श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ईठ मीत कोऊ सखा नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खांहि ॥ जा कै कीन्है होत बिकार ॥ से छोडि चलिआ खिन महि गवार ॥५॥

पद्अर्थ: ईठ = ईष्ट, प्यारे। सखा = साथी। बीजि = बीज के, (अच्छे बुरे) कर्म करके। आपे = स्वयं ही। खांहि = (जीव उन किए कर्मों का) फल भोगते हैं। जा कै कीनै = जो पदार्थों के इकट्ठा करने से। होत = (पैदा) होते हैं। से = वह पदार्थ (बहुवचन)। गवार = मूर्ख मनुष्य।5।

अर्थ: हे भाई! प्यारे मित्रों में से कोई भी (आखिर तक साथ निभाने वाला) साथी नहीं बन सकता। (सारे जीव अच्छे-बुरे) कर्म स्वयं करके स्वयं ही (उन किए कर्मां का) फल भोगते हैं (कोई मित्र मदद नहीं कर सकता)। हे भाई! जिस पदार्थां को इकट्ठा करने से (मनुष्य के मन में अनेक तरह के) विकार पैदा होते हैं (जब अंत समय आता है, तब) मूर्ख एक पल में ही उन (पदार्थां) को छोड़ के (यहाँ से) चल पड़ता है।5।

माइआ मोहि बहु भरमिआ ॥ किरत रेख करि करमिआ ॥ करणैहारु अलिपतु आपि ॥ नही लेपु प्रभ पुंन पापि ॥६॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। भरमिआ = भटकता है। किरत = किए हुए कर्म। किरत रेख = (पिछले) किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। करि = करे, करता है। करमिआ = (और वैसे ही) कर्म। करणैहारु = सब कुछ कर सकने वाला। अलिपतु = निर्लिप, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। लेपु = असर, प्रभाव। पुंन = (निहित हुए) पुन्यों के कारण। पापि = पाप के कारण।6।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का स्मरण भुला के मनुष्य) माया के मोह के कारण बहुत भटकता फिरता है, (पिछले) किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (मनुष्य वैसे ही) कर्म करता जाता है। हे भाई! सब कुछ कर सकने के समर्थ परमात्मा स्वयं निर्लिप है (उसके ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। प्रभु पर ना तो (जीवों द्वारा निहित हुए) पुण्य कर्मों (के किए जाने से पैदा होने वाले अहंकार आदि) का असर होता है, ना किसी पाप के कारण (भाव, उस प्रभु को ना अहंकार ना विकार अपने असर तले ला सकता है)।6।

राखि लेहु गोबिंद दइआल ॥ तेरी सरणि पूरन क्रिपाल ॥ तुझ बिनु दूजा नही ठाउ ॥ करि किरपा प्रभ देहु नाउ ॥७॥

पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! क्रिपाल = हे कृपालु! ठाउ = जगह। करि = करके।7।

अर्थ: हे दया के श्रोत गोबिंद! हे सर्व-व्यापक! हे कृपालु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी रक्षा कर। तेरे बिना मेरी और कोई जगह नहीं। हे प्रभु! मेहर करके मुझे अपना नाम बख्श।7।

तू करता तू करणहारु ॥ तू ऊचा तू बहु अपारु ॥ करि किरपा लड़ि लेहु लाइ ॥ नानक दास प्रभ की सरणाइ ॥८॥२॥

पद्अर्थ: करणहारु = सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य वाला। अपारु = बेअंत, जिसकी हस्ती का परला छोर नहीं मिल सकता (अ+पारु)। करि = कर के। लड़ि = पल्ले से। नानक = हे नानक!।8।

अर्थ: हे नानक! प्रभु के दास प्रभु की शरण में पड़े रहते हैं (और, उसके दर पर प्रार्थना करते हैं: हे प्रभु!) तू (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, तू सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य रखता है, तू सबसे ऊँचा है, तू बड़ा बेअंत है, मेहर कर (हमें) अपने पल्ले से लगाए रख।8।2।

बसंत की वार महलु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई ॥ करमि लिखंतै पाईऐ इह रुति सुहाई ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु मउलिआ अम्रित फलु पाई ॥ मिलि साधू सुखु ऊपजै लथी सभ छाई ॥ नानकु सिमरै एकु नामु फिरि बहुड़ि न धाई ॥१॥

पद्अर्थ: महलु = शरीर (यहाँ शब्द ‘महला’ की जगह शब्द ‘महलु’ का प्रयोग किया गया है)। महलु ५ = शरीर पाँचवाँ, गुरु नानक का पाँचवाँ शरीर अर्थात गुरु अरजन। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। करमि = बख्शिश के लेख से। इह रुति = नाम जपने की ये मानव जनम की ऋतु। सुहाई = सुंदर। मउलिआ = खिली हुई। छाई = कालिख़, मैल। धाई = भटकना।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करके आत्मिक जीवन वाला बन जा (जैसे पानी मिलने से वृक्ष हरा-भरा हो जाता है)। (नाम जपने से मनुष्य-जन्म का) ये खूबसूरत समय (पूर्बले किए कर्मों के अनुसार प्रभु द्वारा) लिखे बख्शिश के लेखों के अंकुरित होने से ही मिलता है। (जैसे वर्षा से) जंगल बनस्पति सारा जगत खिल उठता है, (वैसे ही उस मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है जो) अमृत-नाम रूपी फल हासिल कर लेता है। गुरु को मिल के (उसके हृदय में) सुख पैदा होता है, उसके मन की मैल उतर जाती है। नानक (भी) प्रभु का ही नाम स्मरण करता है (और जो मनुष्य स्मरण करता है उसको) बार-बार जनम-मरण के चक्करों में भटकना नहीं पड़ता।1।

पंजे बधे महाबली करि सचा ढोआ ॥ आपणे चरण जपाइअनु विचि दयु खड़ोआ ॥ रोग सोग सभि मिटि गए नित नवा निरोआ ॥ दिनु रैणि नामु धिआइदा फिरि पाइ न मोआ ॥ जिस ते उपजिआ नानका सोई फिरि होआ ॥२॥

पद्अर्थ: पंजे = पाँचों कामादिक विकार। बली = बलवान। ढोआ = भेटा। जपाइअनु = उसने जपाए। विचि = उसके हृदय में। दयु = दयालु प्रभु। सभि = सारे। निरोआ = रोग रहित, आरोग्य। रैणि = रात। मोआ = मौत, जनम-मरण का चक्कर।

अर्थ: जिस मनुष्य ने (प्रभु का स्मरण रूपी) सच्ची भेटा (प्रभु की हजूरी में) पेश की है, प्रभु ने उसके कामादिक पाँचों ही बड़े बली विकार बाँध दिए हैं, (जिसके कारण) उसके सारे ही रोग मिट जाते हैं, वह सदा पवित्र-आत्मा और अरोग रहता है। वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसको जनम-मरण का चक्कर नहीं लगाना पड़ता।

हे नानक! जिस परमात्मा से वह पैदा हुआ था (नाम-जपने की इनायत से) उसी का रूप हो जाता है।2।

किथहु उपजै कह रहै कह माहि समावै ॥ जीअ जंत सभि खसम के कउणु कीमति पावै ॥ कहनि धिआइनि सुणनि नित से भगत सुहावै ॥ अगमु अगोचरु साहिबो दूसरु लवै न लावै ॥ सचु पूरै गुरि उपदेसिआ नानकु सुणावै ॥३॥१॥

पद्अर्थ: कह माहि = किस में? समावै = लीन हो जाता है। कहनि = कहते हैं। सुहावै = सुंदर लगते हैं। लवै न लावै = बराबरी नहीं कर सकता। गुरि = गुरु ने। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। अगोचरु = अ+गो+चरु। गो = इंद्रिय।

अर्थ: सारे जीव पति-प्रभु के पैदा किए हुए हैं, कोई भी (अपने पैदा करने वाले के गुणों का) मूल्य नहीं डाल सकता, (कोई नहीं बता सकता कि) प्रभु कहाँ से पैदा होता है कहाँ रहता है और कहाँ लीन हो जाता है।

जो जो उस प्रभु के गुण उचारते हैं याद करते हैं वे भक्त सुंदर (जीवन वाले) हो जाते हैं।

परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, इन्द्रियों की पहुँच से परे है सबका मालिक है, कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। नानक उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा सुनाता है, पूरे गुरु ने वह प्रभु नज़दीक दिखा दिया है (अंदर बसता दिखा दिया है)।3।1।

बसंतु बाणी भगतां की ॥ कबीर जी घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मउली धरती मउलिआ अकासु ॥ घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥

पद्अर्थ: मउली = खिली हुई, टहक रही, सुंदर लग रही है। घटि घटि = हरेक घट में। मउलिआ = खिला हुआ है, चमक रहा है, भाव मार रहा है। प्रगासु = प्रकाश, ज्योति। आतम प्रगासु = आत्मा का प्रकाश, परमात्मा की ज्योति की रौशनी।1।

अर्थ: हरेक घट में उस परमात्मा का ही प्रकाश है। धरती और आकाश (उसी की ज्योति के प्रकाश से) खिले हुए हैं।1।

राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥ जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: (सारे जगत का मालिक) ज्योति-स्वरूप परमात्मा (अपने बनाए जगत में) अनेक तरह से अपना प्रकाश कर रहा है। मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही वह भरपूर (दिखता) है।1। रहाउ।

दुतीआ मउले चारि बेद ॥ सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥

पद्अर्थ: राजा = प्रकाश स्वरूप। अनत = अनंत। अनत भाइ = अनंत भाव में, बेअंत तरीकों से। जह = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तह = उधर। समाइ रहिआ = भरपूर है।1। रहाउ। दुतीआ = दूसरी बात (यह है); और (सुनो)। सिउ कतेब = मुसलमानी धर्म पुस्तकों सहित।2।

अर्थ: (सिर्फ धरती और आकाश ही नहीं) चारों वेद, स्मृतियाँ और कतेब (इस्लामी धर्म पुस्तकें) - यह सारे भी परमात्मा की ही ज्योति से प्रकट हुए हैं।2।

संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥ कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥

पद्अर्थ: संकरु = शिव। सभ = हर जगह। समान = एक जैसा।3।

अर्थ: जेग-समाधि लगाने वाला शिव भी (प्रभु की ज्योति की इनायत से) खिला। (सिरे की बात यह कि) कबीर का मालिक (-प्रभु) सब जगह एक जैसा ही खिल रहा है।3।

शब्द का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है, उसी ही की ज्योति का प्रकाश हर जगह हो रहा है।

पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥ जोगी माते जोग धिआन ॥ संनिआसी माते अहमेव ॥ तपसी माते तप कै भेव ॥१॥

पद्अर्थ: जन = लोक।

(नोट: शब्द ‘जन’ जब किसी श्रेणी के साथ प्रयोग होता है तो उसका अर्थ होता है ‘उस श्रेणी के आम लोग’)।

माते = मतवाले हुए, मस्ते हुए, अहंकारी। पढ़ि = पढ़ के। अहंमेव = अहंकार। भेव = भेद, मर्म।1।

अर्थ: पण्डित लोग पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ के अहंकार में हैं; जोगी जोग-साधना के गुमान में मतवाले फिरते हैं, सन्यासी (सन्यास के) अ हंकार में डूबे हुए हैं; तपस्वी इसलिए मस्त हुए हैं कि उन्होंने तप का भेद पा लिया है।1।

सभ मद माते कोऊ न जाग ॥ संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संग ही = साथ ही, अंदर ही। मुसन लाग = ठगने लग जाते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: सब जीव (किसी ना किसी विकार में) मतवाले होए हुए हैं, कोई नहीं जागता (दिखाई देता)। और, इन जीवों के अंदर से ही (उठ के कामादिक) चोर इनका (हृदय-रूप) घर लूट रहे हैं।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh