श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1206 खोजत खोजत इहै बीचारिओ सरब सुखा हरि नामा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जा कै लेखु मथामा ॥४॥११॥ पद्अर्थ: खोजत = खोज करते हुए। इहै ही = यह ही। सरब = सारे। जा कै मथामा = जिसके माथे पर।4। अर्थ: हे नानक! कह: खोज करते-करते (हमने) यही विचार की है कि परमात्मा का नाम (ही) सारे सुख देने वाला है। पर यह हरि-नाम उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे पर (हरि-नाम की प्राप्ति का) लेख (जागता) है।4।11। सारग महला ५ ॥ अनदिनु राम के गुण कहीऐ ॥ सगल पदारथ सरब सूख सिधि मन बांछत फल लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। कहीऐ = आओ, भाई! कहा करें। सगल = सारे। सिधि = सिद्धियां। मन बांछत = मन मांगे। लहीऐ = आओ, भाई! प्राप्त करें।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! आओ, हम हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहें। (गुण-गान की इनायत से) हे भाई! आओ, सारे पदार्थ, सारे सुख, सारी सिद्धियां, सारे मन-माँगे फल हासिल करें।1। रहाउ। आवहु संत प्रान सुखदाते सिमरह प्रभु अबिनासी ॥ अनाथह नाथु दीन दुख भंजन पूरि रहिओ घट वासी ॥१॥ पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! सिमरह = आओ, हम स्मरण करें। अनाथह नाथु = अनाथों के नाथ। दीन = गरीब। पूरि रहिओ = व्यापक है। घट वासी = सारे शरीर में बसने वाला।1। अर्थ: हे संत जनो! आओ, हम प्राण-दाते सुख-दाते अविनाशी प्रभु (का नाम) स्मरण करें। वह प्रभु अनाथों का नाथ है, वह प्रभु गरीबों के दुखों का नाश करने वाला है, वह प्रभु सब जगह व्यापक है, वह प्रभु सारे शरीरों में मौजूद है।1। गावत सुनत सुनावत सरधा हरि रसु पी वडभागे ॥ कलि कलेस मिटे सभि तन ते राम नाम लिव जागे ॥२॥ पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। सरधा = श्रद्धा से। पी = पी के। वड भागै = बड़े भाग्यों वाले। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। सभि = सारे। ते = से। लिव = लगन। जागे = सचेत हो गए।2। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा के गुण श्रद्धा से गाते सुनते-सुनते परमात्मा का नाम-रस पी के बहुत भाग्यशाली बन जाया जाता हैं हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के (विकारों के हमलों से सदा) सचेत रहते हैं, उनके शरीर में से सारे झगड़े सारे दुख मिट जाते हैं।2। कामु क्रोधु झूठु तजि निंदा हरि सिमरनि बंधन तूटे ॥ मोह मगन अहं अंध ममता गुर किरपा ते छूटे ॥३॥ पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सिमरनि = स्मरण से। मोह मगन = मोह (के समुंदर) में डूबे रहना। अहं अंध = अहंकार में अंधे हुए रहना। ममता = अपनत्व। गुर किरपा ते = गुरु की कृपा से।3। अर्थ: हे संत जनो! काम क्रोध झूठ निंदा छोड़ के परमात्मा का नाम स्मरण से (मनुष्य के अंदर से माया के मोह की सारी) फाहियां टूट जाती हैं। मोह में डूबे रहना, अहंकार में अंधे हुए रहना, माया के कब्जे की लालसा- यह सारे गुरु की कृपा से (मनुष्य के अंदर से) खत्म हो जाते हैं।3। तू समरथु पारब्रहम सुआमी करि किरपा जनु तेरा ॥ पूरि रहिओ सरब महि ठाकुरु नानक सो प्रभु नेरा ॥४॥१२॥ पद्अर्थ: समरथु = सारी ताकतों का मालिक। पारब्रहम = हे पारब्रहम! सुआमी = हे स्वामी! जनु = सेवक। सरब महि = सारे जीवों में। नानक = हे नानक! नेरा = (सबके) नजदीक।4। अर्थ: हे पारब्रहम! हे स्वामी! तू सब ताकतों का मालिक है (मेरे पर) मेहर कर (मुझे अपने नाम जपने की ख़ैर दे, मैं) तेरा दास हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) मालिक-प्रभु सब जीवों में व्यापक है, वह प्रभु सबके नजदीक बसता है।4।12। सारग महला ५ ॥ बलिहारी गुरदेव चरन ॥ जा कै संगि पारब्रहमु धिआईऐ उपदेसु हमारी गति करन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बलिहारी = सदके, कुर्बान। जा कै संगि = जिस (गुरु) की संगति में। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (मैं अपने) गुरु के चरणों से बलिहार जाता हूँ, जिसका उपदेश हम जीवों की ऊँची आत्मि्क दशा बना देता है।1। रहाउ। दूख रोग भै सगल बिनासे जो आवै हरि संत सरन ॥ आपि जपै अवरह नामु जपावै वड समरथ तारन तरन ॥१॥ पद्अर्थ: भै सगल = सारे डर, भय। अवरह = और लोगों को। तरन = बेड़ी, नाव।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हरि के संत गुरदेव की शरण पड़ता है, उसके सारे दुख सारे रोग सारे डर नाश हो जाते हैं। वह मनुष्य बड़ी सामर्थ्य वाले हरि का, सबको संसार-समुंदर से पार लंघाने योग्य हरि का नाम स्वयं जपता है व और लोगों को जपाता है।1। जा को मंत्रु उतारै सहसा ऊणे कउ सुभर भरन ॥ हरि दासन की आगिआ मानत ते नाही फुनि गरभ परन ॥२॥ पद्अर्थ: ज के मंत्रु = जिस (गुरु) का उपदेश। सहसा = सहम। ऊणे कउ = आत्मिक जीवन से वंचित को। सुभर करन = नाको नाक भर देता है। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। फुनि = दोबारा।2। अर्थ: हे भाई! (मैं अपने गुरु के चरणों से बलिहार जाता हूँ) जिसका उपदेश मनुष्य का सहम दूर कर देता है जो गुरु आत्मिक जीवन से वंचित मनुष्यों को नाको-नाक भर देता है। (हे भाई!) जो मनुष्य हरि के दासों की रज़ा में चलते हैं, वे दोबारा जनम-मरन के चक्करों में नहीं पड़ते।2। भगतन की टहल कमावत गावत दुख काटे ता के जनम मरन ॥ जा कउ भइओ क्रिपालु बीठुला तिनि हरि हरि अजर जरन ॥३॥ पद्अर्थ: त के = उनके। जा कउ = जिस मनुष्य पर। बीठुला = विष्ठुल, माया के प्रभाव से परे रहने वाला। तिनि = उस (मनुष्य) ने। हरि अजर = जरा रहित हरि को। जरन = (हृदय में) परो लिया।3। अर्थ: हे भाई! संत-जनों की सेवा करते हुए परमात्मा के गुण गाते हुए (गुरु) उनके जनम-मरण के सारे दुख काट देता है। (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य पर माया से निर्लिप प्रभु दयावान होता है, उस मनुष्य ने सदा जवान रहने वाले (जरा रहि अर्थात जिसे बुढ़ापा नहीं आता, उस) परमात्मा को अपने हृदय में बसा लिया है।3। हरि रसहि अघाने सहजि समाने मुख ते नाही जात बरन ॥ गुर प्रसादि नानक संतोखे नामु प्रभू जपि जपि उधरन ॥४॥१३॥ पद्अर्थ: हरि रसहि = हरि के नाम रस से। अघाने = तृप्त हो गए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मुख ते = मुँह से। जात बरन = बयान किए जा सकते। प्रसादि = कृपा से। संतोखे = संतोषी हो गए। जपि = जप के। उधरन = संसार समुंदर से पार लांघ गए।4। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य ने गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम-रस से तृप्त हो जाते हैं, आत्मिक अडोलता में लीन हो जाते हैं (उनकी ऊँची आत्मिक अवस्था) मुँह से बयान नहीं की जा सकती। वे मनुष्य प्रभु का नाम ज पके संतोषी जीवन वाले हो जाते हैं, वे मनुष्य प्रभु का नाम ज पके संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।4।13। सारग महला ५ ॥ गाइओ री मै गुण निधि मंगल गाइओ ॥ भले संजोग भले दिन अउसर जउ गोपालु रीझाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: री = हे बहिन! (स्त्रीलिंग)। गुणनिधि = गुणों का खजाना प्रभु। मंगल = महिमा के गीत, खुशी के गीत। संजोग = मिलाप के सबब। अउसर = समय। जउ = जब। गोपालु = सृष्टि का पालनहार प्रभु। रीझाइओ = प्रसन्न कर लिया।1। रहाउ। अर्थ: हे बहिन! (प्राणों के लिए वह) भले सबब होते हैं, भाग्यशाली दिन होते हैं, सुंदर समय होते हैं, जब (कोई जिंद) सृष्टि के पालनहार प्रभु को प्रसन्न कर ले। हे बहिन! मैं भी उस गुणों के खजाने प्रभु के महिमा के गीत गा रही हूँ।1। रहाउ। संतह चरन मोरलो माथा ॥ हमरे मसतकि संत धरे हाथा ॥१॥ पद्अर्थ: मोरलो = मेरा। मसतकि = माथे पर।1। अर्थ: हे बहिन! मेरा माथा अब संतजनों के चरणों पर है, मेरे माथे पर संत-जनों ने अपने हाथ रखे हैं- (मेरे लिए यह बहुत भाग्यशाली समय है)।1। साधह मंत्रु मोरलो मनूआ ॥ ता ते गतु होए त्रै गुनीआ ॥२॥ पद्अर्थ: मंत्रु = उपदेश। ता ते = उस (उपदेश) से। गतु होए = दूर हो गए। त्रै गुनीआ = माया के तीन गुण।2। अर्थ: हे बहिन! गुरु का उपदेश मेरे अंजान मन में आ बसा है, उसकी इनायत से (मेरे अंदर से) माया के तीनों ही गुणों का प्रभाव दूर हो गया है।2। भगतह दरसु देखि नैन रंगा ॥ लोभ मोह तूटे भ्रम संगा ॥३॥ पद्अर्थ: देखि = देख के। नैन = खोल के। रंगा = प्रेम। संगा = साथ।3। अर्थ: हे बहिन! संतजनों के दर्शन करके मेरी आँखों में (ऐसा) प्रेम पैदा हो गया है कि लोभ मोह भटकना का साथ (मेरे अंदर से) समाप्त हो गया है।3। कहु नानक सुख सहज अनंदा ॥ खोल्हि भीति मिले परमानंदा ॥४॥१४॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। खोल्हि = खोल् के। भीति = दीवार, पर्दा। परमानंदा = सबसे ऊँचे आनन्द का मालिक प्रभु।4। अर्थ: हे नानक! कह: (हे बहिन! मेरे अंदर से अहंकार की) दीवार तोड़ के सबसे ऊँचे आनंद के मालिक-प्रभु जी मुझे मिल गए हैं (अब मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने हुए हैं।4।14। सारग महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कैसे कहउ मोहि जीअ बेदनाई ॥ दरसन पिआस प्रिअ प्रीति मनोहर मनु न रहै बहु बिधि उमकाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीअ बेदनाई = दिल की पीड़ा। मोहि = मैं। पिआस = तमन्ना। मनोहर = मन को मोह लेने वाला। प्रिअ मनोहर प्रीति = मन को मोह लेने वाले प्यारे (हरि) की प्रीत। न रहै = टिकता नहीं, धीरज नहीं आता। बहु बिधि = कई तरीकों से। उमकाई = उमंग में आता है।1। रहाउ। अर्थ: हे वीर! मैं अपने दिल की पीड़ा कैसे बगयान करूँ? (नहीं बयान कर सकती)। मेरे अंदर मन को मोह लेने वाले प्यारे प्रभु की प्रीति है उसके दर्शनों की तमन्ना है (दर्शन के बिना मेरा) मन धीरज नहीं धरता, (मेरे अंदर) कई तरीकों से उमंग उठ रही है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |