श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1189 इत उत देखउ सहजे रावउ ॥ तुझ बिनु ठाकुर किसै न भावउ ॥ नानक हउमै सबदि जलाइआ ॥ सतिगुरि साचा दरसु दिखाइआ ॥८॥३॥ पद्अर्थ: इत उत = लोक परलोक में। देखउ = मैं देखता हूँ। सहजे = सहज में, आत्मिक अडोलता में। रावउ = मैं स्मरण करता हूँ। ठाकुर = हे ठाकुर! सबदि = शब्द से। सतिगुरि = गुरु ने।8। अर्थ: हे ठाकुर! मैं (गुरु की कृपा से) इधर-उधर (हर जगह) तुझे ही (व्यापक) देखता हूँ और आत्मिक अडोलता में टिक के तुझे स्मरण करता हूँ, तेरे बिना मैं किसी और के साथ प्रीति नहीं जोड़ता। हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द में जुड़ के अपने अहंकार को जला लिया है, गुरु ने उसको प्रभु के सदा के लिए टिके रहने वाले दर्शन करवा दिए हैं।8।3। बसंतु महला १ ॥ चंचलु चीतु न पावै पारा ॥ आवत जात न लागै बारा ॥ दूखु घणो मरीऐ करतारा ॥ बिनु प्रीतम को करै न सारा ॥१॥ पद्अर्थ: चंचल = हर वक्त भटकने के स्वभाव वाला, कभी ना टिक सकने वाला। न पावै पारा = (चंचलता का) परला छोर नहीं ढूँढ सकता, चंचलता में नहीं निकल सकता। आवत जात = आते जाते को, भटकते को। बारा = देर। मरीऐ = मर जाते हैं, आत्मिक मौत आ जाती है। करतारा = हे कर्तार! को = कोई और। सारा = संभाल।1। अर्थ: हे कर्तार! (माया के मोह में फंस के) चंचल (हो चुका) मन (अपने उद्यम से) चंचलता में से निकल नहीं सकता, (हर वक्त) भटकता फिरता है, थोड़ा सा भी समय नहीं लगता (भाव, रक्ती भर भी टिकता नहीं। इसका नतीजा ये निकलता है कि मनुष्य को) बहुत दुख सहना पड़ता है, और आत्मिक मौत हो जाती है। (इस बिपता में से) प्रीतम-प्रभु के बिना और कोई पक्ष मदद भी नहीं कर सकता।1। सभ ऊतम किसु आखउ हीना ॥ हरि भगती सचि नामि पतीना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभ = सारी दुनिया। ऊतम = (मुझसे) अच्छी। हीना = बुरा। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नामि = नाम में। पतीना = पतीज गया है।1। रहाउ। अर्थ: सारी दुनिया अच्छी है, (क्योंकि सब में परमात्मा स्वयं मौजूद है) मैं किसी को बुरा नहीं कह सकता। (पर असल में वही मनुष्य अच्छाई प्राप्त करता है, जिसका मन) परमात्मा की भक्ति में (जुड़ता है) प्रभु के सदा-स्थिर नाम में (जुड़ के) खुश होता है।1। रहाउ। अउखध करि थाकी बहुतेरे ॥ किउ दुखु चूकै बिनु गुर मेरे ॥ बिनु हरि भगती दूख घणेरे ॥ दुख सुख दाते ठाकुर मेरे ॥२॥ पद्अर्थ: अउखध = दवा, इलाज। किउ चूके = नहीं खत्म हो सकता। दाते = हे दातार!।2। अर्थ: दुख भी और सुख भी देने वाले हे पालनहार प्रभु! (मन को चंचलता के रोग से बचाने के लिए) मैं अनेक दवाईयाँ (भाव, कोशिशें) करके हार गई हूँ, पर प्यारे गुरु (की सहायता) के बिना ये दुख दूर नहीं होता। परमात्मा की भक्ति के बिना (मन को) अनेक ही दुख आ घेरते हैं।2। रोगु वडो किउ बांधउ धीरा ॥ रोगु बुझै सो काटै पीरा ॥ मै अवगण मन माहि सरीरा ॥ ढूढत खोजत गुरि मेले बीरा ॥३॥ पद्अर्थ: रोगु = (चंचलता का) रोग। धीरा = धैर्य। सो = वह (गुरु)। गुरि = गुरु ने। बीरा = वीर, सत्संगी, भाई।3। अर्थ: (चंचलता का यह) रोग बहुत बड़ा है (इसके होते हुए) मुझे आत्मिक शांति नहीं मिलती। (मेरे इस) रोग को गुरु ही समझ सकता है और वही मेरा दुख काट सकता है। (इस रोग के कारण) मेरे मन में मेरे शरीर में अवगुण ही अवगुण बढ़ रहे हैं। ढूँढते हुए और तलाश करते हुए (आखिर) गुरु ने मुझे साधु-संगत मिला दी।3। गुर का सबदु दारू हरि नाउ ॥ जिउ तू राखहि तिवैरहाउ ॥ जगु रोगी कह देखि दिखाउ ॥ हरि निरमाइलु निरमलु नाउ ॥४॥ पद्अर्थ: रहाउ = रहता हूँ। कह देखि = किस को ढूँढ के? निरमाइलु = पवित्र।4। अर्थ: (चंचलता के रोग की) दवाई गुरु का शब्द (ही) है परमात्मा का नाम (ही) है। (हे प्रभु!) जैसे तू रखे मैं उसी तरह रह सकता हूँ (भाव, मैं उसी जीवन-पथ पर चल सकता हूँ। मेहर कर, मुझे गुरु के शब्द में अपने नाम के साथ जोड़े रख)। जगत (स्वयं ही) रोगी है, मैं किस को ढूँढ के अपना रोग बताऊँ? एक परमात्मा ही पवित्र है, परमात्मा का नाम ही पवित्र है (गुरु की शरण पड़ के यह हरि-नाम ही खरीदना चाहिए)।4। घर महि घरु जो देखि दिखावै ॥ गुर महली सो महलि बुलावै ॥ मन महि मनूआ चित महि चीता ॥ ऐसे हरि के लोग अतीता ॥५॥ पद्अर्थ: घरि महि = हृदय में। घर = प्रभु का ठिकाना। गुर महली = बड़े ठिकाने वाला। महलि = प्रभु की हजूरी में। ऐसे = इस तरह, इस तरीके से। अतीता = निर्लिप।5। अर्थ: जो गुरु (भाव, गुरु ही) (अपने) हृदय में परमात्मा का निवास देख के और लोगों को दिखा सकता है, सबसे ऊँचे महल का वासी वह गुरु ही जीव को परमात्मा की हजूरी में बुला सकता है (और टिका सकता है)। जिस लोगों को गुरु प्रभु की हजूरी में पहुँचाता है उनके मन उनके चिक्त (बाहर भटकने से हट के) अंदर ही टिक जाते हैं, और इस तरह परमात्मा के सेवक (माया के मोह से) निर्लिप हो जाते हैं।5। हरख सोग ते रहहि निरासा ॥ अम्रितु चाखि हरि नामि निवासा ॥ आपु पछाणि रहै लिव लागा ॥ जनमु जीति गुरमति दुखु भागा ॥६॥ पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = ग़मी। निरासा = उपराम। चाखि = चख के। आपु = अपने आप को।6। अर्थ: (निर्लिप होए हुए हरि के सेवक) खुशी-ग़मी से ऊपर रहते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-अमृत चख के वे लोग परमात्मा के नाम में ही (अपने मन का) ठिकाना बना लेते हैं। जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को परख के परमात्मा की याद में तवज्जो जोड़े रखता है, वह मनुष्य-जीवन की बाज़ी जीत लेता है। गुरु की मति पर चलने से उसका (चंचलता वाला) दुख दूर हो जाता है।6। गुरि दीआ सचु अम्रितु पीवउ ॥ सहजि मरउ जीवत ही जीवउ ॥ अपणो करि राखहु गुर भावै ॥ तुमरो होइ सु तुझहि समावै ॥७॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। पीवउ = मैं पीता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मरउ = मैं (विकारों की तरफ से) मर जाता हूँ, हट जाता हूँ। जीवत ही = जीते जी, दुनिया में मेहनत-कमाई करते ही। जीवउ = मैं जी उठता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है।7। अर्थ: (मेहर करके) गुरु ने मुझे सदा-स्थिर रहने वाला नाम-अमृत दिया है, मैं (उस अमृत को सदा) पीता हूँ, (उस अमृत की इनायत से) आत्मिक अडोलता में टिक के मैं विकारों की तरफ़ से मुँह मोड़ चुका हूँ, दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए ही मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो रहा है। यदि गुरु मेहर करे, (भाव, गुरु की कृपा से ही) (मैं अरदास करता हूँ, और कहता हूँ- हे प्रभु!) मुझे अपना (सेवक) बना के (अपने चरणों में) रख। जो व्यक्ति तेरा (सेवक) बन जाता है, वह तेरे में ही लीन हो जाता है।7। भोगी कउ दुखु रोग विआपै ॥ घटि घटि रवि रहिआ प्रभु जापै ॥ सुख दुख ही ते गुर सबदि अतीता ॥ नानक रामु रवै हित चीता ॥८॥४॥ पद्अर्थ: दुख रोग = रोगों का दुख। विआपै = व्यापता, जोर डालता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। जापै = प्रतीत होता है, दिखता है। ते = से। अतीता = निर्लिप। हित = प्रेम।8। अर्थ: जो मनुष्य दुनिया के पदार्थों को भोगने में ही मस्त रहता है उसको रोगों का दुख आ दबाता है। पर, हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा हरेक घट में व्यापक दिख जाता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के सुखों-दुखों से निर्लिप रहता है, वह चिक्त के प्यार से (सदा) परमात्मा का नाम स्मरण करता है।8।4। बसंतु महला १ इक तुकीआ ॥ मतु भसम अंधूले गरबि जाहि ॥ इन बिधि नागे जोगु नाहि ॥१॥ पद्अर्थ: इक तुकीआ = वह अष्टपदियां जिस के हरेक बंद में एक-एक तुक है। भसम = राख। अंधुले = हे अंधे! हे अकल के अंधे! मतु गरबि जाहि = कहीं तू अहंकार में ना आ जाए। गरबि = अहंकार में। गरबि जाह = तू अहंकार में आ जाए। इन बिधि = इन तरीकों से। जोगु = परमात्मा के साथ मिलाप।1। अर्थ: हे अकल से अंधे! शरीर पर राख मल के कहीं तू अहंकार में ना जाए (कि तू कोई बहुत ही उत्तम कर्म कर रहा है) नंगे रह के (और शरीर पर राख मल के) इन ढंग-तरीकों से (परमात्मा के साथ) मिलाप नहीं हो सकता।1। मूड़्हे काहे बिसारिओ तै राम नाम ॥ अंत कालि तेरै आवै काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मूढ़े = हे मूर्ख! काहे = किस लिए? क्यों? अंत कालि = आखिरी समय।1। रहाउ। अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा का नाम क्यों बिसार दिया है? परमात्मा का नाम ही अंत समय में तेरे काम आ सकता है।1। रहाउ। गुर पूछि तुम करहु बीचारु ॥ जह देखउ तह सारिगपाणि ॥२॥ पद्अर्थ: पूछि = पूछ के, शिक्षा ले के। देखउ = मैं देखता हूँ। सारगि पाणि = वह परमात्मा जिसके हाथ में धनुष है। सारिग = धनुष। पाणि = हाथ।2। अर्थ: गुरु की शिक्षा ले के सोचो समझो (घर-घाट छोड़ बाहर भटकने से रब नहीं मिलता)। मैं तो जिधर देखता हूँ उधर ही (हर जगह) परमात्मा मौजूद है।2। किआ हउ आखा जां कछू नाहि ॥ जाति पति सभ तेरै नाइ ॥३॥ पद्अर्थ: आखा = मैं कहूँ, मान करूँ। किआ हउ आखा = मैं क्या मान कर सकता हूँ? पति = इज्जत। तेरै नाइ = तेरे नाम में (लीन होना)।3। अर्थ: हे प्रभु! (गृहस्थ में रह के ऊँची जाति अथवा दुनिया आदर-सत्कार का घमंड करना भी जीव की भारी भूल है) तेरे नाम में जुड़ना ही ऊँची जाति है तेरे नाम में जुड़ना ही दुनिया में इज्जत-मान है। हे प्रभु! मैं घमंड भी किस चीज़ पर करूँ? जो कुछ भी मैं अपना समझता हूँ ये मेरा अपना नहीं, (सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है, और है भी नाशवान)।3। काहे मालु दरबु देखि गरबि जाहि ॥ चलती बार तेरो कछू नाहि ॥४॥ पद्अर्थ: दरबु = धन। देखि = देख के। चलती बार = संसार से चलने के वक्त।4। अर्थ: (हे भाई! गृहस्थ को त्याग जाने वाला सिर्फ नंगे रहने और शरीर पर राख मलने का गुमान करता है। यह भूल है। पर, गृहस्थी धन का अहंकार करता है। यह भी मूर्खता है) माल-धन देख के तू अहंकार करता है। संसार से कूच करने के वक्त (धन-माल में से) कोई भी चीज़ तेरी नहीं होगी।4। पंच मारि चितु रखहु थाइ ॥ जोग जुगति की इहै पांइ ॥५॥ पद्अर्थ: पंच = कामादिक पाँचों विकार। थाइ = जगह में, वश में। पांइ = नींव। जोग जुगति = परमात्मा के साथ मिलाप का तरीका।5। अर्थ: (हे भाई!) कामादिक पाँचों को मार के अपने मन को वश में रख। परमात्मा के साथ मिलाप पैदा करने वाले तरीके की यही नींव है।5। हउमै पैखड़ु तेरे मनै माहि ॥ हरि न चेतहि मूड़े मुकति जाहि ॥६॥ पद्अर्थ: पैखड़ु = ढंगा, पशू के पिछले पैरों से बाँधा हुआ रस्सा जो उसको दौड़ने नहीं देता। मुकति जाहि = विकारों से स्वतंत्र हो सके।6। अर्थ: हे मूर्ख! (यदि तू त्यागी है तो त्याग का, और, अगर तू गृहस्थी है तो यदि धन-माल का तुझे मान है, यह) अहंकार तेरे मन में है जो तेरे मन को अटकाए बैठा है जैसे पशू की पिछली लात से बँधा रस्सा (ढंगा) उसको दौड़ने नहीं देता। तू (इस अहंकार के ढंगे के कारण) परमात्मा को नहीं स्मरण करता। और, विकारों से मुक्ति स्मरण से ही हो सकती है।6। मत हरि विसरिऐ जम वसि पाहि ॥ अंत कालि मूड़े चोट खाहि ॥७॥ पद्अर्थ: मत = कहीं ऐसा ना हो। जम वसि = जमों के वश में। पाहि = पड़ जाएं। चोट = मार कुटाई।7। अर्थ: (हे मूर्ख! सचेत हो) परमात्मा का नाम भुला के कहीं ऐसा ना हो कि तू जमों के वश पड़ जाए, और आखिरी वक्त में (पछतावे की) मार-कूट खाए।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |