श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1205 हिरदै जपउ नेत्र धिआनु लावउ स्रवनी कथा सुनाए ॥ चरणी चलउ मारगि ठाकुर कै रसना हरि गुण गाए ॥२॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। जपउ = मैं जपता हूँ। नेत्र = आँखों में। धिआनु = तवज्जो, ध्यान। लावउ = मैं लगाता हूँ। स्रवनी = कानों से। सुनाए = सुनता है। चलउ = चलूँ, मैं चलता हूं। मारगि ठाकुर कै = ठाकुर के रास्ते पर। रसना = जीभ। गाए = गाता है।2। अर्थ: हे भाई! (जबसे मैं परमात्मा की शरण पड़ा हूँ, तब से अब) मैं अपने हृदय में (परमात्मा का नाम) जपता हूँ, आँखों में उसका ध्यान धरता हूँ, कानों से उसकी महिमा सुनता हूँ, पैरों से उस मालिक-प्रभु के राह पर चलता हूँ, मेरी जीभ उसके गुण गाती रहती है।2। देखिओ द्रिसटि सरब मंगल रूप उलटी संत कराए ॥ पाइओ लालु अमोलु नामु हरि छोडि न कतहू जाए ॥३॥ पद्अर्थ: देखओ द्रिसटि = निगाह से देख लिया है। सरब मंगल रूप = सारी खुशियों का स्वरूप प्रभु। उलटी कराए = (मेरी रुचि माया से) उल्टा दी है। अमोलु = जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। छोडि = छोड़ के। कतहू = किसी और जगह।3। अर्थ: हे भाई! जब संतजनों ने मेरी रुचि माया की ओर से पलट दी है, मैंने अपनी आँखों से उस सारी खूबियों के मालिक-हरि को देख लिया है। मैंने परमात्मा का कीमती अमूल्य नाम पा लिया है, उस को छोड़ के (मेरा मन अब) और किसी भी तरफ नहीं जाता।3। कवन उपमा कउन बडाई किआ गुन कहउ रीझाए ॥ होत क्रिपाल दीन दइआ प्रभ जन नानक दास दसाए ॥४॥८॥ पद्अर्थ: उपमा = शोभा। कहउ = कहूँ, मैं कहूँ। रीझाए = प्रसन्न करने के लिए। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की कौन सी कीर्ति करूँ? कौन सी महिमा बयान करूँ? कौन से गुण बताऊँ? जिस के करने से वह मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाए। हे दास नानक! दीनों पर दया करने वाला प्रभु स्वयं ही जिस पर दयावान होता है, उसको अपने दासों का दास बना लेता है।4।8। सारग महला ५ ॥ ओुइ सुख का सिउ बरनि सुनावत ॥ अनद बिनोद पेखि प्रभ दरसन मनि मंगल गुन गावत ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: का सिउ = किससे? किसके आगे? बरनि = बयान कर के। पेखि प्रभ दरसन = प्रभु के दरसन देख के। मनि = मन में। मंगल = खुशियां।1। रहाउ। नोट: ‘ओुइ’ है ‘ओुह’ का बहुवचन। अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘ओइ’, यहां ‘उइ’ पढ़ना है। अर्थ: हे भाई! प्रभु के दर्शन करते हुए प्रभु के गुण गाते हुए मन में जो खुशिायाँ पैदा होती हैं जो आनंद-करिश्मे पैदा होते हैं, उन सुखों का बया किसी भी तरह से नहीं किया जा सकता।1। रहाउ। बिसम भई पेखि बिसमादी पूरि रहे किरपावत ॥ पीओ अम्रित नामु अमोलक जिउ चाखि गूंगा मुसकावत ॥१॥ पद्अर्थ: बिसम = हैरान। पेखि = देख के। बिसमादी = आश्चर्य रूप प्रभु। किरपावत = कृपालु हरि। पीओ = पी लिया। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। चाखि = चख के।1। अर्थ: हे भाई! उस आश्चर्य-रूप और कृपा के श्रोत सर्व-व्यापक प्रभु के दर्शन करके मैं हैरान हो गई हूँ। जब मैंने उसका आत्मिक जीवन देने वाला अमल्य नाम-जल पीया (तब मेरी हालत ऐसे हो गई) जैसे कोई गूँगा मनुष्य (गुड़ वगैरा) चख के (सिर्फ) मुस्कराता ही है। (स्वाद बता नहीं सकता)।1। जैसे पवनु बंध करि राखिओ बूझ न आवत जावत ॥ जा कउ रिदै प्रगासु भइओ हरि उआ की कही न जाइ कहावत ॥२॥ पद्अर्थ: पवनु = हवा, प्राण। बंध करि = बाँध के, रोक के। बूझ = समझ। आवत जावत = (प्राणों के) आने से जाने से। जा कउ रिदै = जिसके हृदय में। उआ की कहावत = उस की दशा।2। अर्थ: हे भाई! जैसे (कोई जोगी) अपने प्राण रोक लेता है, उनके आने-जाने की (किसी और को) समझ नहीं पड़ सकती (इसी तरह) जिस मनुष्य के दिल में परमात्मा का प्रकाश हो जाता है, उस मनुष्य की आत्मिक दशा बयान नहीं की जा सकती।2। आन उपाव जेते किछु कहीअहि तेते सीखे पावत ॥ अचिंत लालु ग्रिह भीतरि प्रगटिओ अगम जैसे परखावत ॥३॥ पद्अर्थ: आन = अन्य, और। उपाव = उपाय, प्रयत्न। जेते = जितने भी। कहीअहि = कहे जाते हें। तेते = वे सारे। सीखे = (किसी से) सीखने से। पावत = सीखे जाते हैं। अचिंत = चिता दूर करने वाला हरि। ग्रिह भीतरि = हृदय के अंदर ही। अगम जैसे = कठिन सा। परखावत = (उसका) परखना।3। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (दुनियावी गुण सीखने के लिए) अन्य जितने भी प्रयत्न बताए जाते हैं, वे (और से) सीखने से ही सीखे जा सकते हैं। पर चिन्ता दूर करने वाला सुंदर प्रभु मनुष्य के हृदय-घर के अंदर ही प्रकट हो जाता है (जिसके दिल में प्रकट होता है, उसकी) करनी कठिन सा काम है।3। निरगुण निरंकार अबिनासी अतुलो तुलिओ न जावत ॥ कहु नानक अजरु जिनि जरिआ तिस ही कउ बनि आवत ॥४॥९॥ पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से परे। निरंकार = जिसका कोई खास रूप नहीं बताया जा सकता। अजरु = (अ+जरु) जिसका जरा नहीं व्याप सकता (जरा = बुढ़ापा)। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जरिआ = जड़ लिया, हृदय में परो लिया। बनि आवत = फबता है, जानता है।4। नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा माया के तीन गुणों की पहुँच से परे है, परमात्मा का कोई स्वरूप बताया नहीं जा सकता, परमात्मा नाश-रहित है, वह अतोल है, उसको तोला नहीं जा सकता। हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने उस सदा जवान रहने वाले (बुढ़ापा-रहत) परमात्मा को अपने मन में बसा लिया, उसकी आत्मिक दशा वह स्वयं ही जानता है (बयान नहीं की जा सकती)।4।9। सारग महला ५ ॥ बिखई दिनु रैनि इव ही गुदारै ॥ गोबिंदु न भजै अह्मबुधि माता जनमु जूऐ जिउ हारै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिखई = विषयी विकारी मनुष्य। रैनि = रात। इव ही = इसी तरह (विकारों में) ही। गुदारै = गुजारता है। न भजै = नहीं स्मरण करता। अहंबुधि = अहंकार। माता = मस्त। जूऐ = जूऐ में। जिउ = (जुआरिए) की तरह।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! विषयी मनुष्य इसी तरह (विकारों में) ही दिन-रात (अपनी उम्र) गुजारता है। (विषयी मनुष्य) परमात्मा का भजन नहीं करता, अहंकार में मस्त हुआ (अपना मानव) जनम (यूँ) हार जाता है जैसे (जुआरिआ) जूए में (बाज़ी हारता है)।1। रहाउ। नामु अमोला प्रीति न तिस सिउ पर निंदा हितकारै ॥ छापरु बांधि सवारै त्रिण को दुआरै पावकु जारै ॥१॥ पद्अर्थ: अमोला = जो अमूल्य है। सिउ = साथ। हितकारै = प्यार करता है। छापरु त्रिण को = तिनकों का छप्पर। बाधि = बाँध के, बना के। दुआरै = (छप्पर के) दरवाजे पर। पावकु = आग। जारै = जलाता है।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम बहुत ही कीमती है (विषयी मनुष्य) उसके साथ प्यार नहीं डालता, दूसरों की निंदा करने में रुचि रखता है। (विषयी मनुष्य, मानो) तिनकों का छप्पर बना के (उसको) सजाता रहता है (पर उसके) दरवाजे पर आग जला देता है (जिस कारण हर वक्त उसके जलने का खतरा बना रहता है)।1। कालर पोट उठावै मूंडहि अम्रितु मन ते डारै ॥ ओढै बसत्र काजर महि परिआ बहुरि बहुरि फिरि झारै ॥२॥ पद्अर्थ: कालर पोट = कल्लर की पोटली। मूंडहि = सिर पर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से, में से। डारे = फेंक देता है। ओढै = पहनता है, ओढ़े। काजर महि = काजल में, कालिख भरे कमरे में। परिआ = बैठा हुआ। बहुरि = दोबारा। झारै = झाड़ता है।2। अर्थ: हे भाई! (विकारों में फसा हुआ मनुष्य, मानो) कल्लर की पोटली (अपने) सिर पर उठाए फिरता है, और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अपने) मन में से (बाहर) फेंक देता है, कालिख (-भरे कमरे) में बैठा हुआ (सफेद) कपड़े पहनता है और (कपड़ों पर पड़ी कालिख़ को) बार-बार झाड़ता रहता ड्ढहै।2। काटै पेडु डाल परि ठाढौ खाइ खाइ मुसकारै ॥ गिरिओ जाइ रसातलि परिओ छिटी छिटी सिर भारै ॥३॥ पद्अर्थ: पेडु = पेड़। डाल = अहनी। पारि = पर। ठाढो = खड़ा हुआ। मुसकारै = मुस्कराता है। जाइ = जा के। रसातलि = पाताल में, गहरी जगह में। छिटी छिटी = टुकड़े टुकड़े, हड्डी हड्डी। परिओ सिर भारै = सियर भार जा पड़ा।3। अर्थ: हे भाई! (विकारों में फसा हुआ मनुष्य, मानो, वृख की ही) अहनियों पर खड़ा हुआ (उसी) वृक्ष को काट रहा है, (साथ-साथ ही मिठाई वगैरा) खा-खा के मुस्करा रहा है। (पर वृक्ष के कट जाने पर वह मनुष्य) गहरे गड्ढे में जा गिरता है, सिर भार गिर के हड्डी-हड्डी हो जाता है।3। निरवैरै संगि वैरु रचाए पहुचि न सकै गवारै ॥ कहु नानक संतन का राखा पारब्रहमु निरंकारै ॥४॥१०॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। गवारै = गवार मूर्ख। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! मूर्ख (विकारी) मनुष्य उस संत-जन के साथ सदा वैर बनाए रखता है जो किसी के साथ भी वैर नहीं करता। (मूर्ख उस संत जन के साथ बराबरी करने का प्रयत्न करता है, पर) उसकी बराबरी नहीं कर सकता। हे नानक! कह: (विकारी मूर्ख मनुष्य संत-जनों का कुछ बिगाड़ नहीं सकता, क्योंकि) संत-जनों का रखवाला निरंकार पारब्रहम (सदा स्वयं) है।4।10। सारग महला ५ ॥ अवरि सभि भूले भ्रमत न जानिआ ॥ एकु सुधाखरु जा कै हिरदै वसिआ तिनि बेदहि ततु पछानिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अवरि = और, अन्य। सभि = सारे। भूले = सही जीवन-राह से भटके हुए। भ्रमत = भटकते हुए। न जानिआ = आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती। सुधाखरु = शुद्ध अक्षर, पवित्र हरि नाम। जा कै हिरदै = जिस मनुष्य के हृदय में। तिनि = उस (मनुष्य) ने। बेदहि ततु = वे (आदि धर्म पुस्तकों) की अस्लियत।1। रहाउ। नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य के हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसता है, उसने (समझो) वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) का तत्व समझ लिया। अन्य सारे जीव गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, (माया की खातिर) भटकते हुए उनको (सही जीवन-राह की) सूझ नहीं पड़ती।1। रहाउ। परविरति मारगु जेता किछु होईऐ तेता लोग पचारा ॥ जउ लउ रिदै नही परगासा तउ लउ अंध अंधारा ॥१॥ पद्अर्थ: परविरति मारगु = दुनियसां के धंधों में व्यस्त रहने वाला जीवन-राह। मारगु = रास्ता। जेता = जितना ही। तेता = वह सारा ही। लोग पचारा = जगत को परचाने वाला, लोगों में अपनी इज्जत बनाए रखने वाला। जउ लउ = जब तक। परगासा = रौशनी। अंध अंधारा = घोर अंधेरा।1। अर्थ: हे भाई! दुनिया के धंधों में व्यस्त रहने वाले जितने भी जीवन-राह हैं, ये सारे लोगों के अपनी इज्जत बनाए रखने वाले रास्ते हैं। जब तक (मनुष्य के) हृदय में (हरि-नाम की) रौशनी नहीं होती, तब तक (आत्मिक जीवन की तरफ से) घोर-अंधकार ही टिका रहता है।1। जैसे धरती साधै बहु बिधि बिनु बीजै नही जांमै ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई है तुटै नाही अभिमानै ॥२॥ पद्अर्थ: जैसे = जिस तरह। साधै = साधता है, तैयार करता है। बहु बिधि = कई तरीकों से। जांमे = पैदा होता है, उगता। मुकति = विकारों से मुक्ति।2। अर्थ: हे भाई! जैसे (कोई किसान अपनी) जमीन को कई तरीकों से तैयार करता है, पर उस में बीज बीजे बिना कुछ भी नहीं उगता। (इसी तरह) परमात्मा का नाम (हृदय में बीजे) बिना मनुष्य को विकारों से निजात नहीं मिलती, उसके अंदर से अहंकार नहीं खत्म होता।2। नीरु बिलोवै अति स्रमु पावै नैनू कैसे रीसै ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न काहू मिलत नही जगदीसै ॥३॥ पद्अर्थ: नीरु = पानी। बिलोवै = मथता है। स्रमु = श्रम, मेहनत, थकावट। नैनू = मक्खन। कैसे रीजै = कैसे निकल सकता है? बिनु भेटे = मिले बिना। काहू = किसी को भी। जगदीसै = जगत के मालिक हरि को।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पानी को ही मथता रहता है वह सिर्फ थकावट ही मोल लेता है, (पानी के मथने से उसमें से) मक्खन नहीं निकल सकता। (वैसे ही) गुरु के मिले बिना किसी को भी मुक्ति (विकारों से खलासी) प्राप्त नहीं होती, मनुष्य परमात्मा को नहीं मिल सकता।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |