श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तू वड दाता तू वड दाना अउरु नही को दूजा ॥ तू समरथु सुआमी मेरा हउ किआ जाणा तेरी पूजा ॥३॥

पद्अर्थ: दाना = समझदार। को = कोई। समरथु = सब ताकतों का मालिक। किआ जाणा = मैं क्या जानता हूँ?।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू (सबसे) बड़ा दातार है, तू (सबसे) बड़ा समझदार है (तेरे बराबर का) कोई अन्य दूसरा नहीं है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू मेरा पति है, मैं तेरी भक्ति करनी नहीं जानता (तू स्वयं ही मेहर करे, तो कर सकता हूँ)।3।

तेरा महलु अगोचरु मेरे पिआरे बिखमु तेरा है भाणा ॥ कहु नानक ढहि पइआ दुआरै रखि लेवहु मुगध अजाणा ॥४॥२॥२०॥

पद्अर्थ: महलु = ठिकाना। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। बिखमु = मुश्किल। भाणा = रजा। दुआरै = (तेरे) दर पर। मुगध = मूर्ख। अजाणा = अंजान।4।

अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभु! जहाँ तू बसता है वह ठिकाना हम जीवों की ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, तेरी रजा में चलना बड़ा मुश्किल काम है। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) मैं तेरे दर पर गिर गया हूँ, मुझ मूर्ख को मुझ अंजान को (तू स्वयं हाथ दे के) बचा ले।4।2।0।

बसंतु हिंडोल महला ५ ॥ मूलु न बूझै आपु न सूझै भरमि बिआपी अहं मनी ॥१॥

पद्अर्थ: मूलु = जगत का मूल प्रभु। आपु = अपना आप। भरमि = भटकना में। बिआपी = फसी हुई। अहंमनी = अहंकार (के कारण)।1।

अर्थ: हे भाई! अहंकार के कारण (जीव की बुद्धि माया की खातिर) दौड़-भाग में फसी रहती है, (तभी जीव अपने) मूल-प्रभु के साथ सांझ नहीं डालता, और अपने आप को भी नहीं समझता।1।

पिता पारब्रहम प्रभ धनी ॥ मोहि निसतारहु निरगुनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! धनी = मालिक। मोहि = मुझे। मोहि निरगुनी = मुझ गुणहीन को।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे पिता पारब्रहम! हे मेरे मालिक प्रभु! मुझ गुणहीन को (संसार-समुंदर से) पार लंघा।1। रहाउ।

ओपति परलउ प्रभ ते होवै इह बीचारी हरि जनी ॥२॥

पद्अर्थ: ओपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। ते = से। हरि जनी = हरि के जनों ने।2।

अर्थ: हे भाई! संत-जनों ने तो यही विचार किया है कि जगत की उत्पक्ति और जगत का विनाश परमात्मा के हुक्म अनुसार ही होता है।2।

नाम प्रभू के जो रंगि राते कलि महि सुखीए से गनी ॥३॥

पद्अर्थ: नाम रंगि = नाम के प्यार में। राते = रंगे हुए। कलि महि = मानव जनम में जहाँ बेअंत विकार हमले करते रहते हैं। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। गनी = गनीं, मैं गिनता हूँ।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, मैं तो उनको ही सुखी जीवन वाले समझता हूँ।3।

अवरु उपाउ न कोई सूझै नानक तरीऐ गुर बचनी ॥४॥३॥२१॥

पद्अर्थ: तरीऐ = पार लांघा जा सकता है। बचनी = वचन से।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु के वचन पर चल कर ही संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है। कोई और तरीका नहीं सूझता (जिसकी मदद से पार हुआ जा सके)।4।3।21।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बसंतु हिंडोल महला ९ ॥

साधो इहु तनु मिथिआ जानउ ॥ या भीतरि जो रामु बसतु है साचो ताहि पछानो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! मिथिआ = नाशवान। तनु = शरीर। जानो = समझो। या भीतरि = इस (शरीर) में। बसतु है = बसता है। साचो = सदा कायम रहने वाला। ताहि = उस (परमात्मा) को।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनो! इस शरीर को नाशवान समझो। इस शरीर में जो पदार्थ बस रहा है, (सिर्फ) उसको सदा कायम रहने वाला जानो।1। रहाउ।

इहु जगु है स्मपति सुपने की देखि कहा ऐडानो ॥ संगि तिहारै कछू न चालै ताहि कहा लपटानो ॥१॥

पद्अर्थ: संपति = संपक्ति, धन। संपति सुपने की = वह धन जो मनुष्य कई बार सपने में पा लेता है पर असलियत में नहीं होता। देखि = देख के। कहा = कहाँ? क्यों? ऐडानो = अकड़ता है, अहंकार करता है। संगि तिहारै = तेरे साथ। चालै = चलता। ताहि = उस (धन) के साथ। लपटानो = चिपका हुआ है।1।

अर्थ: हे भाई! यह जगत उस धन के समान ही है जो सपने में मिल जाता है (और, जागते ही खत्म हो जाता है) (इस जगत को धन को) देख के अहंकार क्यों करता है? यहाँ कोई भी चीज़ (अंत समय में) तेरे साथ नहीं जा सकती। फिर इससे क्यों चिपका हुआ है?।1।

उसतति निंदा दोऊ परहरि हरि कीरति उरि आनो ॥ जन नानक सभ ही मै पूरन एक पुरख भगवानो ॥२॥१॥

नोट: यह शब्द ‘बसंत’ और ‘हिंडोल’ दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं।

पद्अर्थ: उसतति = (मनुष्य की) खुशामद। निंदा = चुगली। परहरि = दूर कर, छोड़ दे। कीरति = महिमा। उरि = हृदय में। आनो = लाओ, बसाओ। पूरनु = व्यापक।2।

अर्थ: हे भाई! किसी की खुशामद किसी की निंदा- ये दोनों काम छोड़ दे। सिर्फ परमात्मा की महिमा (अपने) हृदय में बसाओ। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) सिर्फ वह भगवान पुरख ही (सलाहने-योग्य है जो) सब जीवों में व्यापक है।2।1।

बसंतु महला ९ ॥ पापी हीऐ मै कामु बसाइ ॥ मनु चंचलु या ते गहिओ न जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पापी कामु = पापों में फसाने वाली काम-वासना। हीऐ मै = (मनुष्य के) हृदय में। बसाइ = टिका रहता है। या ते = इस कारण। गहिओ न जाइ = पकड़ा नहीं जा सकता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पापों में फसाने वाली काम-वासना (मनुष्य के) हृदय में टिकी रहती है, इस वास्ते (मनुष्य का) चंचल मन काबू में नहीं आ सकता।1। रहाउ।

जोगी जंगम अरु संनिआस ॥ सभ ही परि डारी इह फास ॥१॥

पद्अर्थ: जंगम = शिव उपासक साधु जो अपने सिर पर मोर के पँख बाँध के टल्लियाँ बजाते हुए दर-दर माँगते फिरते हैं। अरु = और। परि = ऊपर। डारी = डाली हुई, फेंकी हुई। फास = फंदा, फाही।1।

अर्थ: हे भाई! जोगी जंगम और सन्यासी (जो अपनी तरफ़ से माया का) त्याग कर गए हैं: इस सबके ऊपर ही (माया ने काम-वासना का) यह फंदा फेंका हुआ है।1।

जिहि जिहि हरि को नामु सम्हारि ॥ ते भव सागर उतरे पारि ॥२॥

अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाया है, वे सभी संसार-समुंदर (के विकारों) से पार लांघ जाते हैं।2।

जन नानक हरि की सरनाइ ॥ दीजै नामु रहै गुन गाइ ॥३॥२॥

पद्अर्थ: दीजै = दें। रहै गाइ = गाता रहे।3।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा का दास परमात्मा की शरण पड़ा रहता है (परमात्मा के दर पर वह अरजोई करता रहता है: हे प्रभु! अपने दास को अपना) नाम दे (ताकि तेरा दास तेरे) गुण गाता रहे (इस तरह वह कामादिक विकारों की मार से बचा रहता है)।3।2।

बसंतु महला ९ ॥ माई मै धनु पाइओ हरि नामु ॥ मनु मेरो धावन ते छूटिओ करि बैठो बिसरामु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! पाइओ = (गुरु से) पा लिया है। धावन ते = (माया की खातिर) दौड़ भाग करने से। छूटिओ = बच गया है। करि = कर के। बिसरामु = ठिकाना। करि बिसरामु = नाम धन में ठिकाना बना के।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! (जब का गुरु की शरण पड़ कर) मैंने नाम-धन हासिल किया है, मेरा मन (माया की खातिर) दौड़-भाग करने से बच गया है, (अब मेरा मन नाम-धन में) ठिकाना बना के बैठ गया है।1। रहाउ।

माइआ ममता तन ते भागी उपजिओ निरमल गिआनु ॥ लोभ मोह एह परसि न साकै गही भगति भगवान ॥१॥

पद्अर्थ: माइआ ममता = माया की ममता, माया इकट्ठी करने की लालसा। तन ते = (मेरे) शरीर से। निरमल गिआनु = निर्मल प्रभु का ज्ञान, शुद्ध-स्वरूप परमात्मा के साथ जान पहचान। परसि न साकै = (मुझे) छू नहीं सकते, मेरे नजदीक नहीं फटकते, मेरे पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। गही = पकड़ी।1।

अर्थ: हे मेरी माँ! (गुरु की किरपा से मेरे अंदर) शुद्ध-स्वरूप-परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन गई है (जिसके कारण) मेरे शरीर में से माया जोड़ने की (धन एकत्र करने की) लालसा दूर हो गई है। (जब से मैंने) भगवान की भक्ति हृदय में बसाई है लोभ और मोह ये मेरे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।1।

जनम जनम का संसा चूका रतनु नामु जब पाइआ ॥ त्रिसना सकल बिनासी मन ते निज सुख माहि समाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: संसा = सहम, संशय। चूका = समाप्त हो गया। रतनु नामु = अमूल्य हरि नाम। जब = जब से। मन ते = मन से। निज = अपना, अपने साथ सदा बने रहने वाला।2।

अर्थ: हे मेरी माँ! जब से (गुरु की कृपा से) मैंने परमात्मा का अमूल्य नाम पाया है, मेरा जन्मों-जन्मांतरों का सहम दूर हो गया है; मेरे मन में से सारी तृष्णा समाप्त हो गई है, अब मैं उस आनंद में टिका रहता हूँ जो सदा मेरे साथ बना रहने वाला है।2।

जा कउ होत दइआलु किरपा निधि सो गोबिंद गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि की स्मपै कोऊ गुरमुखि पावै ॥३॥३॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। दइआलु = दयावान। किरपा निधि = कृपा का खजाना प्रभु। सो = वह मनुष्य (एकवचन)। गावै = गाता है। संपै = धन। इह बिधि की संपै = इस तरह का धन। कोऊ = कोई विरला ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।3।

अर्थ: हे माँ! कृपा का खजाना गोबिंद जिस मनुष्य पर दयावान होता है, वह मनुष्य उसके गुण गाता रहता है। हे नानक! कह: (हे माँ!) कोई विरला मनुष्य इस किस्म का धन गुरु के सन्मुख रह के हासिल करता है।3।3।

बसंतु महला ९ ॥ मन कहा बिसारिओ राम नामु ॥ तनु बिनसै जम सिउ परै कामु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! कहा = कहाँ? क्यों? तनु = शरीर। बिनसै = नाश होता है। जम सिउ = जमों से। कामु = काम, वास्ता। परे = पड़ता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! तू परमात्मा का नाम क्यों भुलाए बैठा है? (जब) शरीर नाश हो जाता है, (तब परमात्मा के नाम के बिना) जमों से वास्ता पड़ता है।1। रहाउ।

इहु जगु धूए का पहार ॥ तै साचा मानिआ किह बिचारि ॥१॥

पद्अर्थ: पहार = पहाड़। तै = तू। साचा = सदा कायम रहने वाला। मानिआ = मान लिया है। किह बिचारि = क्या विचार के? क्या समझ के?।1।

अर्थ: हे मन! यह संसार (तो, मानो) धूएँ का पहाड़ है (जिसको हवा का एक बुल्ला उड़ा के ले जाता है)। हे मन! तू क्या समझ के (इस जगत को) सदा कायम रहने वाला माने बैठा है?।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh