श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारंग महला ४ ॥ जपि मन नरहरे नरहर सुआमी हरि सगल देव देवा स्री राम राम नामा हरि प्रीतमु मोरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। नरहर = (नरसिंह) परमात्मा। सगल देव देवा = सारे देवताओं का देवता। मोरा = मेरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! (सबके) मालिक नरहर-प्रभु का नाम जपा कर, सर्व-व्यापक राम का नाम जपा कर, वह हरि सारे देवताओं का देवता है, वही हरि मेरा प्रीतम है।1। रहाउ।

जितु ग्रिहि गुन गावते हरि के गुन गावते राम गुन गावते तितु ग्रिहि वाजे पंच सबद वड भाग मथोरा ॥ तिन्ह जन के सभि पाप गए सभि दोख गए सभि रोग गए कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु गए तिन्ह जन के हरि मारि कढे पंच चोरा ॥१॥

पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु ग्रिहि = जिसके (हृदय-) घर में। तितु = उस (हृदय-) घर में। पंच सबद = पाँचों किस्मों के बाजे (तार, चंम, धात, घड़े, फूक वाले बाजे)। मथोरा = माथे पर। सभि = सारे। दोख = विकार। पंच चोरा = कामादिक पाँचों (आत्मिक जीवन की संपत्ति) चुराने वाले।1।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जिस (हृदय-) घर में परमात्मा के गुण गाए जाते हैं, हरि के गुण गाए जाते हैं, उस (हृदय-) घर में (मानो) पाँच ही किस्मों के साज बज रहे हैं और आनंद बना हुआ है। (पर यह अवस्था मनुष्यों के अंदर ही बनती है जिनके) माथे के बड़े भाग्य जागते हैं। हे मन! उन मनुष्यों के सारे पाप दूर हो जाते हैं, सारे विकार दूर हो जाते हैं, सारे रोग दूर हो जाते हैं, (उनके अंदर से) काम क्रोध लोभ मोह अहंकार नाश हो जाते हैं। परमात्मा उनके अंदर से (आत्मिक जीवन की राशि चुराने वाले इन) पाँचों चोरों को मार के निकाल देता है।1।

हरि राम बोलहु हरि साधू हरि के जन साधू जगदीसु जपहु मनि बचनि करमि हरि हरि आराधू हरि के जन साधू ॥ हरि राम बोलि हरि राम बोलि सभि पाप गवाधू ॥ नित नित जागरणु करहु सदा सदा आनंदु जपि जगदीसुोरा ॥ मन इछे फल पावहु सभै फल पावहु धरमु अरथु काम मोखु जन नानक हरि सिउ मिले हरि भगत तोरा ॥२॥२॥९॥

पद्अर्थ: हरि साधू = हे परमात्मा के संत जनो! जन साधू = हे साधु जनो! जगदीसु = जगत का मालिक। मनि = मन से। बचनि = वचनों से। आराधू = आराधना करो। बोलि = बोल के। गवाधू = दूर करो। नित = सदा। जागरणु करहु = जागते रहो, (विकारों के हमलों से) सावधान रहो। जपि = जप के।

'जगदीसुोरा' अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘जगदीसुरा’, यहां ‘जगदीसोरा’ पढ़ना है।

मन इछे = मन मांगे। पावहु = हासिल करोगे। धरमु = अपने जीवन नियमों में पक्के रहना। अरथु = दुनियावी जरूरतों की सफलता। काम = कामयाबियाँ। मोखु = मुक्ती, विकारों से खलासी, मोक्ष। तोरा = तेरे।2।

अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा हरि का नाम उचारा करो। हे हरि के संत-जनो! जगत के मालिक-प्रभु का नाम जपा करो। हे हरि के साधु-जनो! अपने मन से (हरेक) वचन से (हरेक) कर्म से प्रभु की आराधना किया करो। हरि का नाम उचार के, राम का नाम जप के सारे पाप दूर हो कर लोगे।

हे संत जनो! सदा ही (विकारों के हमलों से) सचेत रहो। जगत के मालिक का नाम जप-जप के सदा ही आत्मिक आनंद बना रहता है। हे संत जनो! (नाम की इनायत से) सारे मन-माँगे फल हासिल करोगे, सारी मुरादें पा लोगे। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - ये चारों पदार्थ प्राप्त कर लोगे। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! जो मनुष्य तेरे (चरणों) के साथ जुड़े रहते हैं वही तेरे भक्त हैं।2।2।9।

सारग महला ४ ॥ जपि मन माधो मधुसूदनो हरि स्रीरंगो परमेसरो सति परमेसरो प्रभु अंतरजामी ॥ सभ दूखन को हंता सभ सूखन को दाता हरि प्रीतम गुन गाओु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे (मेरे) मन! माधो = (माधव, लक्ष्मी का पति) परमात्मा। मधु सूदनो = मधु सूदन, मधू राक्षस को मारने वाला। स्री रंगो = श्री रंगु, लक्ष्मी का पति। सति = सदा कायम रहने वाला। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। को = का। हंता = नाश करने वाला। दाता = देने वाला। गाओु = गाया कर।1। रहाउ।

नोट: ‘गाओु’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गाअु’ व गाउ, यहां ‘गाओ’ पढ़ना है।

अर्थ: हे मेरे मन! हरेक दिल की जानने वाले प्रभु का नाम जपा कर, वही माया का पति है, वही मधू राक्षस को मारने वाला है, वही हरि लक्ष्मी का पति है, वही सबसे बड़ा मालिक है, वही सदा कायम रहने वाला है। हे मेरे मन! हरि प्रीतम के गुण गाया कर, वही सारे दुखों का नाश करने वाला है, वही सारे सुखों को देंने वाला है।1। रहाउ।

हरि घटि घटे घटि बसता हरि जलि थले हरि बसता हरि थान थानंतरि बसता मै हरि देखन को चाओु ॥ कोई आवै संतो हरि का जनु संतो मेरा प्रीतम जनु संतो मोहि मारगु दिखलावै ॥ तिसु जन के हउ मलि मलि धोवा पाओु ॥१॥

पद्अर्थ: घटि घटे घटि = हरेक शरीर में। बसता = बसा हुआ। जलि थले = जल थल, जल में धरती में। थान थानंतरि = थान अंतरि, हरेक जगह में। को = का। चाओु (असल शब्द है ‘चाअु’ व चाव, यहां ‘चाओ’ पढ़ना है)। संतो = संतु। मोहि = मुझे। मारगु = (सही जीवन का) रास्ता। मलि = मल के। हउ = मैं। धोवा = मैं धोऊँ। पाओु = (असल शब्द है ‘पाअु’ व पाउ, यहां ‘पाओ’ पढ़ना है)।1।

अर्थ: हे मेरे मन! वही हरेक शरीर में बसता है, जल में धरती में बसता है, हरेक जगह में बसता है, मेरे अंदर उसके दर्शनों की तमन्ना है। हे मेरे मन! अगर कोई संत मुझे आ के मिले, हरि का कोई संत आ के मिले, कोई मेरा प्यारा संत जन मुझे आ मिले, और, मुझे (परमात्मा के मिलाप का) रास्ता दिखा जाए, मैं उसके पैर मल-मल के धोऊँ।1।

हरि जन कउ हरि मिलिआ हरि सरधा ते मिलिआ गुरमुखि हरि मिलिआ ॥ मेरै मनि तनि आनंद भए मै देखिआ हरि राओु ॥ जन नानक कउ किरपा भई हरि की किरपा भई जगदीसुर किरपा भई ॥ मै अनदिनो सद सद सदा हरि जपिआ हरि नाओु ॥२॥३॥१०॥

पद्अर्थ: कउ = को। ते = से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मेरै मनि = मेरे मन में। राआु = (असल शब्द है ‘राअु’ व राउ, यहां ‘राओ’ पढ़ना है) राजा, बादशाह। अनदिनो = हर रोज, हर वक्त।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने किसी सेवक को मिलता है, (सेवक की) श्रद्धा-भावना के साथ मिलता है, गुरु की शरण पड़ कर मिलता है। (गुरु की मेहर से जब मैंने भी) प्रभु-पातशाह के दर्शन किए, तो मेरे मन में मेरे तन में खुशी ही खुशी पैदा हो गई। हे भाई! दास नानक पर (भी) मेहर हुई है, हरि की मेहर हुई है, जगत के मालिक की कृपा हुई है, मैं अब हर वक्त सदा ही सदा ही उस हरि का नाम जप रहा हूँ।2।3।10।

सारग महला ४ ॥ जपि मन निरभउ ॥ सति सति सदा सति ॥ निरवैरु अकाल मूरति ॥ आजूनी स्मभउ ॥ मेरे मन अनदिनुो धिआइ निरंकारु निराहारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निरभउ = जिसको किसी का डर नहीं। सति = सदा कायम रहने वाला। निरवैरु = जिसका किसी के साथ वैर नहीं। अकाल मूरति = (अकाल = मौत रहित। मूरति = हस्ती, स्वरूप, अस्तित्व) जिसका वजूद जिसका अस्तित्व मौत रहित है। आजूनी = जो जूनियों में नहीं पड़ता। संभउ = (स्वयंभू) जो अपने आप से प्रकट होता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। निरंकारु = जिसका कोई खास आकार (मूर्ति, शकल) नहीं बताया जा सकता। निराहारी = (निर+आहार। आहार = भोजन, खुराक) जिसको किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं पड़ती।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, जिसको किसी से कोई डर नहीं, जो सदा सदा ही कायम रहने वाला है, जिसका किसी के साथ कोई वैर नहीं, जिसकी हस्ती मौत से परे है, जो जूनियों में नहीं आता, जो अपने-आप से प्रकट होता है। हे मेरे मन! हर वक्त उस परमात्मा का ध्यान धरा कर, जिसका कोई स्वरूप (मूर्ति, शकल) नहीं बयान किया जा सकता, जिसको किसी आहार की आवश्यक्ता नहीं।1। रहाउ।

हरि दरसन कउ हरि दरसन कउ कोटि कोटि तेतीस सिध जती जोगी तट तीरथ परभवन करत रहत निराहारी ॥ तिन जन की सेवा थाइ पई जिन्ह कउ किरपाल होवतु बनवारी ॥१॥

पद्अर्थ: कउ = की खातिर। कोटि तेतीस = तैंतिस करोड़ देवते। सिध = सिद्ध, जोग साधना में पहुँचे हुए योगी। जती = इन्द्रियों को वश में रखने वाले। तट = नदियों के किनारे। परभवन = रटन। रहत = रहते हैं। थाइ पई = स्वीकार हो गई। जिन कउ = जिस पर। बनवारी = (जंगल के फूलों की माला वाला) परमात्मा।1।

अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा के दर्शनों की खातिर तैंतिस करोड़ देवते, सिद्ध जती जोगी भूखे रह के अनेक तीर्थों के रटन करते फिरते हैं। हे मन! उन (भाग्यशालियों) की ही सेवा स्वीकार होती है जिस पर परमात्मा स्वयं दयावान होता है।1।

हरि के हो संत भले ते ऊतम भगत भले जो भावत हरि राम मुरारी ॥ जिन्ह का अंगु करै मेरा सुआमी तिन्ह की नानक हरि पैज सवारी ॥२॥४॥११॥

पद्अर्थ: रे = हे भाई! ते = वह (बहुवचन)। जो = जो (लोग)। भावत = अच्छे लगते हैं। मुरारी = (मुर+अरि = मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। अंगु = पक्ष, मदद। पैज = सत्कार, इज्जत।2।

अर्थ: हे भाई! वह हरि के संत अच्छे हैं, वह हरि के भक्त श्रेष्ठ हैं जो दुष्ट-दमन परमात्मा को प्यारे लगते हैं। हे नानक! मेरा मालिक-प्रभु जिस मनुष्यों का पक्ष करता है (लोक-परलोक में) उनकी इज्जत रख लेता है।2।4।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh