श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥ जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जिह = जिस व्यापर से। रहाउ।

अर्थ: मुझे ऐसा व्यापार करने की आवश्यक्ता नहीं, जिस वणज के करने से मूल घटता जाए और ब्याज बढ़ता जाए (भाव, ज्यों-ज्यों उम्र गुजरे त्यों-त्यों विकारों का भार बढ़ता जाए)। रहाउ।

सात सूत मिलि बनजु कीन ॥ करम भावनी संग लीन ॥ तीनि जगाती करत रारि ॥ चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥

पद्अर्थ: सात सूत = सूत सात (आशा-तृष्णा आदि) कई किस्मों के सूत्र का। मिलि = (पांच बनजारों ने) मिल के। करम भावनी = कीए हुए कर्मों के संस्कार। तीनि = तीन गुण। जगाती = मसूलिए, वसूल करने वाले। रारि = तकरार, झगड़े। चलो = चल पड़ा। हाथ झारि = हाथ झाड़ के, खाली हाथ।2।

अर्थ: (ये ज्ञान-इन्द्रियाँ) मिल के कई किस्मों के सूत्र (भाव, विकारों) का वणज कर रहे हैं, किए हुए कर्मों के संस्कारों को इन्होंने (अपनी सहायता के लिए) साथ ले लिया है (भाव, ये पिछले संस्कार और भी विकारों की तरफ़ प्रेरते जा रहे हैं)। तीन गुण (-रूपी) मसूलिए (और) झगड़ा बढ़ाते हैं, (नतीजा ये निकलता है कि) वणजारा (जीव) खाली हाथ चला जाता है।2।

पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥ दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥ कहि कबीर मन सरसी काज ॥ सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥

पद्अर्थ: हिरानी = गायब हो गई, गवा ली। टांडो = काफला (शरीर)। मन = हे मन! सरसी = सँवरेगा। सहज समानो = अगर सहज में लीन होएगा।3।

अर्थ: जब (श्वासों की) राशि छिन जाती है, तब वणज समाप्त हो जाता है, और काफ़िला (शरीर) दसों दिशाओं में बिखर जाता है। कबीर कहता है - हे मन! यदि तू सहज अवस्था में लीन हो जाए और तेरी भटकना समाप्त हो जाए तो तेरा काम सँवर जाएगा।3।6।

शब्द का भाव: मनुष्य को विकारों का वणज हमेशा घाटेवाला रहता है। ज्यों-ज्यों उम्र कम होती जाती है, त्यों-त्यों विकारों का भार बढ़ता जाता है, आखिर में जीव यहाँ से खाली हाथ चला जाता है।

बसंतु हिंडोलु घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥ आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥

पद्अर्थ: जूठी = अपवित्र। फल लागे = लगे हुए फल, बाल बच्चे। आवहि = पैदा होते हैं। जाहि = मर जाते हैं। अभागे = बद नसीब। जूठे = अपवित्र ही।1।

अर्थ: माँ अपवित्र, पिता अपवित्र, इनके द्वारा पैदा किए हुए बाल-बच्चे भी अपवित्र; (जगत में जो भी) पैदा होते हैं वह अपवित्र, जो मरते हैं वे भी अपवित्र; अभागे जीव अपवित्र ही मर जाते हैं।1।

कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥ जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पंडित = हे पंडित! कवनु ठाउ = कौन सी जगह? बैसि = बैठ के। हउ = मैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे पंडित! बता, वह कौन सी जगह है जो पवित्र है, जहाँ बैठ के मैं रोटी खा सकूँ (ता कि पूरी तरह से पवित्रता बनी रह सके)?।1। रहाउ।

जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥ इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥

पद्अर्थ: जिहबा = जीभ। बोलत = वचन जो बोले जाते हैं। करन = कान। सभि = सारे। जूठि = अपवित्रता। लूठे = हे जले हुए! अगनि के लूठे = हे आग के जले हुए! ब्रहम अगनि = ब्राहमण होने के अहंकार की आग।2।

अर्थ: (मनुष्य की) जीभ मैली, बोल भी बुरे, कान आँखें सारे अपवित्र, (इसने ज्यादा) काम-चेष्टा (ऐसी है जिस) की मैल उतरती ही नहीं। हे ब्राहमण-पन के अहंकार की अग्नि में जले हुए! (बता, पवित्र कौन सी चीज़ हुई?)।2।

अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥ जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: बैसि = बैठ के। परोसन लागा = (भोजन) बाँटने लगा।3।

अर्थ: आग झूठी, पानी झूठा, पकाने वाली झूठी, कड़छी झूठी जिससे (सब्ज़ी आदि) बाँटता है, वह प्राणी भी झूठा जो बैठ के खाता है।3।

गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥ कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥

पद्अर्थ: गोबर = पशू मल (जिससे चौके को पोचा लगाया जाता है)। कारा = चौके की बाहरी लकीरें। कहि = कहे, कहता है। तेई = वही।4।

अर्थ: गोबर झूठा, चौका झूठा, झूठी ही उस चौके के चारों तरफ़ डाली हुई (हदबंदी की) लकीरें। कबीर कहता है: सिर्फ वही मनुष्य पवित्र हैं जिन्हें परमात्मा की समझ आ गई है।4।1।7।

शब्द का भाव: त्रैगुणी माया के असर तले प्रभु को बिसार के जीव अपवित्र बने रहते हैं, हर जगह माया का प्रभाव है। लकीरें खींच के चौका बनाने से जगह पवित्र नहीं हो जाती। सिर्फ वही व्यक्ति पवित्र हैं जिनको परमात्मा की सूझ पड़ जाती है।

रामानंद जी घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥ मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कत = और कहाँ? रे = हे भाई! रंगु = मौज। घर = हृदय रूप घर में ही। न चलै = भटकता नहीं है। पंगु = पिंगला, जो हिल जुल नलहीं सकता, स्थिर।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! और कहाँ जाऐं? (अब) हृदय-घर में ही मौज बन गई है; मेरा मन अब डोलता नहीं, स्थिर हो गया है।1। रहाउ।

एक दिवस मन भई उमंग ॥ घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥ पूजन चाली ब्रहम ठाइ ॥ सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥

पद्अर्थ: दिवस = दिन। उमंग = चाह, तमन्ना, ख्वाहिश। घसि = घिसा के। चोआ = इत्र। बहु = कई। सुगंध = सुगंधियाँ। ब्रहम ठाइ = ठाकुर द्वारे, मन्दिर में।1।

अर्थ: एक दिन मेरे मन में भी यह चाहत पैदा हुई थी, मैंने चंदन घिसा के इत्र व अन्य कई सुगंधियाँ ले लीं, और मैं मन्दिर में पूजा करने चल पड़ी। पर अब तो मुझे वह परमात्मा (जिसको मैं मन्दिर में रहता समझती थी) मेरे गुरु ने मेरे मन में ही बसता दिखा दिया है।1।

जहा जाईऐ तह जल पखान ॥ तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥ बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥ ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥

पद्अर्थ: जोइ = ढूँढ के, खोज के। तह = वहाँ। जल पखान = (तीर्थों पर) पानी, (मन्दिरों में) पत्थर। समान = एक सा। ऊहाँ = वहाँ (तीर्थों और मन्दिरों में)। तउ = तो ही। जउ = अगर। ईहाँ = यहीं (हृदय में)।2।

अर्थ: (तीर्थों पर जाऐं चाहे मन्दिरों में जाऐं) जहाँ भी जाऐं वहाँ पानी है अथवा पत्थर हैं। हे प्रभु! तू तो हर जगह एक समान भरपूर (व्यापक) है, वेद-पुराण आदि धर्म-पुस्तकें भी खोज के देख ली हैं। सो तीर्थों पर मन्दिरों में तब ही जाने की जरूरत है अगर परमात्मा मेरे मन में ना बसता हो।2।

सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥ जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥ रामानंद सुआमी रमत ब्रहम ॥ गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥

पद्अर्थ: बलिहारी तोर = तुझसे सदके। जिनि = जिस ने। बिकल = कठिन। भ्रम = वहम, भुलेखे। मोर = मेरे। रामानंद सुआमी = रामानंद का प्रभु। रमत = सब जगह मौजूद है। कोटि = करोड़ों। करम = (किए हुए बुरे) काम।3।1।

अर्थ: हे सतिगुरु! मैं तुझसे सदके जाता हूँ, जिसने मेरे सारे मुश्किल भुलेखे दूर कर दिए हैं। रामानंद का मालिक प्रभु हर जगह मौजूद है (और, गुरु के माध्यम से मिलता है, क्योंकि) गुरु का शब्द करोड़ों (किए हुए बुरे) कर्मों का नाश कर देता है।3।1।

नोट: भक्त रामानंद जी जाति के ब्राहमण थे। पर, धर्म-नायक ब्राहमणों के द्वारा डाले हुए भुलेखों का इस शब्द में खण्डन करते हैं कि तीर्थों के स्नान और मूर्ति-पूजा से मन की अवस्था ऊँची नहीं हो सकती। अगर पूरे गुरु की शरण पड़ें, तो सारे भुलेखे दूर हो जाते हैं, और, परमात्मा हर जगह व्यापक और अपने अंदर बसता दिखता है। सतिगुरु का शब्द ही जन्मों-जन्मांतरों के किए हुए दुष्कर्मों का नाश करने में समर्थ है।

ज़रूरी नोट: इस शब्द का भाव पूरी तरह से गुरमति से मिलता है। पर, फिर भी भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन अपनी किताब में भक्त परमानन्द जी के बारे में इस प्रकार लिखते हैं;

“भक्त रामानंद जी मूर्ति-पूजक और वेदांत मत के पक्के श्रद्धालू थे। इन्होंने काशी में आ के छूआ-छात के आशय की वैरागी मत की नई शाखा चलाई। गुसाई जी ने कर्मकांड में बहुत समय तक रुचि रखी, जनेऊ-तिलक आदि चिन्हों के तो आखिर तक पाबंद रहे।”

इससे आगे भक्त जी का यह शब्द लिख के फिर यूँ कहते हैं;

“उक्त शब्द में वेदांत मत की झलक है, पर आप बैरागी थे। मन्दिर की पूजा का वर्णन उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि यह शब्द आप के मत के विरुद्ध क्यों है आप की क्रिया कर्मकांड थी।”

और

“गुसाई जी हमेशा पीले वस्त्र पहनते थे, ये विष्णू जी का रंग माना गया है।”

शब्द के शब्द ‘रामानंद सुआमी’ को इस सज्जन जी ने समझने की कोशिश नहीं की, या फिर खण्डन करने के उतावलेपन में जान-बूझ के समझना नहीं चाहते थे, सो इन शब्दों के बारे में लिखते हैं;

“भक्त जी ने अपने आप को ‘स्वामी’ करके लिखा है, पता नहीं किस ख्याल से? हो सकता है कि यह शब्द उनके किसी चेले की रचना हो। क्या सारी आयू में रामानंद जी ने एक शब्द उचारण किया? ”

आईए, अब इन ऐतराज़ों पर ध्यान से विचार करें। ये ऐतराज़ दो हिस्सों में बाँटे जा सकते हैं, एक वह जो भक्त जी के इस शब्द के विरोध में किए गए हैं, और दूसरे वो जो उनके जीवन-चर्या के विरुद्ध हैं।

शब्द के विरोध में निम्न-लिखित ऐतराज़ है: 1. उक्त शब्द में वेदांत की झलक है। 2. मन्दिर की पूजा का जिकर उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि ये शब्द आप के मत के विरुद्ध क्यों है। 3. भक्त जी ने अपने आप को ‘स्वामी’ कर के लिखा है, पता नहीं किस ख्याल से? हो सकता है कि यह शब्द उनके किसी चेले की रचना हो। 4. क्या सारी जीवन-काल में रामानंद जी ने सिर्फ एक ही शब्द उचारा?

इन ऐतराजों पर विचार:

अगर इस शब्द में वेदांत की झलक है तो वह नीचे दी गई तुकों में ही हो सकती होगी;

अ. सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि॥
आ. तू पूरि रहिओ है सभ समान॥
इ. रामानंद सुआमी रमत ब्रहम॥

पाठक-गण स्वयं ही इमानदारी से देख लें कि इन तुकों में कौन सा ख्याल गुरमति के उलट है।

रामानंद जी तो अपना मत इस शब्द में ये बता रहे हैं कि तीर्थों पर स्नान और मूर्ति-पूजा से मन के भ्रम काटे नहीं जा सकते। पर जिस लोगों ने भक्त जी के अपने शब्दों पर ऐतबार नहीं करना, उनके साथ किसी तरह की विचार-चर्चा का कोई लाभ नहीं निकल सकता।

तुक ‘रामानंद सुआमी रमत ब्रहम’ पर ऐतराज़ करने वाले सज्जन से समझा है कि भक्त रामानंद जी ने अपने आप को ‘सुआमी’ कहा है। फिर खुद ही अंदाजा लगाते हैं कि ये शब्द उनके किसी चेले की रचना होगी। यदि उक्त सज्जन जान-बूझ के भोले नहीं बन रहे, तो इस तुक का अर्थ यूँ है – रामानंद का स्वामी ब्रहम हर जगह रमा हुआ है। इसी तरह गुरु अरजन साहिब ने भी सारंग राग में शब्द नंबर 136 में अकाल पुरख के दर्शनों की तमन्ना करते हुए यूँ कहा है;

नानक सुआमी गरि मिले, हउ गुर मनाउगी॥ नानक सुआमी– नानक का स्वामी;
इसी तरह ‘रामानंद सुआमी’ का अर्थ हुआ ‘रामानंद का स्वामी’।

गुरबाणी का व्याकरण थोड़ा सा भी समझने वाला सज्जन समझ लेगा कि यहाँ शब्द ‘नानक’ संबंधकारक एकवचन है।

इसी तरह धनासरी राग के छंत में गुरू नानक देव जी कहते हैं;
नानक साहिबु अगम अगोचरु, जीवा सची नाई॥

और

नानक साहिबु अवरु न दूजा, नामि तेरे वडिआई॥
यहाँ दोनों तुकों में ‘नानक साहिबु’ का अर्थ है ‘नानक का साहिब’।

सिख धर्म का अंजान विरोधी ही यह कहेगा कि गुरु नानक देव जी ने यहाँ अपने आप को ‘साहिबु’ कहा है।

यह ऐतराज़ कोई वजनदार नहीं लगता। अगर रामानंद जी ने सारी उम्र सिर्फ यही शब्द उचारा होता, तो भी इस शब्द की सच्चाई किसी भी हालत में कम नहीं हो जाती। हो सकता है कि उन्होंने सारी उम्र सिर्फ उतने ही प्रचार पर जोर दिया हो जिसका शब्द में वर्णन है। ये तीन बंद छोटे से लगते हैं, पर ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इनमें कितनी सारी सच्चाई छुपी हुई है: (अ) . मन्दिर में जा के किसी पत्थर की मूर्ति को चोआ-चंदन लगा के पूजने की आवश्क्ता नहीं। (आ) . तीर्थों पर नहाने से मन के भ्रम नहीं काटे जाने। (इ) . गुरु की शरण आओ। गुरु ही बताता है कि (ई) . परमात्मा हृदय-मन्दिर में बस रहा है। (उ) . और परमात्मा हर जगह बस रहा है। (ऊ) . गुरु का शब्द ही करोंड़ों कर्मों के संस्कार नाश करने के समर्थ है।

अगर वाणी उच्चारण करना ही किसी महापुरुष की आत्मिक उच्चता का मापदण्ड बनाऐंगे, बहुत बड़ी गलती कर रहे होगे। गुरु हरिगोबिंद साहिब, गुरु हरि राय साहिब, और गुरु हरि क्रिशन साहिब ने कोई भी शब्द नहीं उचारा था। गुरु अंगद साहिब संन 1539 से सन् 1552 तक 13 साल के करीब गुरुता की जिम्मेवारी निभाते रहे, 150 महीनों से ज्यादा बने। पर उनके शलोक 150 भी नहीं हैं। शलोक भी आम तौर पर दो-दो तुक वाले ही हैं। अगर ऐसे ही हिसाब लगाना है तो गुरु अंगद साहिब जी ने एक-एक महीने में दो-दो तुकें भी नहीं उचारी। पर कम वाणी के उचारने से उनमें और गुरु नानक पातशाह में कोई दूरी कोई अंतर नहीं माना जा सकता।

ऐतराज़ करने वाले सज्जन को शब्द में तो कोई ऐतराज़ वाली बात नहीं मिल सकी, ज्यादा जोर वे इसी बात पर देते गए हैं कि रामानंद जी वैरागी थे, तिलक-जनेऊ धारण करते थे, छूआ-छात को मानने वाले थे, पीले कपड़े पहनते थे इत्यादिक।

पर, सिख-इतिहास के अनुसार बाबा लहिणा जी देवी के भक्त थे, हर साल पैरों में घुँघरूँ बाँध के देवी के दर्शनों को जाते थे; देवी के भक्त के लिए छूआ-छूत को मानना अति-आवश्यक है, गले में देवी का मौली का अटा भी पहनते थे, घर आ के नौ-रात्रों में देवी की कँचके बैठाते थे, जनेऊ तो था ही आवश्यक। (गुरु) अमर दास जी 19 साल हर वर्ष तीर्थों पर जाते रहे, ब्राहमणों द्वारा बताए और सारे कर्मकांड भी करते रहे थे।

क्या सिख-धर्म के विरोधी हमें ये कहानियाँ सुना-सुना के कहे जाएंगे, और क्या हमने भी ये मान लेना है कि इन गुरु साहिबान की वाणी इनके जीवन यर्थाथ के उलट थी?

भगत रामानंद जी कभी वैरागी मत के होंगे, तिलक–जनेऊ पहनते होंगे, छूआ–छूत के हामी होंगे, और भी बहुत सी बातें कही जा सकती हैं। पर हमने तो ये देखना है कि गुरू के दर पर आ के भगत रामानंद जी क्या बन गए। वे स्वयं कहते हैं: (अ) . “सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि, (आ) . जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर, (इ) . गुर का सबदु काटै कोटि करम॥ ”

सो, जैसे बाबा लहिणा जी और (गुरु) अमर दास जी का जीवन गुरु-दर पर आ के गुरमति के अनुकूल हो गया, वैसे ही रामानंद जी का जीवन गुरु के पास आ के गुरमति के अनुसार बन गया।

बसंतु बाणी नामदेउ जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

साहिबु संकटवै सेवकु भजै ॥ चिरंकाल न जीवै दोऊ कुल लजै ॥१॥

पद्अर्थ: संकटवै = संकट दे। भजै = भाग जाए, छोड़ जाए। चिरंकाल = बहुत समय। लजै = लज्जा लगाता है, बदनाम कराता है।1।

अर्थ: अगर मालिक अपने नौकर को कष्ट दे, और नौकर (उस कष्ट से डरता) भाग जाए, (जिंद को कष्टों से बचाने के लिए भागता) नौकर सदा तो जीवित नहीं रहता, पर (मालिक को पीठ दे के) अपनी दोनों कुलें बदनाम कर लेता है। (हे प्रभु! लोगों के इस हंसी-मजाक से डर के मैंने तेरे दर से भाग नहीं जाना)।1।

तेरी भगति न छोडउ भावै लोगु हसै ॥ चरन कमल मेरे हीअरे बसैं ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हसै = मजाक करे। हीअरे = हृदय में।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! कमल फूल जैसे कामल तेरे चरण मेरे हृदय में बसते हैं, (और मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, अब) जगत चाहे मजाक उड़ाता रहे, मैं तेरी भक्ति नहीं छोड़ूँगा।1। रहाउ।

जैसे अपने धनहि प्रानी मरनु मांडै ॥ तैसे संत जनां राम नामु न छाडैं ॥२॥

पद्अर्थ: धनहि = धन की खातिर। प्रानी = जीव, व्यक्ति। मांडै = ठान लेता है। मरनु मांडै = मरना ठान लेता है, मरने पर तुल जाता है।2।

अर्थ: जैसे अपना धन बचाने की खातिर मनुष्य मरने पर भी तुल जाता है, वैसे ही प्रभु के भक्त भी प्रभु का नाम (धन) नहीं छोड़ते (उनके पास भी प्रभु का नाम ही धन है)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh