श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1204 पूछउ पूछउ दीन भांति करि कोऊ कहै प्रिअ देसांगिओ ॥ हींओु देंउ सभु मनु तनु अरपउ सीसु चरण परि राखिओ ॥२॥ पद्अर्थ: पूछउ = मैं पूछती हूँ। दीन = निमाणा। दीन भांति करि = निमाणों की तरह। भांति = तरीका। प्रिअ देसांगिउ = प्यारे का देश। हीओुं = हीओ, हृदय। देंउ = मैं देती हूँ, मैं देने को तैयार हूँ। अरपउ = मैं भेटा करती हूँ। राखिओ = राखि, रख के।2। नोट: ‘हीओुं’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘हीओु’ व हिउ, यहां ‘हिओ’ पढ़ना है। अर्थ: (हे माँ!) निमाणों की तरह मैं बार-बार पूछती फिरती हूँ, भला यदि कोई मुझे प्यारे का देश बता दे। (प्यारे का देश बताने वाले के) चरणों पर (अपना) सिर रख के मैंने अपना हृदय, अपना मन अपना तन सब कुछ भेटा करने को तैयाद हूँ।2। चरण बंदना अमोल दासरो देंउ साधसंगति अरदागिओ ॥ करहु क्रिपा मोहि प्रभू मिलावहु निमख दरसु पेखागिओ ॥३॥ पद्अर्थ: बंदना = नमसकार। अमोल = मूल्य के बिना, अनमोल। दासरे = निमाणा सा दास (पुलिंग)। अरदागिओ = अरदास। देंउ अरदागिओ = मैं अरदास भेट करता हूँ। मोहि = मुझे। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। पेखागिओ = मैं देखूँ।3। अर्थ: हे भाई! मैं साधु-संगत के चरणों में नमस्कार करता हूँ, मैं साधु-संगत का बगैर किसी मूल्य के ही एक निमाणा सा दास हूँ, मैं साधु-संगत के आगे अरदास करता हूँ- (मेरे पर) मेहर करो, मुझे परमात्मा मिला दो, मैं (उसका) आँख झपकने जितने समय के लिए ही दर्शन कर लूँ।3। द्रिसटि भई तब भीतरि आइओ मेरा मनु अनदिनु सीतलागिओ ॥ कहु नानक रसि मंगल गाए सबदु अनाहदु बाजिओ ॥४॥५॥ पद्अर्थ: द्रिसटि = (मेहर की) निगाह। भीतरि = मेरे हृदय में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सीतलागिओ = शीतल, शांत, ठंडा। नानक = हे नाकक! रसि = रस से, स्वाद से। मंगल = खुशी के गीत, महिमा के गीत। अनाहद = (अनआहत) बिना बजाए, एक रस, हर वक्त। सबदु बाजिओ = गुरु का शब्द बज रहा है, शबदअपना पूरा प्रभाव डाल रहा है।4। अर्थ: हे भाई! (जब परमात्मा की मेहर की) निगाह (मेरे ऊपर) हुई, तब वह मेरे हृदय में आ बसा। अब मेरा मन हर वक्त शीतल रहता है। हे नानक! कह: अब मैं उसकी महिमा के गीत स्वाद से गाता हूँ, (मेरे अंदर) गुरु का शब्द एक-रस अपना पूरा प्रभाव डाले रखता है।4।5। सारग महला ५ ॥ माई सति सति सति हरि सति सति सति साधा ॥ बचनु गुरू जो पूरै कहिओ मै छीकि गांठरी बाधा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माई = हे माँ! सति हरि = सदा कायम रहने वाला हरि। सति साधा = अटल आत्मिक जीवन वाला गुरु। गुरू पूरै = पूरे गुरु ने। छीकि = खींच के। गांठरी = पल्ले। बाधा = बाँध लिया है।1। रहाउ। अर्थ: हे माँ! परमात्मा सदा ही कायम रहने वाला है, परमात्मा के संत जन भी अटल आत्मिक जीवन वाले हैं - ये जो वचन (मुझे) पूरे गुरु ने बताया है, मैंने इसको कस के अपने पल्ले से बाँध लिया है।1। रहाउ। निसि बासुर नखिअत्र बिनासी रवि ससीअर बेनाधा ॥ गिरि बसुधा जल पवन जाइगो इकि साध बचन अटलाधा ॥१॥ पद्अर्थ: निसि = रात। बासुर = दिन। नखिअत्र = तारे। बिनासी = नाशवान। रवि = सूरज। ससीअर = (शशधर) चंद्रमा। बेनाधा = नाशवान। गिरि = पहाड़। बसुधा = धरती। पवन = हवा। इकि = कई।1। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे माँ! रात, दिन, तारे, सूरज, चँद्रमा - ये सारे नाशवान हैं। पहाड़, धरती, हवा - हरेक चीज़ नाश हो जाएगी। सिर्फ गुरु के वच नही कभी टल नहीं सकते।1। अंड बिनासी जेर बिनासी उतभुज सेत बिनाधा ॥ चारि बिनासी खटहि बिनासी इकि साध बचन निहचलाधा ॥२॥ पद्अर्थ: अंड, जेर, उत्भुज, सेत = अंडों से, जियोर से, धरती से, पसीने स पैदा होने वाले। चारि = चार वेद। खटहि = छह शास्त्र भी। निहचलाधा = अटल।2। अर्थ: रे माँ! अंडों से, ज्योर से, धरती से, पसीने से पैदा होने वाले सब जीव नाशवान हैं। चार वेद, छह शास्त्र- ये भी नाशवान हैं। सिर्फ गुरु के वच नही सदा कायम रहने वाले हैं। धर्म-पुस्तकें तो कई बनीं और कई मिटी, पर साधु के वचन, भाव, नाम-जपने की पद्धति सदा अटल रहती है।2। राज बिनासी ताम बिनासी सातकु भी बेनाधा ॥ द्रिसटिमान है सगल बिनासी इकि साध बचन आगाधा ॥३॥ पद्अर्थ: राज ताम, सातकु = राजस, तामस, सातक (माया के तीन गुण) = इन गुणों के प्रभाव में रहने वाले सारे जीव। द्रिसटिमान = जो कुछ दिखाई दे रहा है, यह सारा दिखता जगह। अगाधा = अगाध, अथाह, अंत रहित।3। अर्थ: हे माँ! (माया के तीन गुण) राजस तामस सातक नाशवान हैं। जो कुछ (यह जगत) दिखाई दे रहा है सारा नाशवान है। सिर्फ गुरु के वच नही ऐसे हैं जो अटल हैं (भाव, आत्मिक जीवन के लिए जो मर्यादा गुरु ने बताई है वह कभी भी कहीं भी नहीं बदल सकती)।3। आपे आपि आप ही आपे सभु आपन खेलु दिखाधा ॥ पाइओ न जाई कही भांति रे प्रभु नानक गुर मिलि लाधा ॥४॥६॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सभु खेलु = सारा (जगत-) तमाशा। कहीं भांति = (और) किसी तरीके से। रे = हे भाई! नानक = हे नानक! गुर मिलि = गुरु को मिल के।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) रे भाई! जो परमात्मा (अपने जैसा) स्वयं ही स्वयं है, जिसने यह सारा जगत जगत-तमाशा दिखाया हुआ है, वह औक्र किसी भी तरीके से नहीं मिल सकता। वह प्रभु गुरु को मिल के (ही) पाया जा सकता है।4।6। सारग महला ५ ॥ मेरै मनि बासिबो गुर गोबिंद ॥ जहां सिमरनु भइओ है ठाकुर तहां नगर सुख आनंद ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। बासिबो = बसता है। जहा = जहाँ। सिमरनु ठाकुर = ठाकुर का स्मरण। तहां नगर = उन (हृदय) नगरों में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरे मन में गुरु गोबिंद बस रहा है। (मुझे इस तरह समझ आ रहा है कि) जहाँ ठाकुर-प्रभु का स्मरण होता रहता है, उनके (हृदय-) नगरों में सुख-आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ। जहां बीसरै ठाकुरु पिआरो तहां दूख सभ आपद ॥ जह गुन गाइ आनंद मंगल रूप तहां सदा सुख स्मपद ॥१॥ पद्अर्थ: बीसरै = बिसर जाता है। सभ आपद = सारी बिपदाएं, सभी आपदाएं। गाई = गाता है। संपद = ऐश्वर्य।1। अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में मालिक प्रभु (की याद) भूल जाती है, वहाँ सारे दुख सारी मुसीबतें आई रहती हैं। जहाँ (कोई मनुष्य) आनंद और खुशियाँ देने वाले हरि-गुण गाता रहता है, उस हृदय में खुशियाँ उस हृदय में चढ़दीकला (उत्साह) बना रहता है।1। जहा स्रवन हरि कथा न सुनीऐ तह महा भइआन उदिआनद ॥ जहां कीरतनु साधसंगति रसु तह सघन बास फलांनद ॥२॥ पद्अर्थ: स्रवन = कानों से। न सुनीऐ = नहीं सुनी जाती। तह = वहाँ। भइआन = भयानक, डरावना। उदिआन = जंगल। कीरतनु = महिमा। रसु = स्वाद। सघन बास = संघनी सुगंधि। फलांनद = फलों का आनंद।2। अर्थ: हे भाई! जहाँ कानों से परमात्मा की महिमा नहीं सुनी जाती, उस हृदय में (मानो) बहुत भयानक जंगल बना हुआ है, वहाँ (मानो, ऐसा बाग़ है जहाँ) सघन-सुगंधि है और फलों का आनंद है।2। बिनु सिमरन कोटि बरख जीवै सगली अउध ब्रिथानद ॥ एक निमख गोबिंद भजनु करि तउ सदा सदा जीवानद ॥३॥ पद्अर्थ: कोटि बरख = करोड़ों वर्ष। जीवै = अगर जीता है। सगली = सी। अउध = उम्र। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। जीवानद = आत्मिक जीवन जीता है।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के स्मरण के बिना अगर कोई मनुष्य करोड़ों वर्ष भी जीता रहे, (तो भी उसकी) सारी उम्र व्यर्थ जाती है। पर अगर मनुष्य गासेबिंद का भजन आँख झपकने जितने समय के लिए भी करे, तो वह सदा ही आत्मिक जीवन जीता है।3। सरनि सरनि सरनि प्रभ पावउ दीजै साधसंगति किरपानद ॥ नानक पूरि रहिओ है सरब मै सगल गुणा बिधि जांनद ॥४॥७॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। दीजै = दे। किरपानद = कृपा से। सरब मै = सभ में, सारी सृष्टि में। बिधि = ढंग। जांनद = जानता है।4। अर्थ: हे प्रभु! मेहर करके मुझे अपनी साधु-संगत (का मिलाप) बख्श (ताकि) मैं सदा के लिए तेरी शरण प्राप्त किए रखूँ। हे नानक! वह परमात्मा सबमें व्यापक है (अपने जीवों के अंदर अपने) सारे गुण पैदा करने का ढंग वह स्वयं ही जानता है।4।7। सारग महला ५ ॥ अब मोहि राम भरोसउ पाए ॥ जो जो सरणि परिओ करुणानिधि ते ते भवहि तराए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अब = अब (परमात्मा की शरण पड़ कर)। भरोसउ = भरोसा, यकीन, निश्चय। मोहि = मैं। निधि = खजाना। करुणा निधि सरणि = तरस के समुंदर प्रभु की शरण। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। भवहि = भव, भव सागर, संसार समुंदर। तराए = पार लंघा दिए।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की शरण पड़ कर) अब मैंने परमात्मा की बाबत ये निष्चय बना लिया है कि जो जो मनुष्य उस तरस के समुंदर प्रभु की शरण पड़ता है, उन सबको परमात्मा संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ। सुखि सोइओ अरु सहजि समाइओ सहसा गुरहि गवाए ॥ जो चाहत सोई हरि कीओ मन बांछत फल पाए ॥१॥ पद्अर्थ: सुखि = सुख में, आत्मिक आनंद में। सोइओ = लीन हो गया। अरु = और (अरि = वैरी)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सहसा = सहम, चिन्ता फिक्र। गुरहि = गुरु ने। मन बांछत = मन माने।1। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की शरण पड़ कर अब मैंने निश्चय बना लिया है कि जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ता है वह) आत्मिक आनंद में लीन रहता है और आत्मिक अडोलता में लीन रहता है और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, गुरु उस की सारी चिन्ता-फिक्र दूर कर देता है। वह जो कुछ चाहता है प्रभु (वही कुछ उसके वास्ते) कर देता है, वह मनुष्य मन-माँगी मुरादें हासिल कर लेता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |