श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनु दारा स्मपति ग्रेह ॥ कछु संगि न चालै समझ लेह ॥२॥

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। संपति = धन पदार्थ। ग्रेह = गृह, घर। संगि = साथ। कछु = कोई भी चीज़।2।

अर्थ: हे मन! (अच्छी तरह समझ ले कि) धन, स्त्री, जयदाद, घर- इनमें से कोई भी चीज़ (मौत के वक्त जीव के) साथ नहीं जाती।2।

इक भगति नाराइन होइ संगि ॥ कहु नानक भजु तिह एक रंगि ॥३॥४॥

पद्अर्थ: इक = सिर्फ। कहु = कह। नानक = हे नानक! भजु तिह = उस परमात्मा का भजन कर। एक रंगि = एक के प्यार में (जुड़ के)।3।

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) सिर्फ परमात्मा की भक्ति ही मनुष्य के साथ रहती है (इसलिए) सिर्फ परमात्मा के प्यार में (टिक के) उसका भजन किया कर।3।4।

बसंतु महला ९ ॥ कहा भूलिओ रे झूठे लोभ लाग ॥ कछु बिगरिओ नाहिन अजहु जाग ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहा भूलिओ = कहाँ भटक रहा है? रे = हे भाई! लोभि = लोभ में। लागि = लग के। नाहिन = नहीं। अजहु = अब भी। जागु = सचेत हो, समझदार बन।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! नाशवान दुनिया के लोभ में फंस के (हरि-नाम से टूट के) कहाँ भटकता फिरता है? अब तो समझदार बन, (और, परमात्मा का नाम जपा कर। अगर बाकी की उम्र स्मरण में गुजार ले, तो भी तेरा) कुछ बिगड़ा नहीं।1। रहाउ।

सम सुपनै कै इहु जगु जानु ॥ बिनसै छिन मै साची मानु ॥१॥

पद्अर्थ: सम = बराबर। जानु = समझ। छिन महि = एक छिन में। साची मानु = यह बात सच्ची मान।1।

अर्थ: हे भाई! इस जगत को सपने (में देखे पदार्थों) के बराबर समझ। इह बात सच्ची मान कि (यह जगत) एक छिन में नाश हो जाता है।1।

संगि तेरै हरि बसत नीत ॥ निस बासुर भजु ताहि मीत ॥२॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। नीत = सदा। निसि = रात। बासुर = दिन। भजु ताहि = उसका भजन किया कर। मीत = हे मित्र!।2।

अर्थ: हे मित्र! परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है। तू दिन-रात उसका ही भजन किया कर।2।

बार अंत की होइ सहाइ ॥ कहु नानक गुन ता के गाइ ॥३॥५॥

पद्अर्थ: बार अंत की = अंत के समय। सहाइ = सहायक, मददगार। ता के = उस (प्रभु) के।3।

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) आखिरी समय में परमात्मा ही मददगार बनता है। तू (सदा) उसके गुण गाया कर।3।5।

बसंतु महला १ असटपदीआ घरु १ दुतुकीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जगु कऊआ नामु नही चीति ॥ नामु बिसारि गिरै देखु भीति ॥ मनूआ डोलै चीति अनीति ॥ जग सिउ तूटी झूठ परीति ॥१॥

पद्अर्थ: जगु = जगत, माया ग्रसित जीव। चीति = चिक्त में। गिरै = गिरता है। देखु = (हे भाई!) देख। भीति = भिक्ति, चोगा। अनीति = बदनीति। सिउ = साथ। तूटी = टूट जाती है, सदा नहीं निभती।1।

अर्थ: (हे भाई!) देख, जिसके चिक्त में परमात्मा का नाम नहीं है वह माया-ग्रसित जीव कौए (के स्वभाव वाला) है; प्रभु का नाम भुला के (वह कौए की तरह) चौगे पर गिरता है, उसका मन (माया की ओर ही) डोलता रहता है, उसके चिक्त में (सदा) खोट ही होता है। पर दुनिया की माया के साथ यह प्रीति झूठी है, कभी भी साथ नहीं निभती।1।

कामु क्रोधु बिखु बजरु भारु ॥ नाम बिना कैसे गुन चारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिखु = जहर। बजरु = बज्र, कठोर। गुन चारु = गुणों वाला आचार (आचरण)।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) काम और क्रोध (मानो) जहर है (जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देता है), यह (जैसे) एक करड़ा बज्र बोझ है (जिसके नीचे दब के आत्मिक जीवन मर जाता है)। गुणों वाला आचरण (आत्मिक जीवन) परमात्मा का नाम स्मरण के बिना कभी बन ही नहीं सकता।1। रहाउ।

घरु बालू का घूमन घेरि ॥ बरखसि बाणी बुदबुदा हेरि ॥ मात्र बूंद ते धरि चकु फेरि ॥ सरब जोति नामै की चेरि ॥२॥

पद्अर्थ: बालू = रेत। बरखसि = बरखा होने पर। बाणी = बनावट। हेरि = देख। ते = से। धरि = बना देता है। फेरि = फेर के। नामै की = नाम की ही। चेरि = चेरी, दासी।2।

अर्थ: (हे भाई!) देख, जैसे बवंडर में रेत का घर बना हुआ हो, जैसे बरखा के वक्त बुलबुला बन जाता है (वैसे ही इस शरीर की भी हस्ती है, जिसको विधाता ने अपनी कुदरति का) चक्का घुमा के (पिता के वीर्य की) बूँद मात्र से रच दिया है (जैसे कोई कुम्हार चक्का घुमा के मिट्टी से बर्तन बना देता है)। (सो, हे भाई! यदि तूने आत्मिक मौत से बचना है तो अपनी जिंद को) उस प्रभु के नाम की दासी बना जिसकी ज्योति सब जीवों में मौजूद है।2।

सरब उपाइ गुरू सिरि मोरु ॥ भगति करउ पग लागउ तोर ॥ नामि रतो चाहउ तुझ ओरु ॥ नामु दुराइ चलै सो चोरु ॥३॥

पद्अर्थ: सिरिमोरु = शिरोमणी। करउ = मैं करूँ। पग तोर = तेरे चरणों में। नामि = नाम में। ओरु = पासा, आसरा। दुराइ = छुपा के। चलै = जीवन पथ पर चलता है।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीव पैदा करके सब के सिर पर शिरोमणि है, गुरु है। मेरी यह तमन्ना है कि मैं तेरी भक्ति करूँ, मैं तेरे चरणों में लगा रहूँ, तेरे नाम-रंग में रंगा रहूँ और तेरा ही पल्ला पकड़े रखूँ। जो मनुष्य तेरे नाम को (अपनी जिंद से) दूर-दूर रख के (जीवन-पथ पर) चलता है वह तेरा चोर है।3।

पति खोई बिखु अंचलि पाइ ॥ साच नामि रतो पति सिउ घरि जाइ ॥ जो किछु कीन्हसि प्रभु रजाइ ॥ भै मानै निरभउ मेरी माइ ॥४॥

पद्अर्थ: पति = इज्जत। अंचलि पाइ = पल्ले बाँध के। कीन्सि = करता है। माइ = हे माँ!।4।

अर्थ: हे मेरी माँ! जो मनुष्य (विकारों की) जहर ही पल्ले बाँधता है वह अपनी इज्जत गवा लेता है, पर जो व्यक्ति सदा-स्थिर परमात्मा के नाम-रंग में रंगा जाता है, वह प्रभु के देश में आदर से जाता है। (उसको ये यकीन होता है कि) प्रभु जो कुछ करता है अपनी रज़ा में करता है (किसी और का उसकी रज़ा में कोई दख़ल नहीं), और जो व्यक्ति उसके डर-अदब में रहने लग जाता है वह (इस जीवन-यात्रा में काम-क्रोध आदि की ओर से) बे-फिक्र हो के चलता है।4।

कामनि चाहै सुंदरि भोगु ॥ पान फूल मीठे रस रोग ॥ खीलै बिगसै तेतो सोग ॥ प्रभ सरणागति कीन्हसि होग ॥५॥

पद्अर्थ: कामनि = स्त्री। सुदरि = सुंदर। खीलै = खेलती है, ख्लि्लियाँ उड़ाती है। बिगसै = खिली है, खुश होती है। तेतो = उतना ही (ज्यादा)। कीन्सि = करता है।5।

अर्थ: सुंदर जीव-स्त्री दुनिया के बढ़िया पदार्थों के भोग की अभिलाषा करती है, पर ये पान फूल मीठे पदार्थों के सवाद- यह सब और, और विकार और रोग ही पैदा करते हैं। जितना ज्यादा वह इन भोगों में खिल्लियाँ उड़ाती है और खुश होती है उतना ही ज्यादा दुख-रोग व्यापता है। पर, जो जीव-स्त्री प्रभु की शरण में आ जाती है (वह रजा में चलती है उसको निष्चय हो जाता है कि) जो कुछ प्रभु करता है वही होता है।5।

कापड़ु पहिरसि अधिकु सीगारु ॥ माटी फूली रूपु बिकारु ॥ आसा मनसा बांधो बारु ॥ नाम बिना सूना घरु बारु ॥६॥

पद्अर्थ: पहिरसि = पहनती है। अधिकु = बहुत। माटी = मिट्टी की मूर्ति, काया। फूली = फूलती है, माण करती है। बारु = दरवाजा (जिस रास्ते से प्रभु से मिला जा सकता है)। घरु बारु = घर बार, हृदय।6।

अर्थ: जो जीव-स्त्री सुंदर-सुंदर कपड़े पहनती है बढ़-चढ़ के श्रृंगार करती है, अपनी काया को देख-देख के फूली नहीं समाती, उसका रूप उसको और ज्यादा विकारों की तरफ प्रेरित करता है, दुनियाँ की आशाएं और ख़्वाहिशें उसके (दसवें) दरवाजे को बँद कर देती हैं, परमात्मा के नाम के बिना उसका हृदय-घर सूना ही रहता है।6।

गाछहु पुत्री राज कुआरि ॥ नामु भणहु सचु दोतु सवारि ॥ प्रिउ सेवहु प्रभ प्रेम अधारि ॥ गुर सबदी बिखु तिआस निवारि ॥७॥

पद्अर्थ: गाछहु = जाओ (मुझे गलत रास्ते पर डालने के प्रयत्न ना करो)। पुत्री राज कुआरि = हे पुत्री! हे राज कुमारी! हे मेरी जिंदे! दोतु = अमृत बेला, सवेरा, दिन। सवारि = सवार के, संभाल के। अधारि = आसरे से। तिआस = माया की तृष्णा।7।

अर्थ: हे जिंदे! उठ उद्यम कर, तू सारे जगत के राजा-प्रभु की अंश है, तू राज-पुत्री है, तू राज कुमारी है, अमृत बेला की संभाल कर के नित्य उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम स्मरण कर। प्रभु के प्रेम के आसरे रह के उस प्रीतम की सेवा-भक्ति कर, और गुरु के शब्द में जुड़ के माया की तृष्णा को दूर कर। यह तृष्णा जहर है जो तेरे आत्मिक जीवन को मार देगी।7।

मोहनि मोहि लीआ मनु मोहि ॥ गुर कै सबदि पछाना तोहि ॥ नानक ठाढे चाहहि प्रभू दुआरि ॥ तेरे नामि संतोखे किरपा धारि ॥८॥१॥

पद्अर्थ: मोहनि = मोहन ने। मनु मोहि = मेरा मन। तोहि = (हे प्रभु) तुझे। ठाढे = खड़े हुए। दुआरि = दर पे। नामि = नाम में। किरपा धारि = मेहर कर।8।

अर्थ: हे नानक! (प्रार्थना कर और कह:) तुझ मोहन ने (अपने करिश्मों से) मेरा मन मोह लिया है, (कृपा कर ताकि) मैं गुरु के शब्द के माध्यम से तुझे पहचान सकूँ। हे प्रभु! हम जीव तेरे दर पर खड़े (विनती करते हैं), कृपा कर, तेरे नाम में जुड़ के हम संतोष धारण कर सकें।8।1।

बसंतु महला १ ॥ मनु भूलउ भरमसि आइ जाइ ॥ अति लुबध लुभानउ बिखम माइ ॥ नह असथिरु दीसै एक भाइ ॥ जिउ मीन कुंडलीआ कंठि पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: भरमसि = भटकता है। आइ जाइ = आता है जाता है, दौड़ भाग करता है। अति = बहुत। लुबध = लालची। लुभानउ = लालच में फसा हुआ है। बिखम माइ = मुश्किल माया, वह माया जिससे बचना बहुत मुश्किल है। एक भाइ = एक परमात्मा के प्यार में। मीन = मछली। कंठि = गले में।1।

अर्थ: (माया के मोह के कारण) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ मन भटकता है (माया की खातिर ही) दौड़-भाग करता रहता है, बड़ा लालची हुआ रहता है, उस माया के लालच में फसा रहता है, जिसके फंदे में से निकलना बहुत मुश्किल है (जब तक मन माया के अधीन रहता है, तब तक) यह कभी ठहराव की अवस्था में नहीं दिखता, एक प्रभु के प्रेम में (मगन) नहीं दिखता। जैसे मछली (भिक्ती के लालच में) अपने गले में कुंडी डलवा लेती है, (वैसे ही मन माया की गुलामी में अपने आप को फसा लेता है)।1।

मनु भूलउ समझसि साच नाइ ॥ गुर सबदु बीचारे सहज भाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साचि नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = प्रेम में। सहज भाइ = अडोलता के भाव में।1। रहाउ।

अर्थ: (माया के मोह के कारण) गलत राह पर पड़ा हुआ मन सदा-स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के ही) अपनी भूल को समझता है। (जब मन) गुरु के शब्द को विचारता है तब यह आत्मिक अडोलता के भाव में (टिकता है)।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh