श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1191 ना साबूरु होवै फिरि मंगै नारदु करे खुआरी ॥ लबु अधेरा बंदीखाना अउगण पैरि लुहारी ॥३॥ पद्अर्थ: नासाबूर = ना साबूर, बेसब्रा, सिदकहीन। फिरि = बार बार। नारदु = मन। अंधेरा = अंधकार। बंदीखाना = कैदखाना। पैरि = पैर में। लोहारी = लोहे की बेड़ी।3। अर्थ: (हे प्रभु! तेरा इतना बेअंत भण्डारा होते हुए भी जीव का मन) नारद (जीव के लिए) दुख पैदा करता है, सिदक-हीन मन बार-बार (पदार्थ) माँगता रहता है। लोभ जीव के लिए अंधेरे भरा कैदखाना बना हुआ है, और इसके अपने कमाए पाप इसके पैर में लोहे की बेड़ी बने हुए हैं।3। पूंजी मार पवै नित मुदगर पापु करे कुोटवारी ॥ भावै चंगा भावै मंदा जैसी नदरि तुम्हारी ॥४॥ पद्अर्थ: पूंजी = (लोभ ग्रसित जीव की) संपत्ति। मुदगर मार = मुहलों की मार। कुोटवारी = कोतवाली। भावै = अगर तुझे अच्छा लगे।4। नोट: ‘कुोटवारी’ में से अक्षर ‘क’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘कोटवारी’ है यहाँ ‘कुटवारी’ पढ़ना है। अर्थ: (इस लब के कारण) जीव की संपत्ति यह है कि इसको, मानो, नित्य मुसलों की मार पड़ रही है, और इसका अपना कमाया पाप (-जीवन) इसके सिर पर कोतवाली कर रहा है। पर, हे प्रभु! (जीव के भी क्या वश?) जैसी तेरी निगाह हो वैसा ही जीव बन जाता है, तुझे अच्छा लगे तो ठीक, तुझे अच्छा लगे तो बुरा बन जाता है (ये थी लोगों की बोली जो हिन्दू-राज के समय आम तौर पर बरती जाती थी)।4। आदि पुरख कउ अलहु कहीऐ सेखां आई वारी ॥ देवल देवतिआ करु लागा ऐसी कीरति चाली ॥५॥ पद्अर्थ: आदि पुरख कउ = उसको जिसे पहले जब हिन्दू धर्म का प्रभाव था ‘आदि पुरख’ कहा जाता था। अलहु कहीऐ = अब ‘अल्लाह’ कहा जाता है मुसलमानी राज में। सेखां वारी = मुसलमानों (की राज करने) की बारी (आ गई है)। देवल = (देव = आलय) देवताओं के मन्दिर। करु = कर, टैक्स, दण्ड। कीरति = रिवाज।5। अर्थ: पर, अब मुसलमानी राज का वक्त है। (जिसको पहले हिन्दकी बोली में) ‘आदि पुरख’ कहा जाता था अब उसको ‘अल्ला’ कहा जा रहा है। अब ये रिवाज चल पड़ा है कि (हिन्दू जिस मन्दिरों में देवताओं की पूजा करते हैं, उन) दैव-मन्दिरों पर टैक्स लगाया जा रहा है।5। कूजा बांग निवाज मुसला नील रूप बनवारी ॥ घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी ॥६॥ पद्अर्थ: कूजा = लोटा। निवाज = नमाज़। मुसला = मुसला। नील रूप = नीला रूप, नीले रंग के कपड़े। बनवारी = जगत का मालिक प्रभु। घरि घरि = हरेक घर में। मीआ = (शब्द पिता की जगह पिउ वास्ते शब्द) मीआं। अवर = और ही।6। अर्थ: अब लोटा, बांग, नमाज़, मुसला (प्रधान हैं), परमात्मा की बँदगी करने वालों ने नीले वस्त्र पहने हुए हैं। अब तेरी (भाव, तेरे बँदों की) बोली ही और हो गई है, हरेक घर में सब जीवों के मुँह पर (शब्द ‘पिता’ की जगह) शब्द ‘मीआं’ प्रधान है।6। जे तू मीर महीपति साहिबु कुदरति कउण हमारी ॥ चारे कुंट सलामु करहिगे घरि घरि सिफति तुम्हारी ॥७॥ पद्अर्थ: मीर = पातिशाह। महीपति = धरती का पति (मही = धरती)। कुदरति = ताकत, वटक, पेश। चारे कुंट = चारों कूटों के जीव।7। अर्थ: हे पातशाह! तू धरती का पति है, मालिक है, अगर तू (यही पसंद करता है कि यहाँ इस्लामी राज हो जाए) तो हम जीवों की क्या ताकत है (कि गिला कर सकें)? चारों कुंटों के जीव, हे पातशाह! तुझे सलाम करते हैं (तेरे आगे ही झुकते हैं) हरेक घर में तेरी महिमा हो रही है (तेरे आगे ही तेरे पैदा किए हुए) बँदे अपनी तक़लीफें बता सकते हैं।7। तीरथ सिम्रिति पुंन दान किछु लाहा मिलै दिहाड़ी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई मेका घड़ी सम्हाली ॥८॥१॥८॥ पद्अर्थ: किछु दिहाड़ी = थोड़ी सी मजदूरी के रूप में। लाहा = लाभ। नामु मेका घड़ी समाली = यदि मनुष्य परमात्मा का नाम एक घड़ी मात्र चेते करे।8। अर्थ: (पर, तीर्थों मन्दिरों आदि पर रोक और गिले की भी आवश्यक्ता नहीं क्योंकि) तीर्थों के स्नान, स्मृतियों के पाठ और दान-पुण्य आदि का अगर कोई लाभ है तो वह (तिल-मात्र ही है) थोड़ी सी मजदूरी के रूप में ही। हे नानक! अगर कोई मनुष्य परमात्मा का नाम एक घड़ी मात्र. ही याद करे तो उसको (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।8।1।8। नोट: यह अष्टपदी ‘घरु 2’ की है। पहली 7 अष्टपदियां ‘घरु1’ की हैं। कुल जोड़ 8 है। नोट: ये अष्टपदी राग ‘बसंत’ और राग ‘हिंडोल’ दोनों मिश्रित रागों में गाई जानी है। बसंतु हिंडोलु घरु २ महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कांइआ नगरि इकु बालकु वसिआ खिनु पलु थिरु न रहाई ॥ अनिक उपाव जतन करि थाके बारं बार भरमाई ॥१॥ पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। नगरि = नगर में। कांइआ नगरि = शरीर नगर में। बालकु = अंजान मन। खिनु पल = छिन भर के समय के लिए भी। थिरु = अडोल। उपाव = (शब्द ‘उवाउ’ का बहुवचन)। करि = कर के। बारं बार = बार-बार। भरमाई = भटकता फिरता है।1। अर्थ: हे भाई! शरीर-नगर में (ये मन) एक (ऐसा) अंजान बालक बसता है जो एक पल के लिए भी टिका नहीं रह सकता। (इसको टिकाने के लिए) अनेक उपाय अनेक यत्न कर के थक जाते हैं, पर (यह मन) बार-बार भटकता फिरता है।1। मेरे ठाकुर बालकु इकतु घरि आणु ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ भजु राम नामु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक! इकतु घरि = एक ठिकाने पर। आणु = ला के, टिका दे। त = तब। पाईऐ = मिलता है। भजु = स्मरण किया कर। नीसाणु = (प्रभु के दर पर पहुँचने के लिए) राहदारी, परवाना।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मालिक! (हम जीवों के इस) अंजान मन को तू ही एक ठिकाने पर लगा (तेरी मेहर से मन भटकने से हट के ठहराव में आ सकता है)। हे भाई! जब गुरु मिलता है तब पूरन परमात्मा मिल जाता है (तब मन भी टिक जाता है)। (इस वास्ते, हे भाई! गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का नाम जपा कर (ये हरि-नाम ही परमात्मा के दर पर पहुँचने के लिए) राहदारी है।1। रहाउ। इहु मिरतकु मड़ा सरीरु है सभु जगु जितु राम नामु नही वसिआ ॥ राम नामु गुरि उदकु चुआइआ फिरि हरिआ होआ रसिआ ॥२॥ पद्अर्थ: मिरतकु = मुर्दा। मढ़ा = मढ़, मिट्टी का ढेर। सभु जगु = सारा जगत। जितु = जिस में, यदि इसमें। गुरि = गुरु ने। उदकु = जल, पानी। हरिआ = हरा भरा, आत्मिक जीवन वाला। रसिआ = रस दार, तरावट वाला।2। अर्थ: हे भाई! अगर इस (शरीर) में परमात्मा का नाम नहीं बसा, तो यह मुर्दा है तो यह निरा मिट्टी का ढेर है। हे भाई! सारा जगत ही नाम के बिना मुर्दा है। हे भाई! परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन देने वाला) जल है, गुरु ने (जिस मनुष्य के मुँह में ये नाम-) जल टपका दिया, वह मनुष्य फिर आत्मिक जीवन वाला हो गया, वह मनुष्य आत्मिक तरावट वाला हो गया।2। मै निरखत निरखत सरीरु सभु खोजिआ इकु गुरमुखि चलतु दिखाइआ ॥ बाहरु खोजि मुए सभि साकत हरि गुरमती घरि पाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: निरखत निरखत = अच्छी तरह देखते देखते। सभ = सारा। गुरमुखि = गुरु ने। चलतु = तमाशा। बाहर = बाहरी स्तर, दुनिया, जगत। खोजि = खोज के। मूए = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। गुरमती = गुरु की मति पर चल के। घरि = हृदय घर में।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए सारे मनुष्य दुनिया तलाश-तलाश के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। पर गुरु ने (मुझे) एक अजब तमाशा दिखाया है, मैंने बड़े ध्यान से अपना सारा शरीर (ही) खोजा है, गुरु की मति पर चल के मैंने अपने हृदय-घर में ही परमात्मा को पा लिया है।3। दीना दीन दइआल भए है जिउ क्रिसनु बिदर घरि आइआ ॥ मिलिओ सुदामा भावनी धारि सभु किछु आगै दालदु भंजि समाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: दीना दीन = कंगालों से कंगाल, महा कंगाल। दइआल = दयावान। बिदर = कृष्ण जी का पवित्र भक्त। ये व्यास ऋषि का पुत्र था। कृष्ण जी दुर्योधन के महलों में जाने की जगह भक्त बिदर के घर ठहरे थे। “ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै।” भावनी = श्रद्धा। धारि = धार के। आगै = (घर पहुँचने से) पहले ही। दालदु = दरिद्रता, गरीबी। भंजि = दूर कर के, नाश करके।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा बड़े-बड़े गरीबों पर (सदा) दया करता आया है जैसे कि कृष्ण (गरीब) बिदर के घर आए थे। और, जब (गरीब) सुदामा श्रद्धा धार के (कृष्ण जी को) मिला था, तो (वापस उसके अपने घर पहुँचने से) पहले ही उसकी गरीबी दूर करके हरेक पदार्थ (उसके घर) पहुँच चुका था।4। राम नाम की पैज वडेरी मेरे ठाकुरि आपि रखाई ॥ जे सभि साकत करहि बखीली इक रती तिलु न घटाई ॥५॥ पद्अर्थ: की = के कारण। पैज = इज्जत। वडेरी = बहुत बड़ी। ठाकुरि = ठाकुर ने। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। करहि = (बहुवचन) करने। बखीली = (नाम जपने वाले की) निंदा, चुगली।5। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (जपने वालों) की बहुत ज्यादा इज्जत (लोक-परलोक में होती है। भक्तों की ये इज्जत सदा से ही) मालिक-प्रभु ने स्वयं (ही) बचाई हुई है। परमात्मा से टूटे हुए सारे लोग (मिल के भक्त जनों की) निंदा करें, (तो भी परमात्मा उनकी इज्जत) रक्ती भर भी घटने नहीं देता।5। जन की उसतति है राम नामा दह दिसि सोभा पाई ॥ निंदकु साकतु खवि न सकै तिलु अपणै घरि लूकी लाई ॥६॥ पद्अर्थ: जन = परमात्मा का भक्त। उसतति = शोभा। दिसि = दिशा। दहदिसि = दसों दिशाओं में, सारे जगत में। साकतु = (एकवचन) प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य। खवि न सकै = सह नहीं सकता। घरि = हृदय घर में। लूकी = चुआती, लूती, उक्साने व भड़काने वाला कथन व हरकत, आग जलाने के लिए आग की तीली व कोई उपाय।6। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (जपने से परमात्मा के) सेवक की (लोक-परलोक में) शोभा होती है, (सेवक नाम की इनायत से) हर तरफ शोभा कमाता है। पर परमात्मा से टूटा हुआ निंदक मनुष्य (सेवक की हो रही शोभा को) रक्ती भर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता (इस तरह वह निंदक सेवक का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वह) अपने हृदय-घर में (ही ईष्या और जलन की) आग लगाए रखता है (निंदक अपने आप ही अंदर से जलता-भुजता रहता है)।6। जन कउ जनु मिलि सोभा पावै गुण महि गुण परगासा ॥ मेरे ठाकुर के जन प्रीतम पिआरे जो होवहि दासनि दासा ॥७॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। पावै = हासिल करता है। परगासा = प्रकाश। प्रीतम पिआरे = प्रभु प्रीतम को प्यारे लगते हैं। जो = जो। होवहि = (बहुवचन) होते हैं। दासनि दासा = दासों के दास।7। अर्थ: हे भाई! (निंदक तो अंदर-अंदर से जलता है, दूसरी तरफ़) परमात्मा का भक्त प्रभु के भक्त को मिल के शोभा कमाता है, उसके आत्मिक गुणों में (भक्त-जन को मिल के) और गुणों में बढ़ोक्तरी होती है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के दासों के दास बनते हैं, वे परमात्मा को प्यारे लगते हैं।7। आपे जलु अपर्मपरु करता आपे मेलि मिलावै ॥ नानक गुरमुखि सहजि मिलाए जिउ जलु जलहि समावै ॥८॥१॥९॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। अपरंपरु करता = बेअंत परमात्मा। मेलि = (गुरु की) संगति में। मिलावै = मिलाता है। गुरमुखि = गुरु से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जलहि = जल में ही।8। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा सब पर दया करने वाला है। वह साकत निंदक को भी बचाने वाला है। साकत-निंदक की ईष्या की आग बुझाने के लिए) वह बेअंत कर्तार स्वयं ही जल है, वह स्वयं ही (निंदक को भी गुरु की) संगति में (ला के) जोड़ता है। हे नानक! परमात्मा गुरु की शरण डाल के (निंदक को भी) आत्मिक अडोलता में (इस प्रकार) मिला देता है जैसे पानी पानी में मिल जाता है।8।1।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |