श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनु भूलउ भरमसि भवर तार ॥ बिल बिरथे चाहै बहु बिकार ॥ मैगल जिउ फाससि कामहार ॥ कड़ि बंधनि बाधिओ सीस मार ॥२॥

पद्अर्थ: भवर तार = भौरे की तरह। बिल = इंद्रिय। बिरथे बिकार = व्यर्थ विकार। मैगल = हाथी (मदकल)। कामहार = कामातुर, काम अधीन। कड़ि = कुढ़ के, बँध के। बंधनि = बंधन से, रस्से से। सीस मार = सिर पे मार।2।

अर्थ: (माया के प्रभाव के कारण) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ मन भौरे की तरह भटकता है, मन इन्द्रियों के द्वारा बहुत सारे व्यर्थ के विकार करना चाहता है, यह मन कामातुर हाथी की तरह फंस जाता है जो जंजीरों से कड़ों से बाँधा जाता है और सिर पर चोटें सहता है।2।

मनु मुगधौ दादरु भगतिहीनु ॥ दरि भ्रसट सरापी नाम बीनु ॥ ता कै जाति न पाती नाम लीन ॥ सभि दूख सखाई गुणह बीन ॥३॥

पद्अर्थ: मुगधौ = मूर्ख। दादरु = मेंढक। दरि भ्रसट = दर से गिरा हुआ। बीनु = बगैर, बिना। गुणह बीन = गुणहीन।3।

अर्थ: मूर्ख मन भक्ति से वंचित रहता है, (यह मूर्ख मन, मानो) मेंढक है (जो नजदीक ही उगे हुए कमल के फूल की कद्र नहीं जानता)। (गलत राह पर पड़ा हुआ मन) प्रभु के दर से गिरा हुआ है, (जैसे) श्रापित है, परमात्मा के नाम से वंचित है। जो मनुष्य नाम से ख़ाली है उसकी ना कोई अच्छी जाति मानी जाती है ना अच्छी कुल, कोई उसका नाम तक नहीं लेता, वह आत्मिक गुणों से वंचित रहता है, सारे दुख ही दुख उसके साथी बने रहते हैं।3।

मनु चलै न जाई ठाकि राखु ॥ बिनु हरि रस राते पति न साखु ॥ तू आपे सुरता आपि राखु ॥ धरि धारण देखै जाणै आपि ॥४॥

पद्अर्थ: ठाकि = रोक के। सासु = एतबार। सुरता = ध्यान रखने वाला। राखु = रखवाला। धारि = धारण करके, पैदा करके। धारण = धरती, धरणी।4।

अर्थ: हे भाई! ये मन चंचल है, इसको रोक के रख ताकि यह (विकारों के पीछे) भटकता ना फिरे। परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाने के बिना ना कभी इज्जत मिलती है ना कोई ऐतबार करता है।

सृष्टि रच के परमात्मा स्वयं ही (इसकी आवश्यक्ताएं भी) जानता है (इस वास्ते, हे भाई! प्रभु के दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) तू स्वयं ही (हम जीवों की अरदासें) सुनने वाला है, और स्वयं ही हमारा रखवाला है।4।

आपि भुलाए किसु कहउ जाइ ॥ गुरु मेले बिरथा कहउ माइ ॥ अवगण छोडउ गुण कमाइ ॥ गुर सबदी राता सचि समाइ ॥५॥

पद्अर्थ: कहउ = मैं कहूँ। बिरथा = (व्यथा) दुख, पीड़ा। माइ = हे माँ! कमाइ = बिहाज के, कमा के। सचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में।5।

अर्थ: हे माँ! मैं प्रभु के बिना और किसको जा के कहूँ? प्रभु स्वयं ही (जीवों को) गलत राह पर डालता है, प्रभु स्वयं ही गुरु मिलाता है, सो, मैं गुरु के दर पर ही दिल का दुख कह सकता हूँ। गुरु की सहायता से ही गुण कमा के अवगुण त्याग सकता हूँ। जो मनुष्य गुरु के शब्द में मस्त रहता है, वह उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।5।

सतिगुर मिलिऐ मति ऊतम होइ ॥ मनु निरमलु हउमै कढै धोइ ॥ सदा मुकतु बंधि न सकै कोइ ॥ सदा नामु वखाणै अउरु न कोइ ॥६॥

पद्अर्थ: उतम = श्रेष्ठ। धोइ = धो के। बंधि न सकै = बाँध नहीं सकता।6।

अर्थ: यदि गुरु मिल जाए तो (मनुष्य की) मति श्रेष्ठ हो जाती है, मन पवित्र हो जाता है, वह मनुष्य अपने मन में से अहंकार की मैल धो के निकाल देता है, वह विकारों से सदा बचा रहता है, कोई (विकार) उसको काबू नहीं कर सकता, वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, कोई और (शुगल उसको अपनी तरफ खींच) नहीं सकते।6।

मनु हरि कै भाणै आवै जाइ ॥ सभ महि एको किछु कहणु न जाइ ॥ सभु हुकमो वरतै हुकमि समाइ ॥ दूख सूख सभ तिसु रजाइ ॥७॥

पद्अर्थ: भाणै = रजा में। आवै जाइ = भटकता है। हुकमि = हुक्म में।7।

अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश? इस मन की कोई पेश नहीं चलती) यह मन परमात्मा की रज़ा अनुसार (माया के मोह में) भटकता फिरता है, वह प्रभु स्वयं ही सब जीवों में बसता है (उसकी रज़ा के उलट) कोई हील-हुज्जत नहीं की जा सकती। हर जगह प्रभु का हुक्म ही चल रहा है, सारी सृष्टि प्रभु के हुक्म में ही बँधी रहती है। (जीव को होने वाले) सारे दुख और सुख उस परमात्मा की रजा के अनुसार ही हैं।7।

तू अभुलु न भूलौ कदे नाहि ॥ गुर सबदु सुणाए मति अगाहि ॥ तू मोटउ ठाकुरु सबद माहि ॥ मनु नानक मानिआ सचु सलाहि ॥८॥२॥

पद्अर्थ: अगाहि = अगाध। सलाहि = सलाह के, महिमा करके।8।

अर्थ: हे प्रभु! तू अमोध है, गलती नहीं करता, तूझमें कभी भी कोई कमी नहीं आती। (तेरी रजा के अनुसार) गुरु जिसको अपना शब्द सुनाता है उस मनुष्य की मति भी अगाध (गहरी) हो जाती है (भाव, वह भी गहरी समझ वाला हो जाता है और किसी तरह की कोई कमी-बेशी उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती)। हे प्रभु! तू बड़ा (पालनहार) मालिक है और गुरु के शब्द में बसता है (भाव, जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है उसको तेरे दर्शन हो जाते हैं)।

उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा कर के नानक का मन (उसकी याद में) पतीज गया है।8।2।

बसंतु महला १ ॥ दरसन की पिआस जिसु नर होइ ॥ एकतु राचै परहरि दोइ ॥ दूरि दरदु मथि अम्रितु खाइ ॥ गुरमुखि बूझै एक समाइ ॥१॥

पद्अर्थ: एकतु = एक (परमात्मा) में ही। परहरि = त्याग के। दोइ = द्वैत, किसी और आसरे की झाक। मथि = मथ के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के एक समाइ = एक प्रभु के नाम में लीन हो जाता है।1।

अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा के दर्शन की तमन्ना होती है, वह प्रभु के बिना और आसरे छोड़ के एक परमात्मा के नाम में ही मस्त रहता है। (जैसे दूध मथ के, बार-बार मथानी हिला के, मक्खन निकाला जाता है, वैसे ही) वह मनुष्य बार-बार स्मरण करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस चखता है, और उसका दुख-कष्ट दूर हो जाता है। गुरु की शरण पड़ के वह (परमात्मा के सही स्वरूप को) समझ लेता है, और उस एक प्रभु के नाम में लीन रहता है।1।

तेरे दरसन कउ केती बिललाइ ॥ विरला को चीनसि गुर सबदि मिलाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: केती = बेअंत दुनिया। बिललाइ = तरले लेती है, विलकती है। चीनसि = पहचानता है। मिलाइ = मिल के।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! बेअंत दुनिया तेरे दर्शन के लिए तरले लेती है, पर कोई विरला मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (तेरे स्वरूप को) पहचानता है।1। रहाउ।

बेद वखाणि कहहि इकु कहीऐ ॥ ओहु बेअंतु अंतु किनि लहीऐ ॥ एको करता जिनि जगु कीआ ॥ बाझु कला धरि गगनु धरीआ ॥२॥

पद्अर्थ: वखाणि = व्याख्या करके। कहीऐ = स्मरणा चाहिए। किनि = किस ने? जिनि = जिस प्रभु ने। कला = (कोई दिखता) साधन। धरि = धरती। गगनु = आकाश। धरीआ = टिकाया है।2।

अर्थ: वेद आदि धर्म पुस्तक भी व्याख्या करके यही कहते हैं कि एक उस परमात्मा को स्मरणा चाहिए जो बेअंत है और जिस का अंत किसी जीव ने नहीं पाया। वह एक स्वयं ही स्वयं कर्तार है जिसने जगत रचा है, जिसने किसी दिखाई देते सहारे के बिना ही धरती और आकाश को ठहराया हुआ है।2।

एको गिआनु धिआनु धुनि बाणी ॥ एकु निरालमु अकथ कहाणी ॥ एको सबदु सचा नीसाणु ॥ पूरे गुर ते जाणै जाणु ॥३॥

पद्अर्थ: धुनि = लगन। बाणी = महिमा। निरालमु = (निर् आलम्ब) जिसको किसी और आसरे की जरूरत नहीं। अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। नीसाणु = परवाना, राहदारी। ते = से। जाणु = सुजान मनुष्य।3।

अर्थ: समझदार मनुष्य पूरे गुरु से समझ लेता है कि परमात्मा की महिमा की लगन ही असल ज्ञान है और असल ध्यान (जोड़ना) है। एक परमात्मा ही ऐसा है जिसको किसी सहारे की आवश्यक्ता नहीं, उस अकथ प्रभु की महिमा करनी चाहिए, उसकी महिमा का शब्द ही (मनुष्य के पास जीव-पथ में) सच्चा परवाना है।3।

एको धरमु द्रिड़ै सचु कोई ॥ गुरमति पूरा जुगि जुगि सोई ॥ अनहदि राता एक लिव तार ॥ ओहु गुरमुखि पावै अलख अपार ॥४॥

अर्थ: जो कोई मनुष्य अपने हृदय में यह निश्चय बैठा लेता है कि सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरणा हीएक मात्र ठीक धर्म है, वही गुरु की मति का आसरा ले के सदा के लिए (विकारों के मुकाबले पर) अडोल हो जाता है; वह मनुष्य एक-तार तवज्जो जोड़ के अविनाशी प्रभु में मस्त रहता है, गुरु की शरण पड़ के वह मनुष्य अदृष्य और बेअंत प्रभु के दर्शन कर लेता है।4।

एको तखतु एको पातिसाहु ॥ सरबी थाई वेपरवाहु ॥ तिस का कीआ त्रिभवण सारु ॥ ओहु अगमु अगोचरु एकंकारु ॥५॥

पद्अर्थ: सारु = मूल, तत्व। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। एकंकारु = एक स्वयं ही स्वयं।5।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है उसे यकीन बन जाता है कि सारे जगत का मालिक परमात्मा ही सदा-स्थिर) एकम्-एक पातशाह है (और उसी का ही सदा-स्थिर रहने वाला) एकम्-एक तख़्त है, वह पातिशाह सब जगहों में व्यापक है (सारे जगत की कार चलाता हुआ भी वह सदा) बेफिक्र रहता है। सारा जगत उसी प्रभु का बनाया हुआ है, वही तीनों भवनों का मूल है, पर वह अपहुँच है, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, (हर जगह) वह स्वयं ही स्वयं है।5।

एका मूरति साचा नाउ ॥ तिथै निबड़ै साचु निआउ ॥ साची करणी पति परवाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥६॥

पद्अर्थ: मूरति = स्वरूप। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। तिथै = उस प्रभु की हजूरी में। निबड़ै = निबड़ता है, चलता है। साची = सदा एक रस रहने वाली सच्ची। करणी = आचरण। पति = इज्जत। परवाणु = मंजूर, स्वीकार।6।

अर्थ: (ये सारा संसार उसी) एक परमात्मा का स्वरूप है, उसका नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी दरगाह में सदा-स्थिर न्याय ही चलता है। जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभु की सलाह को अपना कर्तव्य बनाया है उसको सच्ची दरगाह में आदर मिलता है सम्मान मिलता है, दरगाह में वह स्वीकार होता है।6।

एका भगति एको है भाउ ॥ बिनु भै भगती आवउ जाउ ॥ गुर ते समझि रहै मिहमाणु ॥ हरि रसि राता जनु परवाणु ॥७॥

पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। आवउ जाउ = पैदा होना मरना (बना रहता है)। ते = से। समझि = शिक्षा ले के। मिहमाणु = मेहमान। रसि = रस में।7।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है उसको निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा की भक्ति परमात्मा के साथ प्यार ही एक-मात्र जीवन-राह है। जो मनुष्य भक्ति से वंचित है प्रभु के डर-अदब से खाली है उसको पैदा होने-मरने का चक्कर मिला रहता है। जो मनुष्य गुरु से शिक्षा ले के (जगत में) मेहमान (बन के) जीता है और परमात्मा के नाम-रस में मस्त रहता है वह मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh