श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1196

गंगा गइआ गोदावरी संसार के कामा ॥ नाराइणु सुप्रसंन होइ त सेवकु नामा ॥३॥१॥

पद्अर्थ: संसार के = दुनिया को खुश करने वाले। नामा = हे नाम देव! त = तब ही।3।

अर्थ: गंगा, गया, गोदावरी (आदि तीर्थों पर जाना- ये) दुनिया को ही खुश करने वाले काम हैं; पर, हे नामदेव! भक्त वही है जिस पर प्रभु स्वयं प्रसन्न हो जाए (और अपने नाम की दाति दे)।3।1।

भाव: प्रीत का स्वरूप- चाहे कष्ट आएं, चाहे लोग हँसी उड़ाएं, भक्त-जन प्रभु की भक्ति नहीं त्यागते।

लोभ लहरि अति नीझर बाजै ॥ काइआ डूबै केसवा ॥१॥

पद्अर्थ: नीझर = (संस्कृत: निर्झर = a spring, waterfall, mountain torrent) झील, चष्मा, पहाड़ी नदी। बाजै = बज रही हैं। केसवा = हे केशव! हे प्रभु! (केशा: प्रशस्ता: सन्ति अस्य) हे लंबे केशों वाले!।1।

अर्थ: हे सुंदर केशों वाले प्रभु! (इस संसार-समुंदर में) लोभ की लहरें बहुत ठाठा मार रही हैं, मेरा शरीर इनमें डूबता जा रहा है।1।

संसारु समुंदे तारि गुोबिंदे ॥ तारि लै बाप बीठुला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुोबिंदे = हे गोबिंद! बाप बीठला = हे बीठल पिता! बीठुल = (सं: विष्ठल। वि+स्थल = one standing aloof) माया के प्रभाव से परे रहने वाला।1। रहाउ।

नोट: ‘गुोबिंदे’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।

अर्थ: हे बीठल पिता! हे गोबिंद! मुझे संसार-समुंदर में से पार लंघा ले।1। रहाउ।

अनिल बेड़ा हउ खेवि न साकउ ॥ तेरा पारु न पाइआ बीठुला ॥२॥

पद्अर्थ: अनिल = (अनिति अनेन इति अनिल = that by means of which one breaths) हवा। खेवि न साकउ = चप्पू नहीं चला सकता। खेवि = (सं: क्षिप् = to throw, to steer. क्षिपणि = an oar, चप्पू) चप्पू लगाना (नाव चलाने के लिए)। पारु = परला छोर।2।

अर्थ: हे बीठल! (मेरी जिंदगी की) बेड़ी तूफान (भँवर) में (फंस गई है), मैं इसको चप्पू लगाने के योग्य नहीं हूँ; हे प्रभु! तेरे (इस संसार-समुंदर का) मुझे परला छोर नहीं मिलता।2।

होहु दइआलु सतिगुरु मेलि तू मो कउ ॥ पारि उतारे केसवा ॥३॥

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। उतारे = उतार, पार लंघा।3।

अर्थ: हे केशव! मेरे पर दया कर, मुझे गुरु मिला, और (इस समुंदर में से) पार लंघा।3।

नामा कहै हउ तरि भी न जानउ ॥ मो कउ बाह देहि बाह देहि बीठुला ॥४॥२॥

पद्अर्थ: तरि न जानउ = मैं तैरना नहीं जानता।4।

अर्थ: (तेरा) नामदेव, हे बीठल! बिनती करता है: (समुंदर में लहरें उठ रही हैं, मेरी बेड़ी भँवर में फंस गई है, और) मैं तो तैरना भी नहीं जानता, मुझे अपनी बाँह पकड़ा, दाता! बाँह पकड़ा।4।1।2।

शब्द का भाव: दुनियावी विकारों से बचने के लिए एक-मात्र तरीका है; परमात्मा के दर पर अरदास।

सहज अवलि धूड़ि मणी गाडी चालती ॥ पीछै तिनका लै करि हांकती ॥१॥

अर्थ: (जैसे) पहले (भाव, आगे-आगे) मैले कपड़ों से लादी हुई गाड़ी धीरे-धीरे चलती जाती है, और पीछे-पीछे (धोबिन) डंडी ले के हाँकती जाती है; (वैसे ही पहले ये आलसी शरीर धीरे-धीरे चलता है, पर ‘लाडुली’ इसको प्रेम आदि से प्रेरती है)।1।

जैसे पनकत थ्रूटिटि हांकती ॥ सरि धोवन चाली लाडुली ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: जैसे (धोबिन) (उस गाड़ी को) पानी के घाट की तरफ ‘थ्रूटिटि’ कह: कह के हाँकती है, सर पर (धोबी की) लाडली (स्त्री) (कपड़े) धोने के लिए जाती है, वैसे ही प्रेमिका (जीव-स्त्री) सत्संग सरोवर पर (मन को) धोने के लिए जाती है।1। रहाउ।

धोबी धोवै बिरह बिराता ॥ हरि चरन मेरा मनु राता ॥२॥

अर्थ: प्यार में रंगा हुआ धोबी (-गुरु सरोवर आई जिज्ञासू-स्त्रीयों के मन) पवित्र कर देता है; (उसी गुरु-धोबी की मेहर सदका) मेरा मन (भी) अकाल-पुरख के चरणों में रंगा गया है।2।

भणति नामदेउ रमि रहिआ ॥ अपने भगत पर करि दइआ ॥३॥३॥

अर्थ: नामदेव कहता है: वह अकाल-पुरख सब जगह व्यापक है, और अपने भक्तों पर (इस तरह, भाव, गुरु के माध्यम से) मेहर करता रहता है।3।

नोट: ‘शब्द’ का भाव समूचे तौर पर बीज-रूप में ‘रहाउ’ की तुक के अंदर मिलता है। सारा शब्द ‘रहाउ’ की तुक अथवा तुकों की, मानो, व्याख्या है। ‘रहाउ’ की तुक अथवा तुकों में एक बँधा हुआ ख्याल होता है; इस ‘बँद’ की तुकों को अलग-अलग करके पहले या आगे के ‘बँद’ के साथ जोड़ने से असली अर्थों से भटक जाया जाता है।

‘रहाउ’ वाले बँद को समूचे तौर पर पढ़ना व समझना; यह हरेक शब्द के भाव को ठीक तरह विचारने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस शब्द को समझने के लिए भी इस बात का खास ख्याल रखने की जरूरत है।

आईए, अब ‘रहाउ’ की तुकों को ध्यान से देखें;

जैसे पनकत थ्रूटिटि हाकती॥ सरि धोवन चाली लाडुली॥१॥ रहाउ॥

शब्द ‘जेसै’ योजक (conjunction) है। यह बताता है कि ये पहली तुक अपने आप में संपूर्ण वाक्य नहीं है; दूसरी तुक के आरम्भिक शब्द ‘तैसे’ को बरतने से संपूर्ण वाक्य इस प्रकार बनेगा;

जैसे (धूड़ि मणी गाडी को) थ्रूटिटि (कह कह के) (हाँकने वाली) पनकत (की ओर) हांकती (है), (तैसे) लाडुली सरि धोवन चाली।

इन तुकों को ठीक तरह से समझने के लिए पाठकों का ध्यान एक और जरूरी तरफ दिलाने की आवश्यक्ता है। जाति-पाति के भ्रम ने हमारे देश के इतिहास पर एक खास बड़ा असर डाला है। जिनको नीच जाति वाले कह के पुकारा जाता था, और कई तरीकों से जिनकी निरादरी की जाती थी, जब उन्हें इस जुल्ले के नीचे से निकलने का समय मिला, वे छलांगे लगा के उस शाही झण्डे के तले जा टिके जहाँ उन्हें धर्म-भाई कहलवाने का मौका मिल गया। जब हम अपनी धरती की ओर ध्यान लगा के देखते हैं, तो हमारे वह भाई जिनको जुलाहे, चमार, धोबी, नाई, लोहार आदि का काम करने के कारण नीच जाति वाला कहा जाता था, वह बहुत सारी गिनती में इस तरफ को छोड़ गए दिखते हैं। पर कहीं-कहीं ऐसे निधड़क और उच्च-आत्माएँ भी थीं जो अपने धर्म-भाईयों के इस सलूक से घबराए नहीं, बल्कि उन्होंने कठोर व कड़वे वचन सह के भी उस भाग्य-हीन बहादुरी का सुधार करने के ही प्रयत्न करते रहे। देश की इस भाईचारिक दशा का थोड़ा सा नमूना कबीर जी स्वयं पेश करते हैं। ऊँची जाति वाले उनको गालियां तक निकालने में संकोच नहीं करते, आगे वे वह हँस के उनकी गालियों वाले शब्दों के और अर्थ कर के उनको (सद्-बुद्धि) देने का यत्न करते हैं। देखें;

गोंड कबीर जी॥ कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै॥ मन कूटै तउ जम ते छूटै॥ कुटि कुटि मनु कसवटी लावै॥ सो कूटनु मुकति बहु पावै॥१॥ कूटनु किसै कहहु संसार॥ सगल बोलन के माहि बीचारि॥१॥ रहाउ॥ नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै॥ झूठि न पतीऐ परचै साचै॥ इसु मन आगे पूरै ताल॥ इसु नाचन के मन रखवाल॥२॥ बजारी सो जु बजारहि सोधै॥ पांच पलीतह कउ परबोधै॥ नउ नाइक की भगति पछानै॥ सो बाजारी हम गुर मानै॥३॥ तसकरु सोइ जि ताति न करै॥ इंद्री कै जतनि नामु उचरै॥ कहु कबीर हम ऐसे लखन॥ धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन॥४॥७॥१०॥ (पन्ना ८७२)

जब उनको ‘जुलाहा-जुलाहा’ कह के ही भाईचारक तौर पर नीच बताने के प्रयत्न हुए, तो आपने कहा: हे भाई! ईश्वर तो खुद जुलाहा है, तुम व्यर्थ इन भुलेखों में पड़ कर उम्र बेकार में गवा रहे हो, कुछ जनम-मनोरथ पर भी विचार करो:

आसा कबीर जी॥ कोरी को काहू मरमु न जानां॥ सभु जगु आनि तनाइओ तानां॥१॥ रहाउ॥ जब तुम सुनि ले बेद पुरानां॥ तब हम इतनकु पसरिओ तानां॥१॥ धरनि अकास की करगह बनाई॥ चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई॥२॥ पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां॥ जोलाहे घरु अपना चीनां घट ही रामु पछानां॥३॥ कहतु कबीरु कारगह तोरी॥ सूतै सूत मिलाए कोरी॥४॥३॥३६॥ (पन्ना ४८४)

इस प्रकार की ही दलेरी के साथ रविदास जी ने इस भाईचारक भेदभाव का मुकाबला किया। जब ऊँची जाति वालों ने अहंकार में आकर कहा: देखो, ओए यारो! जूते टाँकने वाला चमार हो के हमें धर्म-उपदेश सुनाता है; तब आपने धैर्य से उन्हें समझाया: भाई! जगत में कोई ही विरला भाग्यशाली है जो चमार नहीं है, वरना सारे ही जूते सिल रहे हैं। मेरे पर तो दाते ने मेहर की है, मैं तो अब जूतियाँ सिलने का काम छोड़ बैठा हूँ, तुम अपना फिक्र करो। देखो, यह शरीर रूपी जूती तुम्हें मिली हुई है, दिन-रात इसको गाँठते-तरोपते रहते हो, कि कहीं यह जूती जल्दी ना टूट जाए। इस लोभ-लालच और जगत का मोह इस शरीर-जूती की गाँठ-तरोपे ही तो हैं, और क्या है?

सोरठि रविदास जी॥ चमरटा गांठि न जनई॥ लोगु गठावै पनही॥१॥ रहाउ॥ आर नही जिह तोपउ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ॥१॥ लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहूचा॥२॥ रविदासु जपै राम नामा॥ मोहि जम सिउ नाही कामा॥३॥७॥ (पन्ना ६५९)

नामदेव जी भी इस मैदान में पीछे नहीं रहे। जब इन्हें भी ऐसे ही ताने मारे गए कि है तो तू कपड़े रंगने वाला और सिलने वाला छींबा ही; तो आप उक्तर देते हैं: हे भाई! अगर तुम भी ये रंगना और सिलना सीख लो, जो जाति-पाति के होछै वहम तो ना ना रहें;

आसा नामदेउ जी॥ मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती॥ मपि मपि काटउ जम की फासी॥१॥ कहा करउ जाती कह करउ पाती॥ राम को नामु जपउ दिन राती॥१॥ रहाउ॥ रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ॥२॥ भगति करउ हरि के गुन गावउ॥ आठ पहर अपना खसमु धिआवउ॥३॥ सुइने की सूई रुपे का धागा॥ नामे का चितु हरि सिउ लागा॥४॥३॥ (पन्ना ४८५)

जिस शब्द का अब अर्थ कर रहे हैं, इसमें भी नामदेव जी उपरोक्त ख्याल सामने रख के सुघड़ ईश्वरीय धोबी के उपकार बयान कर रहे हैं। दोबारा शब्द की ‘रहाउ’ की तुकें पढ़ें;

जैसे पनकत थ्रूटिटि हांकती॥ सरि धोवन चाली लाडुली॥१॥ रहाउ॥

धोबी सवेरे उठ के कपड़े धोने के लिए किसी नजदीक के सरोवर आदि पर जाता है। उसकी धोबिन घर का काम-काज संभाल के बाकी रहते कपड़े गड्डे आदि पर लाद लेती है और वह भी अपने धोबी के पास उसी सरोवर (घाट) पर चली जाती है।

जगत के जीवों के मन, मानो, विकारों और अहंकार की मैल से मैले होए हुए कपड़े हैं; जैसे धोबिन कपड़े धुलाने के लिए पानी के घाट की ओर मैले कपड़ों से लदी गड्डी को हाँकती हुई जाती है, इसी तरह कोई लाडली (प्रेमिका) जीव-स्त्री गुरु-धोबी के सर (घाट) पर जाती है। धोबी होने में कौन सा ताना?

‘रहाउ’ की तुकों का वारतक-रूप (Prose Order) तो पहले दिया गया है, इस शब्दों में केवल एक शब्द ‘पनकत’ का अर्थ समझना आवश्यक है, बाकी की तुक स्पष्ट हो जाएगी।

यह हम देख चुके हैं कि नामदेव जी अपने धोबी-पन का जिक्र करके उस महान धोबी की उपमा कर रहे हैं। धोबी के साथ ही साधारण ही पानी और घाट का संबंध है। सो ‘पनकत’ असल में ‘पनघट’ (पानी का घाट) है। अक्षर ‘क, ख, ग, घ का उच्चारण स्थल एक ही जगह (गले) में है, समासी शब्द में ‘घ’ का उच्चारण थोड़ा सा मुश्किल होने के कारण ‘क’ बरता गया है। ‘ट’ से ‘त’ बन जाना भी बड़ी ही साधारण सी बात है, बच्चे ‘रोटी’ को ‘लोती’ कह देते हैं।

से, यह सारा शब्द ‘पनकत’ इस्तेमाल में आ गया है। इसका संबंध भी साफ़ नजर आता है।

‘त’ –वर्ग से ‘ट’–वर्ग और ‘ट’ वर्ग से ‘त’ वर्ग बन जाने की और भी मिसालें मिलती हैं;

संस्कृत-----------प्राक्रित----------पंजाबी

सुखद--------------सुहद--------------सुहंढणा

सथान-------------ठाण----------------ठाउं थां

वरतुल------------वटूअ----------------बटूआ।

ध्रिष्ट----------------ढीठ

दंड----------------डण्डा

इस शब्द में धोबी की मेहनत-कमाई का वर्णन करके आत्मिक उपदेश देने के कारण कविता का सलेश अलंकार भा प्रयोग किया गया है।

शब्द ‘धूड़िमणी गाडी’ को ‘धोबण’ के साथ प्रयोग करते वक्त इसका अर्थ करना है ‘मैले कपड़ों से भरी हुई गाड़ी’; जब इसे ‘धोबी’; गुरु के साथ प्रयोग करेंगे, तो ‘लाडुली’ प्रेमिका जीव-स्त्री के साथ इसका अर्थ होगा ‘यह मिट्टी की गाड़ी, शरीर’।

बसंतु बाणी रविदास जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तुझहि सुझंता कछू नाहि ॥ पहिरावा देखे ऊभि जाहि ॥ गरबवती का नाही ठाउ ॥ तेरी गरदनि ऊपरि लवै काउ ॥१॥

पद्अर्थ: तुझहि = तुझे। पहिरावा = (शरीर की) पोशाक। ऊभि जाहि = अकड़ती हैं गरबवती = अहंकारिन। ठाउ = जगह। गरदनि = गर्दन। लवै काउ = कौआ बोलता है।1।

अर्थ: (हे काया!) तू अपने ठाठ देख के अकड़ती है, (इस अकड़ में) तुझे कुछ भी तवज्जो नहीं रही। (देख) अहंकार की कोई जगह नहीं (होती), तेरे बुरे दिन आए हुए हैं (कि तू झूठा मान कर रही है)।1।

तू कांइ गरबहि बावली ॥ जैसे भादउ खू्मबराजु तू तिस ते खरी उतावली ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कांइ = क्यों? किस लिए? गरबहि = अहंकार करती है। खूंबराजु = बड़ी सारी छत्रक (कुकरमुक्ता, मशरूम)। खरी = काफी, बहुत। उतावली = जल्दी, जल्दी जानेवाली।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी कमली काया! तू क्यों गुमान करती है? तू तो उस कुकरमुत्ते से भी जल्दी नाश हो जाने वाली जो भाद्रों में (उगती है)।1। रहाउ।

जैसे कुरंक नही पाइओ भेदु ॥ तनि सुगंध ढूढै प्रदेसु ॥ अप तन का जो करे बीचारु ॥ तिसु नही जमकंकरु करे खुआरु ॥२॥

पद्अर्थ: कुरंक = हिरन। तनि = शरीर में। सुगंध = कस्तूरी। अप = अपना। जम कंकरु = (सं: यम किंकर) जम दूत।2।

अर्थ: (हे काया!) जैसे हिरन को ये पता नहीं होता (भेद नहीं मिलता) कि कस्तूरी की सुगंधि उसके अपने शरीर में से (आती है), पर वह परदेस में ढूँढता फिरता है (वैसे ही तुझे ये समझ नहीं आती कि सुखों का मूल प्रभु तेरे अपने अंदर ही है)। जो जीव अपने शरीर की विचार करता है (कि ये सदा-स्थिर रहने वाला नहीं), उसको जम-दूत दुखी नहीं करता।2।

पुत्र कलत्र का करहि अहंकारु ॥ ठाकुरु लेखा मगनहारु ॥ फेड़े का दुखु सहै जीउ ॥ पाछे किसहि पुकारहि पीउ पीउ ॥३॥

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। फेड़े = किए हुए (बुरे) कर्म। पाछे = (प्राण निकल जाने के) बाद। पीउ = प्यारा। पुकारहि = तू आवाजें मारेगी।3।

अर्थ: (हे काया!) तू पुत्र और पत्नी का गुमान करती है (और प्रभु को भुला बैठी है, याद रख) मालिक प्रभु (किए हुए कर्मों का) लेखा माँगता है (भाव,) जीव अपने किए हुए दुष्कर्मों के कारण दुख सहता है। (हे काया! प्राणों के निकल जाने के बाद) तू किस को ‘प्यारा, प्यारा’ कह के आवाजें मारेगी?।3।

साधू की जउ लेहि ओट ॥ तेरे मिटहि पाप सभ कोटि कोटि ॥ कहि रविदास जुो जपै नामु ॥ तिसु जाति न जनमु न जोनि कामु ॥४॥१॥

पद्अर्थ: साधू = गुरु। ओट = आसरा। कोटि = करोड़ों। जोनि कामु = जूनों से वास्ता।4।

अर्थ: (हे काया!) अगर तू गुरु का आसरा ले, तेरे करोड़ों पाप सारे के सारे नाश हो जाएं। रविदास कहता है: जो मनुष्य नाम जपता है, उसकी (नीच, निम्न श्रेणी) जाति समाप्त हो जाती है, उसका जन्म मिट जाता है, जूनियों से उसका वास्ता नहीं रहता।4।1।

भाव: शरीर आदि का मान झूठा है। यहाँ सदा नहीं बैठे रहना।

बसंतु कबीर जीउ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सुरह की जैसी तेरी चाल ॥ तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥

पद्अर्थ: सुरह = (सं: सुरभि) गाय। चाल = चाल ढाल। पूंछट = पूँछ। झमक = चमकते। बाल = बाल।1।

अर्थ: (हे कुत्ते!) गाय जैसी (भोली-भाली) तेरी चाल है, तेरी पूँछ पर बाल भी सुदर चमक रहे हैं (हे कुक्ता-स्वभाव जीव! शरीफों जैसी तेरी सूरति और तेरा पहरावा है)।1।

इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥ अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: इस घर महि है = (भाव,) जो कुछ तुझे अपनी कमाई में से मिलता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे कुत्ते के स्वभाव वाले जीव!) जो कुछ अपनी हक की कमाई है, उसी को निसंग हो के इस्तेमाल कर। किसी बेगाने माल की लालसा ना करनी।1। रहाउ।

(रुखी सुखी खाइ कै ठंढा पानी पीउ। फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाऐ जीउ)।

चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥ चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥

पद्अर्थ: चूनु = आटा। चीथरा = परोला। कहा = कहाँ?।2।

अर्थ: (हे कुत्ते!) तू चक्की चाटता है, और आटा खाता है, पर (जाते हुए) परोला कहाँ ले के जाएगा? (हे जीव! जो माया रोजाना इस्तेमाल करता है ये तो भले बर्तता रह, पर जोड़-जोड़ के आखिर कहाँ ले कर जाएगा?)।2।

छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥ मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥

पद्अर्थ: पर = ऊपर। डीठि = नजर, निगाह। मतु = कहीं ऐसा ना हो। पीठि = कमर पर।3।

अर्थ: (हे स्वान!) तू छिक्के की ओर बहुत झाँक रहा है, देखना कहीं कमर पर डण्डा ना बजे। (जो जीव, बेगाने घरों की ओर देखता है; इस में से उपाधि ही निकलेगी)।3।

कहि कबीर भोग भले कीन ॥ मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥

पद्अर्थ: भले = अच्छे भले। कीनु = किए हैं। मति = कहीं ऐसा ना हो। कोऊ...ढेम = कहीं दुखी होना पड़े।4।

अर्थ: कबीर कहता है: (हे श्वान!) तूने बहुत कुछ खाया-उजाड़ा है, पर ध्यान रखना कहीं कोई ईट-ढेला तेरे सिर पर ना मार दे। (हे जीव! तू जो यह भोग भोगने में व्यस्त हुआ पड़ा है, इनका अंत दुखद ही होता है)।4।1।

शब्द का भाव: संतोष-हीनता दुखी ही करती है।

नोट: किसी कहानी के प्रयोग की तो आवश्यक्ता ही नहीं। कुत्ते का स्वभाव तो हर कोई जानता है; जब किसी दरवाजे पर टुकड़े की खातिर जाता है तो बड़ा मासूम सा बन के। पर, अगर कोई घर सूना मिल जाए, तो पहले चक्की चाटता है, वहाँ तसल्ली ना हो, तो छिक्के की ओर बड़ी हसरत से देखता है; जो कुछ घर में खाने को मिले, कुछ खाता है कुछ बिगाड़ता है; चक्की चाटने के बाद जाता हुआ थोड़े से लालच के पीछे लग के परोला भी ले के भागता है।

यही हाल लालच से हलके हुए मनुष्य का है; देखने को सुंदर शक्ल, शरीफों वाला पहरावा, पर “दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत”। अपनी की हुई कमाई पर संतोष नहीं बँधता, बेगाना धन देख के ही ललचाता है; नित्य जोड़ने की तमन्ना, नित्य इकट्ठा करने की ललक। अपने घर में आराम से रह भी रहा हो तो भी अपने से ज्यादा अमीरों को देख के मन में जलन। सारी उम्र भोगों में गुजरनी, कईयों से बखेड़े, कईयों से झगड़े मोल लेने। और भोगों का अंत? कई रोग।

सो, मनुष्य को कुत्ते से उपमा देते हैं, और समझाते हैं कि संतोष में जीओ, वरना इस लालच का अंत दुखद होता है।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh