श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुर सबदु बीचारहि आपु जाइ ॥ साच जोगु मनि वसै आइ ॥८॥

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। साच जोगु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का मिलाप।8।

अर्थ: (हे भाई!) अगर तू गुरु के शब्द को अपनी तवज्जो में टिका के रखे, तो इस तरह स्वै-भाव दूर हो सकेगा। (गुरु का शब्द विचारने की इनायत से वह प्रभु-नाम) मन में आ बसता है और सदा-स्थिर प्रभु के साथ सदा का मिलाप बना देता है।8।

जिनि जीउ पिंडु दिता तिसु चेतहि नाहि ॥ मड़ी मसाणी मूड़े जोगु नाहि ॥९॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। मूढ़े = हे मूर्ख! 9।

अर्थ: हे मूर्ख! जिस परमात्मा ने तुझे जिंद दी है शरीर दिया है उसको तू याद नहीं करता (और राख मल के मढ़ियों-मसाणों में डेरे लगाता है) मढ़ियों-मसाणों में बैठ के परमात्मा के साथ मिलाप नहीं बन सकता।9।

गुण नानकु बोलै भली बाणि ॥ तुम होहु सुजाखे लेहु पछाणि ॥१०॥५॥

पद्अर्थ: गुण बाणि = गुणों वाली वाणी, प्रभु की महिमा वाली वाणी। भली = अच्छी, सुंदर। सुजाख = देख सकने वाली आँखों वाला।10।

अर्थ: नानक तो परमात्मा की महिमा की वाणी उचारता है, प्रभु की महिमा वाली वाणी ही सुंदर वाणी है (यही परमात्मा के चरणों में जोड़ सकती है) इस बात को समझ (अगर तू भी प्रभु की महिमा करेगा तो) तुझे भी परमात्मा का दीदार करने वाली आत्मिक आँखें मिल जाएंगी।10।5।

बसंतु महला १ ॥ दुबिधा दुरमति अधुली कार ॥ मनमुखि भरमै मझि गुबार ॥१॥

पद्अर्थ: दुबिधा = दोचिक्ती, प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक। अधुली = अंधुली, अंधी। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा। मझि = में। गुबार = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा।1।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह के) अंधेरे में भटकता फिरता है (ठोकरें खाता फिरता है, उसको सही जीवन-पंध नहीं दिखता)। वह प्रभु के बग़ैर किसी और आसरे की झाक रखता है, (माया के मोह में) अंधी हो चुकी बुरी मति के पीछे लग के ही काम करता है।1।

मनु अंधुला अंधुली मति लागै ॥ गुर करणी बिनु भरमु न भागै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अंधुली मति = माया के मोह में अंधी हुई मति। भरमु = भटकना।1। रहाउ।

अर्थ: माया में अंधा हुआ मन उसी मति के पीछे चलता है जो (खुद भी) माया के मोह में अंधी हुई पड़ी है (और वह मन माया की भटकना में ही रहता है)। गुरु की बताई हुई कार किए बिना मन की यह भटकना दूर नहीं होती।1। रहाउ।

मनमुखि अंधुले गुरमति न भाई ॥ पसू भए अभिमानु न जाई ॥२॥

पद्अर्थ: न भाई = पसंद नहीं आती।2।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले अंधे मूर्खों को गुरु की (दी हुई) मति पसंद नहीं आती (वे देखने को भले ही मनुष्य हैं पर स्वभाव से) पशू हो चुके हैं, (उनके अंदर से) अकड़ नहीं जाती।2।

लख चउरासीह जंत उपाए ॥ मेरे ठाकुर भाणे सिरजि समाए ॥३॥

पद्अर्थ: सिरजि = पैदा करके समाए = लीन कर लेता है।3।

अर्थ: विधाता प्रभु चौरासी लाख जूनियों में बेअंत जीव पैदा करता है, जैसे उस ठाकुर की मर्जी होती है, पैदा करता है और नाश भी कर देता है।3।;

सगली भूलै नही सबदु अचारु ॥ सो समझै जिसु गुरु करतारु ॥४॥

पद्अर्थ: अचारु = आचार, अच्छे आचरण वाला जीवन।4।

अर्थ: पर वह सारी लोकाई कुमार्ग पर पड़ी रहती है जब तक गुरु का शब्द (हृदय में नहीं बसाती, और जब तक उस शब्द के अनुसार अपना) कर्तव्य नहीं बनाती। वही जीव (जीवन के सही रास्ते को) समझता है जिसका राहबर गुरु बनता है कर्तार बनता है।4।

गुर के चाकर ठाकुर भाणे ॥ बखसि लीए नाही जम काणे ॥५॥

पद्अर्थ: काणे = अधीनता।5।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सेवक बनते हैं वे पालनहार प्रभु को पसंद आ जाते हैं। उन्हें जमों की अधीनता नहीं रह जाती क्योंकि प्रभु ने उन पर मेहर कर दी होती है।5।

जिन कै हिरदै एको भाइआ ॥ आपे मेले भरमु चुकाइआ ॥६॥

पद्अर्थ: भाइआ = अच्छा लगा।6।

अर्थ: जिस लोगों को अपने हृदय में एक परमात्मा ही प्यारा लगता है, उनको परमात्मा स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है, उनकी भटकना दूर हो जाती है।6।

बेमुहताजु बेअंतु अपारा ॥ सचि पतीजै करणैहारा ॥७॥

पद्अर्थ: स्चि = सच से, स्मरण से। पतीजै = प्रसन्न होता है।7।

अर्थ: सारी सृष्टि का विधाता प्रभु-स्मरण के द्वारा ही प्रसन्न किया जा सकता है, वह बेमुथाज है बेअंत है उसकी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता।7।

नानक भूले गुरु समझावै ॥ एकु दिखावै साचि टिकावै ॥८॥६॥

पद्अर्थ: एकु = एक परमात्मा। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।8।

अर्थ: हे नानक! (माया के मोह में फंस के) गलत रास्ते पड़े मनुष्य को गुरु (ही) समझा सकता है। गुरु उसको एक परमात्मा का दीदार करवा देता है, उसको सदा-स्थिर परमात्मा (की याद) में जोड़ देता है।8।6।

बसंतु महला १ ॥ आपे भवरा फूल बेलि ॥ आपे संगति मीत मेलि ॥१॥

पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। मेलि = मेल में।1।

अर्थ: (गुरमुखि को दिखता है कि) परमात्मा स्वयं ही (सुगंधी लेने वाला) भौरा है, स्वयं ही बेल है और स्वयं ही बेलों पर उगे हुए फूल है। स्वयं ही संगति है स्वयं ही संगति में सत्संगी मित्रों को इकट्ठा करता है।1।

ऐसी भवरा बासु ले ॥ तरवर फूले बन हरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसी = इस तरीके से। बासु = सुगंधि। ले = लेता हैं तरवर = वृक्ष।1। रहाउ।

अर्थ: (गुरमुखि) भौरा इस तरह (प्रभु के नाम की) सुगंधि लेता है कि उसको जंगल के सारे वृक्ष हरे और फूलों से लदे हुए दिखाई देते हैं (गुरमुखि को सारी सृष्टि में हर जगह प्रभु की ही ज्योति रुमकती दिखती है)।1। रहाउ।

आपे कवला कंतु आपि ॥ आपे रावे सबदि थापि ॥२॥

पद्अर्थ: कवला = लक्ष्मी। कंतु = (लक्ष्मी का) पति। सबदि = (अपने) हुक्म से। थापि = पैदा करके।2।

अर्थ: (गुरमुखि को दिखता है कि) प्रभु खुद ही लक्ष्मी (माया) है और खुद ही लक्ष्मी का पति है, प्रभु खुद अपनी आज्ञा से सारी सृष्टि को पैदा करके खुद ही (दुनियां के पदार्थों को) भोग रहा है।2।

आपे बछरू गऊ खीरु ॥ आपे मंदरु थम्हु सरीरु ॥३॥

पद्अर्थ: बछरू = बछड़ा। खीरु = दूध।3।

अर्थ: प्रभु स्वयं ही बछड़ा है स्वयं ही (गाय का) दूध है, प्रभु स्वयं ही मंदिर है स्वयं ही (मन्दिर का) स्तम्भ (खंभा) है, (स्वयं ही जिंद है और) स्वयं ही शरीर।3।

आपे करणी करणहारु ॥ आपे गुरमुखि करि बीचारु ॥४॥

पद्अर्थ: करणहारु = सब कुछ करने के समर्थ। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।4।

अर्थ: प्रभु खुद ही करन-योग्य काम है, प्रभु खुद ही गुरु है और खुद ही गुरु के सन्मुख हो के अपने गुणों की विचार करता है।4।

तू करि करि देखहि करणहारु ॥ जोति जीअ असंख देइ अधारु ॥५॥

पद्अर्थ: देखहि = देखता है, संभाल करता है। देइ = दे के। अधारु = आसरा।5।

अर्थ: (गुरमुखि प्रभु-दर पर इस तरह अरदास करता है:) हे प्रभु! तू सब कुछ कर सकने की ताकत रखता है, तू जीव पैदा करके और बेअंत जीवों को अपनी ज्योति का सहारा दे के स्वयं ही सबकी संभाल करता है।5।

तू सरु सागरु गुण गहीरु ॥ तू अकुल निरंजनु परम हीरु ॥६॥

पद्अर्थ: गुण गहीरु = गुणों का गहरा (समुंदर)। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। हीरु = हीरा।6।

अर्थ: हे प्रभु! तू गुणों का सरोवर है, तू गुणों का अथाह समुंदर है। तेरी कोई खास कुल नहीं, तेरे ऊपर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, तू सबसे श्रेष्ठ हीरा है।6।

तू आपे करता करण जोगु ॥ निहकेवलु राजन सुखी लोगु ॥७॥

पद्अर्थ: करनजोगु = सब कुछ कर सकने वाला। निहकेवलु = वासना रहित। राजन = हे राजन!।7।

अर्थ: (गुरमुखि सदा इस प्रकार अरदास करता है:) हे राजन! तू स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है, और पैदा करने की सामर्थ्य रखता है।

हे राजन! तू पवित्र स्वरूप है, जिस पर तेरी मेहर होती है वह आत्मिक आनंद पाता है।7।

नानक ध्रापे हरि नाम सुआदि ॥ बिनु हरि गुर प्रीतम जनमु बादि ॥८॥७॥

पद्अर्थ: ध्रापे = तृप्त हो जाता है, अघा जाता है। सुआदि = स्वाद में। बादि = व्यर्थ।8।

अर्थ: हे नानक! जो भी मनुष्य परमात्मा के नाम के स्वाद में मगन होता है वह माया की तरफ से तृप्त हो जाता है, (उसको निष्चय हो जाता है कि) परमात्मा के बिना प्रीतम गुरु की शरण के बिना मनुष्य-जीवन व्यर्थ चला जाता है।8।7।

बसंतु हिंडोलु महला १ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

नउ सत चउदह तीनि चारि करि महलति चारि बहाली ॥ चारे दीवे चहु हथि दीए एका एका वारी ॥१॥

पद्अर्थ: नउ = नौ खण्ड। सत = सात द्वीप। चउदह = चौदह भवन। तीनि = तीन लोक (स्वर्ग, मातृ और पाताल)। चारि = चार युग। करि = बना के, पैदा करके। महलति = हवेली सृष्टि। चारि = खर ही खाणियों से (अंडज, जेरज, सेतज, उत्भुज)। बहाली = बसा दी। चारे दीवे = चार दीपक (चार वेद)। चहु हथि = चार ही युगों के हाथ में। एका एका वारी = अपनी अपनी बारी से।1।

अर्थ: (जब यहाँ हिन्दू राज था तो लोग हिन्दी के शब्द ही बरतते थे और कहा करते थे कि) हे प्रभु! (तूने) नौ खण्ड, सात द्वीप, चौदह भवन, तीन लोक और चार युग बना के तूने चार खाणियों के द्वारा इस (सृष्टि-) हवेली को बसा दिया है, तूने (चार वेद रूपी) चार दीए चारों युगों के हाथ में अपनी-अपनी बारी से पकड़ा दिए।1।

मिहरवान मधुसूदन माधौ ऐसी सकति तुम्हारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मिहरवान = हे मेहरबान प्रभु! मधुसूदन = हे मधू दैत्य को मारने वाले! माधौ = हे माधव! , हे माया के पति! (मा = माया। धव = पति)। सकति = शक्ति, स्मर्थां।1। रहाउ।

अर्थ: हे सब जीवों पर मेहर करने वाले! हे दुष्टों का नाश करने वाले! हे माया के पति प्रभु! तेरी इस तरह की ताकत है (कि जहाँ पहले हिन्दू धर्म का राज था सब लोग अपनी आम बोलचाल में हिन्दके शब्द बरतते थे, हाँ पर अब तूने मुसलमानी राज कर दिया है, साथ ही लोगों की बोली भी बदल गई है)।1। रहाउ।

घरि घरि लसकरु पावकु तेरा धरमु करे सिकदारी ॥ धरती देग मिलै इक वेरा भागु तेरा भंडारी ॥२॥

पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक शरीर में। पावकु = आग, (तेरी) ज्योति। धरमु = धर्मराज। सिकदारी = सरदारी। इक वेरा = एक बार में। भागु = भाग्य, हरेक जीव का प्रारब्ध। भंडारी = भण्डारा बाँटने वाला।2।

अर्थ: हरेक शरीर में तेरी ही ज्योति व्यापक है, ये सारे जीव तेरा लश्कर हैं, और इन जीवों पर (तेरा पैदा किया हुआ) धर्मराज सरदारी करता है, (तूने इस लश्कर की पालना के लिए) धरती (-रूप) देग बना दी जिसमें से एक ही बार में (भाव, अटूट भण्डारा) मिलता है, हरेक जीव का प्रारब्ध तेरा भण्डारा बाँट रहा है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh