श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1203 करहि सोम पाकु हिरहि पर दरबा अंतरि झूठ गुमान ॥ सासत्र बेद की बिधि नही जाणहि बिआपे मन कै मान ॥२॥ पद्अर्थ: करहि = करते हैं। सोम पाक = (स्वयं पाक) अपने हाथों से भोजन तैयार करना। हिरहि = चुराते हैं। दरबा = धन। गुमान = अहंकार। बिधि = विधि, ढंग, तरीका, मर्यादा। बिआपे = फसे हुए। मन कै मान = मन के मान में।2। अर्थ: हे भाई! (इस तरह के वैश्णव कहलवाने वाले मनुष्य) अपने हाथों से अपना भोजन तैयार करते हैं पर पराया धन चुराते हैं, उनके अंदर झूठ बसता है अहंकार बसता है। वे मनुष्य (अपनी धर्म-पुस्तकों) वेद-शास्त्रों की आत्मिक मर्यादा नहीं समझते, वे तो अपने मन के अहंकार में ही फसे रहते हैं।2। संधिआ काल करहि सभि वरता जिउ सफरी द्मफान ॥ प्रभू भुलाए ऊझड़ि पाए निहफल सभि करमान ॥३॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। सफरी = मदारी। दंफान = तमाशा। ऊझड़ि = कुमार्ग। करमन = कर्म।3। अर्थ: हे भाई! (इस तरह के वैश्णव कहलवाने वाले वैसे तो) तीन समय संध्या करते हैं, सारे व्रत भी रखते हैं (पर उनका ये सारा उद्यम ऐसे ही है) जैसे किसी मदारी का तमाशा (रोटी कमाने के लिए)। (पर, उनके भी क्या वश?) प्रभु ने स्वयं ही उनको सही रास्ते से भटकाया है, गलत राह पर डाला हुआ है, उनके सारे (किए हुए धार्मिक) कर्म व्यर्थ जाते हैं।3। सो गिआनी सो बैसनौ पड़्हिआ जिसु करी क्रिपा भगवान ॥ ओुनि सतिगुरु सेवि परम पदु पाइआ उधरिआ सगल बिस्वान ॥४॥ पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञानवान। पढ़िआ = विद्वान। जिसु = जिस पर। ओुनि = उस ने। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। बिस्वान = (विश्व) जगत।4। नोट: ‘ओुनि’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘अुनि’ व उनि, यहां ‘ओनि’ पढ़ना है। अर्थ: हे भाई! असल ज्ञानवान वह मनुष्य है, असल वैश्णव वह है, असल विद्वान वह है, जिस पर परमात्मा ने मेहर की है, (जिसकी इनायत से) उसने गुरु की शरण पड़ कर सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल किया है, (ऐसे मनुष्य की संगति में) सारा जगत ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है।4। किआ हम कथह किछु कथि नही जाणह प्रभ भावै तिवै बुोलान ॥ साधसंगति की धूरि इक मांगउ जन नानक पइओ सरान ॥५॥२॥ पद्अर्थ: कथह = हम कह सकते हैं। नही जाणह = हम नहीं जानते। बुोलान = बोलाता है (असल शब्द है ‘बोलान’, यहां ‘बुलान’ पढ़ना है)। मांगउ = मैं माँगता हूँ। सरान = शरण।5। अर्थ: पर, हे भाई! हम जीव (परमात्मा की रजा के बारे) क्या कह सकते हैं? हम कुछ कहना नहीं जानते। जैसे प्रभु को अच्छा लगता है वैसे ही वह हम जीवों को बोलने के लिए प्रेरित करता है। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) मैं तो प्रभु की शरण पड़ा हूँ (और उसके दर से) सिर्फ साधु-संगत (के चरणों) की धूल ही माँगता हूँ।5।2। सारग महला ५ ॥ अब मोरो नाचनो रहो ॥ लालु रगीला सहजे पाइओ सतिगुर बचनि लहो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोरो = मेरा। नाचनो = माया की खातिर भटकना, माया के हाथों में नाचना। रहो = समाप्त हो गया। सहजे = आत्मिक अडोलता में। बचनि = वचन से। लहो = मिल गया है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन के द्वारा आत्मिक अडोलता में टिक के मैंने सोहाना लाल प्रभु ढूँढ लिया है प्राप्त कर लिया है। अब मेरी भटकना समाप्त हो गई है।1। रहाउ। कुआर कंनिआ जैसे संगि सहेरी प्रिअ बचन उपहास कहो ॥ जउ सुरिजनु ग्रिह भीतरि आइओ तब मुखु काजि लजो ॥१॥ पद्अर्थ: कुआर कंनिआ = क्वारी लड़की। संगी सहेरी = सहेलियों के साथ। उपहास = हसीं से, हस हस के। प्रिअ बचन कहे = अपने प्रीतम की बातें करती है। सुरिजनु = पति। मुखु = मुँह। काजि = ढक लेती है। लजो = इज्जत से।1। अर्थ: जैसे कोई क्वारी कन्या सहेलियों के साथ अपने (मंगेतर) प्यारे की बातें हँस-हँस के करती है, पर जब (उसका) पति घर में आता है तब (वह लड़की) लज्जा से अपना मुँह ढक लेती है।1। जिउ कनिको कोठारी चड़िओ कबरो होत फिरो ॥ जब ते सुध भए है बारहि तब ते थान थिरो ॥२॥ पद्अर्थ: कनिको = सोना। कोठारी चढ़िओ = कुठाली में पड़ता है। कबरो = कमला। जब ते = जब से। बारहि = बारह तरह का। तब ते = तब से। थान थिरो = टिक जाता है, दोबारा कुठाली में नहीं पड़ता।2। अर्थ: जैसे कुठाली में पड़ा हुआ सोना (सेक से) कमला हुआ फिरता है, पर जब वह बारह वंनी का शुद्ध हो जाता है, तब वह (सेक में तड़फने से) अडोल हो जाता है।2। जउ दिनु रैनि तऊ लउ बजिओ मूरत घरी पलो ॥ बजावनहारो ऊठि सिधारिओ तब फिरि बाजु न भइओ ॥३॥ पद्अर्थ: जउ दिनु = जिस दिन तक, जब तक। रैनि = (जिंदगी की) रात। तऊ लउ = उतने समय तक ही। मूरत = महूरत। बजावनहारो = बजाने वाला जीव। बाजु न भइओ = (घ्ड़ियाल) नहीं बजता।3। अर्थ: जब तक (मनुष्य की जिंदगी की) रात कायम रहती है तब तक (उम्र के बीतते जाने की खबर देने के लिए घड़ियाल से) महूरत घड़ियाँ पल बजते रहते हैं। पर जब इनको बजाने वाला (दुनिया से) उठ चलता है, तब (उन घड़ियों पलों का) बजना समाप्त हो जाता है।3। जैसे कु्मभ उदक पूरि आनिओ तब ओुहु भिंन द्रिसटो ॥ कहु नानक कु्मभु जलै महि डारिओ अ्मभै अ्मभ मिलो ॥४॥३॥ पद्अर्थ: कुंभ = घड़ा। उदकि = पानी से। पूरि = भर के। आनिओ = ले आए। ओुहु = वह (पानी)। भिंन = अलग। द्रिसटे = दिखता है। जलै महि = पानी में ही। अंभै = पानी को। अंभ = पानी।4। नोट: ‘ओुहु’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘अुहु’ व उहु, यहां ‘ओहु’ पढ़ना है। अर्थ: जैसे जब कोई घड़ा पानी से भर के लाया जाए, तब (घड़े वाला) वह (पानी कूआँ आदि के अन्य पानियों से) अलग दिखता है। हे नानक! कह: जब वह (भरा हुआ) घड़ा पानी में डाल देते हैं तब (घड़े का) पानी अन्य पानी में मिल जाता है।4।3। सारग महला ५ ॥ अब पूछे किआ कहा ॥ लैनो नामु अम्रित रसु नीको बावर बिखु सिउ गहि रहा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पूछे = अगर (तुझे) पूछा जाए। किआ कहा = क्या बताएगा? लैनो = लेना था। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। नीको = सुंदर। बावर = हे कमले? बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया का मोह जहर। गहि रहा = चिपक रहा है।1। रहाउ। अर्थ: हे कमले! अब अगर तुझे पूछा जाए तो क्या बताएगा? (तूने यहाँ जगत में आ के) आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का सुंदर नाम-रस लेना था, पर तू तो आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर के साथ ही चिपक रहा है।1। रहाउ। दुलभ जनमु चिरंकाल पाइओ जातउ कउडी बदलहा ॥ काथूरी को गाहकु आइओ लादिओ कालर बिरख जिवहा ॥१॥ पद्अर्थ: दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। चिरंकाल = चिरों के बाद। जातउ = जा रहा हैं बदलहा = बदले में। काथूरी = कस्तूरी। को = का। लादिओ = तू लाद रहा है, तूने खरीद लिया है। बिरख जिवहा = जिवांह के पौधे।1। अर्थ: हे झल्ले! बड़े चिरों के बाद (तुझे) दुर्लभ (मनुष्य का) जनम मिला था, पर ये तो कौड़ी के बदले जा रहा है। तू (यहाँ पर) कस्तूरी का गाहक बनने के लिए आया था, पर तूने यहाँ से कल्लर लाद लिया है, जिवांहां के बूटे लाद लिए हैं।1। आइओ लाभु लाभन कै ताई मोहनि ठागउरी सिउ उलझि पहा ॥ काच बादरै लालु खोई है फिरि इहु अउसरु कदि लहा ॥२॥ पद्अर्थ: लाभन कै ताई = ढूँढने के लिए। मोहनि = मन को मोहने वाली। ठागउरी = ठग-बूटी। उलझि पहा = मन जोड़ बैठा है। काच = काँच। बादरै = बदले में। खोई है = गवा रहा है। अउसरु = समय। कदि = कब? लहा = पाएगा।2। अर्थ: हे कमले! (तू जगत में आत्मिक जीवन का) लाभ कमाने के लिए आया था, पर तू तो मन को मोहने वाली माया ठग-बूटी के साथ ही अपना मन जोड़ बैठा है, तू काँच के बदले लाल गवा रहा है। हे कमले! ये मानव जन्म वाला समय फिर कब ढूँढेगा?।2। सगल पराध एकु गुणु नाही ठाकुरु छोडह दासि भजहा ॥ आई मसटि जड़वत की निआई जिउ तसकरु दरि सांन्हिहा ॥३॥ पद्अर्थ: पराध = अपराध, खुनामीआ। छोडह = हम जीव छोड़ देते हैं। दासि = दासी, माया। भजहा = भज, हम भजते हैं। मसटि = चुप, मूर्छा सा। जड़वत की निआई = जड़ (बेजान) पदार्थों की तरह। तसकरु = चोर। दरि = दर पर, दरवाजे पर। सांन्हिहा = सेंध।3। अर्थ: हे भाई! हम जीवों में सारी कमियाँ ही हैं गुण एक भी नहीं। हम मालिक-प्रभु को छोड़ देते हैं और उसकी दासी की ही सेवा करते रहते हैं। जैसे कोई चोर सेंध के दरवाजे पर (पकड़ा जा के मार खा-खा के बेहोश हो जाता है, वैसे ही नाम-जपने की ओर से हमें) जड़-पदार्थों की तरह मूर्छा ही आई रहती है।3। आन उपाउ न कोऊ सूझै हरि दासा सरणी परि रहा ॥ कहु नानक तब ही मन छुटीऐ जउ सगले अउगन मेटि धरहा ॥४॥४॥ पद्अर्थ: उपाउ = उपाय, इलाज। परि रहा = मैं पड़ा रहता हूँ। मन = हे मन! छूटीऐ = माया के पँजे से बच सकते हैं। जउ = जब। मेटि धरहा = हम मिटा दें।4। अर्थ: हे भाई! (इस मोहनी माया के पँजे में से निकलने के लिए मुझे तो) कोई और ढंग नहीं सूझता, मैं तो परमात्मा के दासों की शरण पड़ा रहता हूँ। हे नानक! कह: हे मन! माया के मोह में से तब ही बचा जा सकता है जब (प्रभु के सेवकों की शरण पड़ कर अपने अंदर से) हम सारे अवगुण मिटा दें।4।4। सारग महला ५ ॥ माई धीरि रही प्रिअ बहुतु बिरागिओ ॥ अनिक भांति आनूप रंग रे तिन्ह सिउ रुचै न लागिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माई = हे माँ! धीरि = धैर्य, सहने की ताकत। रही = रह गई है, समाप्त हो गई है। प्रिअ गिरागिओ = प्यारे के वैराग, प्यारे के विछोड़े का दर्द। अनिक भांति = अनेक तरीकों से। आनूप = सुंदर। रे = हे भाई! (पुलिंग)। रुचै = प्यार, खींच।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरी) माँ! (मेरे अंदर) प्यारे से विछोड़े का दर्द बहुत तेज़ हो गया है इसे सहने की ताकत नहीं रह गई। हे भाई! (दुनिया के) अनेक किस्मों के सुंदर-सुंदर रंग-तमाशे हैं, पर मेरे अंदर इनके लिए कोई आकर्ष नहीं रहा।1। रहाउ। निसि बासुर प्रिअ प्रिअ मुखि टेरउ नींद पलक नही जागिओ ॥ हार कजर बसत्र अनिक सीगार रे बिनु पिर सभै बिखु लागिओ ॥१॥ पद्अर्थ: निसि = रात। बासुर = दिन। प्रिअ = हे प्यारे! मुखि = मुँह से। टेरउ = मैं उचारती हूँ, मैं पुकारती हूँ। कजर = काजल। बसत्र = कपड़े। सीगार = श्रृंगार, गहने। रे = हे भाई! बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर।1। अर्थ: हे (वीर)! रात-दिन मैं (अपने) मुँह से ‘हे प्यारे! हे प्यारे! बोलती रहती हूँ, मुझे एक पल भी नींद नहीं आती, सदा जाग के (समय गुजार रही हूँ)। हे (वीर)! हार, काजल, कपड़े, अनेक गहने- ये सारे प्रभु-पति के मिलाप के बिना मुझे आत्मिक मौत लाने वाली जहर दिख रहे हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |