श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1192 बसंतु महला ५ घरु १ दुतुकीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सुणि साखी मन जपि पिआर ॥ अजामलु उधरिआ कहि एक बार ॥ बालमीकै होआ साधसंगु ॥ ध्रू कउ मिलिआ हरि निसंग ॥१॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। साखी = (गुरु की) शिक्षा। मन = हे मन! जपि पिआर = प्यार से (परमात्मा का नाम) जपा कर। उधरिआ = (संसार समुंदर से) पार लांघ गया। कहि = कह के, स्मरण करके। एक बार = एक ही बार में, सदा के लिए। साध संगु = गुरु की संगति। कउ = को। निसंग = शर्म उतार के।1। अर्थ: हे (मेरे) मन! (गुरु की) शिक्षा सुन के प्रेम से (परमात्मा का नाम) जपा कर। अजामल (प्रभु का नाम) जप के सदा के लिए (संसार-समुंदर से) पार लांघ गया। बाल्मीकि को गुरु की संगति प्राप्त हुई (उसने भी हरि-नाम जपा, और उसका पार-उतारा हो गया)। (नाम जपने की इनायत से) ध्रुव को परमात्मा प्रत्यक्ष हो के मिल गया।1। तेरिआ संता जाचउ चरन रेन ॥ ले मसतकि लावउ करि क्रिपा देन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जाचउ = याचना, मैं माँगता हूँ। चरन रेन = चरणों की धूल। ले = लेकर। मसतकि = माथे पर। लावउ = मैं लगाऊँ। करि क्रिपा देन = देने की कृपा कर।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, देने की कृपा कर (वह चरण-धूल ले के) मैं अपने माथे पर लगाऊँगा।1। रहाउ। गनिका उधरी हरि कहै तोत ॥ गजइंद्र धिआइओ हरि कीओ मोख ॥ बिप्र सुदामे दालदु भंज ॥ रे मन तू भी भजु गोबिंद ॥२॥ पद्अर्थ: गनिका = वेश्वा। उधरी = (संसार समुंदर से) पार लांघ गई। कहै = कहता है। तोत = तोता। गज = हाथी। गज इंद्र = बड़ा हाथी। कीओ = कर दिया। मोख = बंधनों से आजाद। बिप्र = ब्राहमण। दालदु = गरीबी। भंज = नाश (किया)। भजु = जपा कर।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! (ज्यों-ज्यों) तोता राम-नाम उचारता था (उसको राम-नाम सिखाने के लिए गनिका भी राम-नाम उचारती थी, और, नाम-जपने की इनायत से) गनिका (संसार-समुंदर से) पार लांघ गई। (श्राप के कारण गंधर्व से बने हुए) बड़े हाथी ने (सरोवर में तंदूए की जकड़ में फंस के) परमात्मा का ध्यान धरा, परमात्मा ने उसको (तंदूए की) जकड़ से बचा लिया। सुदामा ब्राहमण की (कृष्ण जी ने) गरीबी काट दी। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा का भजन किया कर।2। बधिकु उधारिओ खमि प्रहार ॥ कुबिजा उधरी अंगुसट धार ॥ बिदरु उधारिओ दासत भाइ ॥ रे मन तू भी हरि धिआइ ॥३॥ पद्अर्थ: बधिकु = शिकारी। उधारिआ = (संसार समुंदर से) पार लांघ गया। खमि = तीर से। खमि प्रहार = (कृष्ण जी को) तीर से मारने वाला। कुबिजा = कुब्बी कमर वाली। अंगुसट = अंगूठा। अंगुसट धार = (कृष्ण जी के) अंगूठे के छूने से। दास = सेवक। दासत भाइ = दासत्व भाव से, सेवा भाव से।3। अर्थ: हे (मेरे) मन! (कृष्ण जी को) तीर से मारने वाले शिकारी को (कृष्ण जी ने संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया। (कृष्ण जी के) अंगूठे की छूह से कुबिजा का उद्धार हो गया। बिदर को (उसकी) सेवा भावना के कारण (कृष्ण जी ने) पार लंघा दिया। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा का ध्यान धरा कर।3। प्रहलाद रखी हरि पैज आप ॥ बसत्र छीनत द्रोपती रखी लाज ॥ जिनि जिनि सेविआ अंत बार ॥ रे मन सेवि तू परहि पार ॥४॥ पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत। बसत्र = कपड़े। बसत्र छीनत = वस्त्र छीने जाने के वक्त। जिनि = जिस ने। जिनि जिनि = जिस जिस ने। सेविआ = शरण ली, आसरा लिया, भक्ति की। अंत बार = आखिरी समय में। परहि पार = तू (संसार समुंदर से) पार लांघ जाएगा।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! प्रहलाद की इज्जत परमात्मा ने स्वयं रखी। (दुर्योधन की सभा में द्रोपदी को नग्न करने के लिए जब) द्रोपदी के वस्त्र उतारे जा रहे थे, तब (कृष्ण जी ने उसकी) इज्जत बचाई। हे मन! जिस-जिस ने भी मुश्किल के वक्त परमात्मा का पल्ला पकड़ा (परमात्मा ने उसकी इज्जत रखी)। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा की शरण पड़, (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।4। धंनै सेविआ बाल बुधि ॥ त्रिलोचन गुर मिलि भई सिधि ॥ बेणी कउ गुरि कीओ प्रगासु ॥ रे मन तू भी होहि दासु ॥५॥ पद्अर्थ: धंनै = धंना (भक्त) ने। सेविआ = भक्ति की। बाल बुधि = बालकों वाली बुद्धि प्राप्त कर के, वैर विरोध वाला स्वभाव मिटा के (छोटे बच्चों की ये विशेषता होती है कि उनके अंदर किसी के वास्ते भी वैर विरोध नहीं होता)। गुर मिलि = गुरु को मिल के। सिधि = (आत्मिक जीवन में) सफलता। कउ = को। गुरि = गुरु ने। प्रगास = आत्मिक जीवन का प्रकाश। होहि = हो जा। दासु = (परमात्मा का) सेवक।5। अर्थ: हे (मेरे) मन! धंन्ना ने (गुरु की शरण पड़ के) बालकों वाली (निर्वैर) बुद्धि प्राप्त करके परमात्मा की भक्ति की। गुरु को मिल के त्रिलोचन को भी आत्मिक जीवन की सफलता प्राप्त हुई। गुरु ने (भक्त) बैणी को आत्मिक जीवन की रौशनी बख्शी। हे (मेरे) मन! तू भी परमात्मा का भक्त (इसी तरह) बन।5। जैदेव तिआगिओ अहमेव ॥ नाई उधरिओ सैनु सेव ॥ मनु डीगि न डोलै कहूं जाइ ॥ मन तू भी तरसहि सरणि पाइ ॥६॥ पद्अर्थ: अहंमेव = अहंकार। उधरिओ = (संसार समुंदर से) पार लांघ गया। सेव = भक्ति (कर के)। मनु = (सैण का) मन। डीगि = गिर के। कहूँ जाइ = किसी भी जगह। मन = हे मन! तरसहि = पार लांघ जाएगा। पाइ = पा के, पड़ के।6। अर्थ: हे (मेरे) मन! (गुरु को मिल के) जैदेव ने (अपने ब्राहमण होने का) गुमान छोड़ा। सैण नाई (गुरु की शरण पड़ कर) भक्ति की इनायत से (संसार-समुंदर से) पार लांघ गया, (सैण का) मन किसी भी जगह (माया की ठोकरों से) गिर के डोलता नहीं था। हे (मेरे) मन! (गुरु की) शरण पड़ कर तू भी (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाएगा।6। जिह अनुग्रहु ठाकुरि कीओ आपि ॥ से तैं लीने भगत राखि ॥ तिन का गुणु अवगणु न बीचारिओ कोइ ॥ इह बिधि देखि मनु लगा सेव ॥७॥ पद्अर्थ: जिह = जिस पर। अनुग्रहु = कृपा। ठाकुरि = तुझ ठाकुर ने। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। राखि लीने = (संसार समुंदर से) बचा लिए। इह बिधि = यह तरीका। देखि = देख के।7। अर्थ: हे प्रभु! जिस भक्त-जनों पर तू ठाकुर ने स्वयं मेहर की, उनको तूने (संसार-समुंदर में से) बचा लिया, तूने उनके ना कोई गुण ना ही कोई अवगुण बिचारे। हे प्रभु! तेरी इस किस्म की दयालता देख के (मेरा भी) मन (तेरी) भक्ति में लग गया है।7। कबीरि धिआइओ एक रंग ॥ नामदेव हरि जीउ बसहि संगि ॥ रविदास धिआए प्रभ अनूप ॥ गुर नानक देव गोविंद रूप ॥८॥१॥ पद्अर्थ: एक रंग = एक के प्यार में टिक के। बसहि = (हरि जी) बसते हैं। संगि = साथ। अनूप = उपमा रहित, सोहणा, सुंदर। नानक = हे नानक! गुरदेव = सतिगुरु।8। अर्थ: हे नानक! कबीर ने एक-रस प्यार में टिक के परमात्मा का ध्यान धरा। प्रभु जी नामदेव जी के भी साथ बसते हैं। रविदास ने भी सुंदर प्रभु का स्मरण किया। (इन सब पर गुरु ने ही कृपा की)। हे नानक! गुरु परमात्मा का रूप है (तू भी गुरु की शरण पड़ा रह)।8।1। बसंतु महला ५ ॥ अनिक जनम भ्रमे जोनि माहि ॥ हरि सिमरन बिनु नरकि पाहि ॥ भगति बिहूना खंड खंड ॥ बिनु बूझे जमु देत डंड ॥१॥ पद्अर्थ: भ्रमे = भटकते हैं। माहि = में। नरकि = नरक में। पाहि = पड़ते हैं। बिहूना = बगैर। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। डंड = सजा, दण्ड।1। अर्थ: हे भाई! परमात्म के स्मरण के बिना मनुष्य नरक में पड़े रहते हैं, अनेक जूनियों में अनेक जन्मों में भटकते फिरते हैं। भक्ति के बिना (उनका मन अनेक तरह की दौड़-भाग में) टुकड़े-टुकड़े हुआ रहता है। आत्मिक जीवन की सूझ के बिना जमराज भी उनको सजा देता है।1। गोबिंद भजहु मेरे सदा मीत ॥ साच सबद करि सदा प्रीति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरे मीत = हे मेरे मित्र! साच सबद = सदा कायम रहने वाली महिमा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मित्र! सदा परमात्मा का भजन किया कर। सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा सदा प्यार बनाए रख।1। रहाउ। संतोखु न आवत कहूं काज ॥ धूम बादर सभि माइआ साज ॥ पाप करंतौ नह संगाइ ॥ बिखु का माता आवै जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: संतोखु = माया की ओर से तुप्ति। कहूँ काज = किसी भी काम में। धूँम बादर = धूँए के बादल। सभि साज = सारे तमाशे। संगाइ = शर्म करता। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर। माता = मस्त। आवै जाइ = पैदा होता है मरता रहता है।2। अर्थ: हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर का मतवाला हुआ मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है, किसी भी काम में (उसको) माया से संतुष्टि नहीं मिलती। (उसे ये समझ में नहीं आता कि) माया के सारे करिश्मे-तमाशे धूँए के बादल (ही) हैं (हवा के एक ही बुल्ले से उड़ जाने वाले)। (माया में मस्त मनुष्य) पाप करता हुआ भी झिझकता नहीं।2। हउ हउ करत बधे बिकार ॥ मोह लोभ डूबौ संसार ॥ कामि क्रोधि मनु वसि कीआ ॥ सुपनै नामु न हरि लीआ ॥३॥ पद्अर्थ: हउ हउ = मैं मैं। करत = करते हुए। बधे = बढ़ते जाते हैं। कामि = काम-वासना ने। क्रोधि = क्रोध ने। वसि = वश में। सुपनै = सपने में, कभी भी।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य में कभी सपने में भी परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, मैं मैं करते हुए उसके अंदर विकार बढ़ते जाते हैं, जगत के मोह और लोभ में वह सदा डूबा रहता है। काम-वासना ने, क्रोध ने (उसका) मन सदा अपने काबू में किया होता है।3। कब ही राजा कब मंगनहारु ॥ दूख सूख बाधौ संसार ॥ मन उधरण का साजु नाहि ॥ पाप बंधन नित पउत जाहि ॥४॥ पद्अर्थ: कब ही = कभी। मंगनहारु = भिखारी। बाधौ = बँधा हुआ। उधरण का = (संसार समुंदर में डूबने से) बचाने का। साजु = उद्यम। बंधन = बंधन, फँदे। पउत जाहि = पड़ते जाते हैं।4। अर्थ: हे भाई! (नाम से विहीन मनुष्य) चाहे कभी राजा है चाहे भिखारी, वह सदा जगत के दुखों-सुखों में जकड़ा रहता है। अपने मन को (संसार-समुंदर के विकारों में डूबने से) बचाने के लिए वह कोई उद्यम नहीं करता। पापों के फँदे उसको सदा पड़ते रहते हैं।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |