श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1185 करमु धरमु मेरा कछु न बीचारिओ ॥ बाह पकरि भवजलु निसतारिओ ॥२॥ पद्अर्थ: करमु = अच्छा काम। पकरि = पकड़ के। भवजलु = संसार समुंदर। निसतारिओ = पार लंघा दिया।2। अर्थ: हे भाई! (गुरु ने) मेरा (भी) कोई (अच्छा) कर्म नहीं विचारा मेरा कोई धर्म नहीं विचारा, बाँह से पकड़ कर उसने (मुझे) संसार-समुंदर (के विकारों) से पार लंघा दिया है।2। प्रभि काटि मैलु निरमल करे ॥ गुर पूरे की सरणी परे ॥३॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। काटि = काट के, दूर कर के।3। अर्थ: हे भाई! जो भी मनुष्य पूरे गुरु की शरण पड़ गए, परमात्मा ने (स्वयं उनके अंदर से विकारों की) मैल काट के उनको पवित्र जीवन वाला बना लिया।3। आपि करहि आपि करणैहारे ॥ करि किरपा नानक उधारे ॥४॥४॥१७॥ पद्अर्थ: करहि = तू करता है। करणैहारे = हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! करि = कर के। उधारे = पार लंघा ले, उद्धार कर दे।4। अर्थ: हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! तू सब कुछ स्वयं ही कर रहा है। मेहर कर के (मुझे) नानक को (संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।4।4।17। बसंतु महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देखु फूल फूल फूले ॥ अहं तिआगि तिआगे ॥ चरन कमल पागे ॥ तुम मिलहु प्रभ सभागे ॥ हरि चेति मन मेरे ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: देखु = (अंदर झाँक के) देख। फूल फूल फूले = फूल ही फूल खिले हुए हैं, खिड़ाव ही खिड़ाव है, उमंग उल्लास ही उल्लास है। अहं = अहंकार। तिआगि = त्याग के। पागे = चिपका रह। सभागे = हे भाग्यशाली (मन)! मन = हे मन!।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर, अहम् दूर कर, (फिर) देख (तेरे अंदर) फूल ही फूल खिले हुए हैं (तेरे अंदर आत्मिक प्रफुल्लता है)। हे भाग्यशाली मन! प्रभु के सुंदर चरणों से चिपका रह, प्रभु के साथ जुड़ा रह। हे मेरे मन! परमात्मा को याद करता रह। रहाउ। सघन बासु कूले ॥ इकि रहे सूकि कठूले ॥ बसंत रुति आई ॥ परफूलता रहे ॥१॥ पद्अर्थ: सघन = घनी छाया वाले। बासु = सुगंधी। कमले = नरम, कोमल। इकि = कई। रहे सूकि = सूखे रहते हैं। कठूले = (सूखी) काठ जैसे कठोर। बसंत रुति = खेड़े वाली ऋतु, मनुष्य जनम जिस में आत्मिक जीवन की उमंग प्राप्त की जा सकती है। परफूलता रहो = (जो मनुष्य नाम जपता है वह) प्रफुल्लित रहता है, खिला रहता है।1। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे मेरे मन! जब बसंत की ऋतु आती है, (तब वृक्ष तरावट से) घनी छाया वाले, सुगंधि वाले और कोमल हो जाते हैं, पर कई वृक्ष ऐसे भी हैं जो (बसंत के आने पर भी) सूखे रहते हैं, और सूखे काष्ठ की तरह कठोर रहते हैं (इस तरह, हे मन! चाहे आत्मिक जीवन की उमंग प्राप्त कर सकने वाली मनुष्य-जीवन की ऋतु तेरे ऊपर आई है, फिर भी जो भाग्यशाली मनुष्य हरि-नाम जपता है, वही) खिला रह सकता है।1। अब कलू आइओ रे ॥ इकु नामु बोवहु बोवहु ॥ अन रूति नाही नाही ॥ मतु भरमि भूलहु भूलहु ॥ गुर मिले हरि पाए ॥ जिसु मसतकि है लेखा ॥ मन रुति नाम रे ॥ गुन कहे नानक हरि हरे हरि हरे ॥२॥१८॥ पद्अर्थ: अब = अब (मनुष्य जनम मिलने पर)। कलू = काल, समय, नाम बीजने का वक्त। रे = हे भाई! अन = अन्य, कोई और। अन रुति नाही = (मनुष्य जनम के बिना नाम बीजने का) और कोई समय नहीं। मतु = कहीं ऐसा ना हो। भरमि = (माया की) भटकना में पड़ कर। मतु भूलहु = मत कहीं गलत रास्ते पड़ जाओ, कुमार्ग ना पड़ जाना। गुर मिले = गुर मिलि, गुरु को मिल के (ही)। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। लेखा = (नाम की प्राप्ति का) लेख। मन = हे मन! कहे = उचारता है।2। अर्थ: हे मेरे मन! अब मनुष्य-जन्म मिलने पर (नाम बोने का) समय तुझे मिला हुआ है। (अपने हृदय के खेत में) सिर्फ हरि-नाम बीज, सिर्फ हरि-नाम बो। (मनुष्य-जीवन के बिना) किसी और जन्म में परमात्मा का नाम नहीं बोया जा सकेगा। हे मेरे मन! देखना, (माया की) दौड़-भाग में पड़ के कहीं गलत राह पर ना पड़ जाना। हे मन! (ये मानव-जनम ही) नाम-बीजने का समय है। (पर, हे मन!) गुरु को मिल के ही हरि-नाम प्राप्त किया जा सकता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (धुर से ही नाम की प्राप्ति का) लेख उघड़ता है वह मनुष्य ही सदा परमात्मा के गुण उचारता है।2।18। बसंतु महला ५ घरु २ हिंडोल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ होइ इकत्र मिलहु मेरे भाई दुबिधा दूरि करहु लिव लाइ ॥ हरि नामै के होवहु जोड़ी गुरमुखि बैसहु सफा विछाइ ॥१॥ पद्अर्थ: होइ इकत्र = (साधु-संगत में) इकट्ठे हो के। भाई = हे भाई! दुबिधा = मेर तेर, भेदभाव, दोचिक्तापन। लिव लाइ = (प्रभु चरणों में) तवज्जो/ध्यान जोड़ के। जोड़ी = जोटीदार, साथी। होवहु जोड़ी = साथी बने रहो। हरि नामे के जोड़ी = हरि नाम जपने की चौपड़ खेलने वाले साथी। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। सफा विछाइ = सफा बिछा के, चौपड़ वाला कपड़ा बिछा के। गुरमुखि सफा विछाइ = गुरु की शरण पड़े रहना = ये कपड़ा बिछा के। बैसहु = बैठो।1। अर्थ: हे मेरे वीर! इकट्ठे हो के साधु-संगत में बैठा करो, (वहाँ प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ के (अपने मन में से) मेर-तेर मिटाया करो। गुरु की शरण पड़े रहना- यह चौपड़ का कपड़ा बिछा के मन को टिकाया करो, (साधु-संगत में) हरि-नाम स्मरण का चौपड़ खेलने वाले साथी बना करो।1। इन्ह बिधि पासा ढालहु बीर ॥ गुरमुखि नामु जपहु दिनु राती अंत कालि नह लागै पीर ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: इन बिधि = इस तरीके से। पासा ढालहु = पासा फेंको। अंत कालि = आखिरी वक्त। पीर = पीड़ा।1। रहाउ। अर्थ: हे वीर! (अर्थात, हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर दिन-रात परमात्मा का नाम जपा करो, इस तरह (इस जीवन-खेल में) दाँव चलाओ (पासा फेंको)। (यदि इस तरह ये खेल खेलते रहोगे तो) जिंदगी के आखिरी समय में (जमों का) दुख नहीं सताएगा।1। रहाउ। करम धरम तुम्ह चउपड़ि साजहु सतु करहु तुम्ह सारी ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जीतहु ऐसी खेल हरि पिआरी ॥२॥ पद्अर्थ: करम धरम = धरम के कर्म, नेक काम। साजहु = बनाओ। सतु = ऊँचा आचरण। सारी = नर्द। ऐसी = ऐसी।2। अर्थ: हे मेरे वीर! नेक काम करने को तुम चौपड़ की खेल बनाओ, ऊँचे आचरण को नरद बनाओ। (इस नरद की इनायत से) तुम (अपने अंदर से) काम को क्रोध को लोभ को और मोह को वश में करो। हे वीर! ऐसी ही खेल परमात्मा को भाती है (पसंद आती है)।2। उठि इसनानु करहु परभाते सोए हरि आराधे ॥ बिखड़े दाउ लंघावै मेरा सतिगुरु सुख सहज सेती घरि जाते ॥३॥ पद्अर्थ: उठि = उठ के। परभाते = प्रभात के समय, अमृत बेला में। इसनानु = हरि नाम में आत्मिक स्नान। सोए = सोए हुए भी। बिखड़े = मुश्किल। लंघावै = पार करा देता है, जिता देता है। सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ। घरि = स्वै स्वरूप में, प्रभु चरणों में।3। अर्थ: हे मेरे वीर! अमृत बेला में उठ के (नाम-जल में) डुबकी लगाया करो, सोए हुए भी परमात्मा की आराधना में जुड़े रहो। (जो मनुष्य यह उद्यम करते हैं उन्हें) प्यारा गुरु (कामादिक वैरियों से मुकाबले के) मुश्किल पैतड़ों में कामयाब कर देता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद से प्रभु-चरणों में टिके रहते हैं।3। हरि आपे खेलै आपे देखै हरि आपे रचनु रचाइआ ॥ जन नानक गुरमुखि जो नरु खेलै सो जिणि बाजी घरि आइआ ॥४॥१॥१९॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। खेलै = जगत खेल खेलता है। रचनु रचाइआ = रचना रची है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। जिणि = जीत के।4। अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे वीर!) परमात्मा स्वयं ही जगत-खेल खेलता है, स्वयं ही यह जगत खेल देखता है। प्रभु ने स्वयं ही ये रचना रची हुई है। यहाँ जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (कामादिक के मुकाबले की जीवन-खेल) खेलता है, वह यह बाजी जीत के प्रभु-दर पर पहुँचता है।4।1।19। नोट: शीर्षक के अनुसार यह शब्द और इसके आगे के दोनों शब्द बसंत और हिंडोल दोनों रागों में गाए जाने की हिदायत है। यह शीर्षक ध्यान से देखना। इसी तरह का ही शीर्षक है वाणी ‘ओअंकारु’ का। जैसे यहाँ ‘बसंत’ और ‘हिंडोल’ के शब्द इकट्ठे हैं, वैसे ही वहाँ ‘रामकली’ और ‘दखणी’ दोनों इकट्ठे हैं। वाणी का नाम सिर्फ ‘ओअंकारु’ है। बसंतु महला ५ हिंडोल ॥ तेरी कुदरति तूहै जाणहि अउरु न दूजा जाणै ॥ जिस नो क्रिपा करहि मेरे पिआरे सोई तुझै पछाणै ॥१॥ पद्अर्थ: तू है = तू ही। जाणहि = (तू) जानता है। जाणै = जानता है। करहि = (तू) करता है। सोई = वही मनुष्य।1। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे प्रभु! तेरी कुदरति (ताकत) तू स्वयं ही जानता है, कोई और (तेरी सामर्थ्य को) नहीं समझ सकता। हे मेरे प्यारे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू (स्वयं) मेहर करता है, वही तेरे साथ सांझ डालता है।1। तेरिआ भगता कउ बलिहारा ॥ थानु सुहावा सदा प्रभ तेरा रंग तेरे आपारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। बलिहारा = सदके। सुहावा = सुंदर, सुहाना। प्रभ = हे प्रभु! रंग = खेल तमाशे। आपारा = बेअंत।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे भक्तों से सदा सदके जाता हूँ। (उनकी ही कृपा से तेरे दर पर पहुँचा जा सकता है)। हे प्रभु! जहाँ तू बसता है वह जगह हमेशा सुंदर है, बेअंत हैं तेरे रंग-तमाशे।1। रहाउ। तेरी सेवा तुझ ते होवै अउरु न दूजा करता ॥ भगतु तेरा सोई तुधु भावै जिस नो तू रंगु धरता ॥२॥ पद्अर्थ: सेवा = भक्ति। तुझ ते = तुझसे, तेरी प्रेरणा से। तुधु भावै = (जो) तुझे अच्छा लगता है। रंगु = प्रेम रंग।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति तेरी प्रेरणा से ही हो सकती है, (तेरी प्रेरणा के बिना) कोई भी अन्य प्राणी (तेरी भक्ति) नहीं कर सकता। तेरा भक्त (भी) वही मनुष्य (बनता है जो) तुझे प्यारा लगता है जिस (के मन) को तू (अपने प्यार का) रंग चढ़ाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |