भली रीति ॥ सुखदाता जपदे नीत नीति ॥४॥३॥१६॥

पद्अर्थ: रीति = मर्यादा।4।

अर्थ: हे नानक! भक्त-जनों की ये सुंदर जीवन-मर्यादा है, कि वे सदा ही सुखों के देने वाले परमात्मा का नाम जपते रहते हैं।4।3।16।

बसंतु महला ५ ॥ हुकमु करि कीन्हे निहाल ॥ अपने सेवक कउ भइआ दइआलु ॥१॥

पद्अर्थ: हुकम करि = हुक्म दे के। निहाल = प्रसन्न चिक्त। सेवक कउ = सेवकों पर। दइआलु = दयालु, दयावान।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवकों पर (सदा) दयावान होता है, अपने हुक्म अनुसार उनको प्रसन्न-चिक्त रखता है।1।

गुरि पूरै सभु पूरा कीआ ॥ अम्रित नामु रिद महि दीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। सभु = हरेक काम। पूरा कीआ = सिरे चढ़ा दिया। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। रिद महि = हृदय में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम (जिस मनुष्य के) हृदय में बसा दिया, (उस मनुष्य का उसने) हरेक काम सफल कर दिया (उसका सारा जीवन ही सफल हो गया)।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh