श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1214 तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥ पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितने समय। मिलि = मिले, यदि मिले। ते = वे (बहुवचन)। लिव = लगन। लाई = लगा के।2। अर्थ: हे भाई! उस (परमात्मा की याद) के बिना आँख झपकने जितनें समय के लिए भी नहीं रहा जा सकता, उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। हे नानक! कह– जो मनुष्य साध-संगति में मिलते हैं, वे मनुष्य परमात्मा में सुरति जोड़ के मस्त रहते हैं।2।25।48। सारग महला ५ ॥ अपना मीतु सुआमी गाईऐ ॥ आस न अवर काहू की कीजै सुखदाता प्रभु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मीतु = मित्र। सुआमी = मालिक। गाईअै = सिफत-सालाह करनी चाहिए। अवर काहू की = किसी भी और की। कीजै = करनी चाहिए। धिआईअै = सिमरना चाहिए।1। रहाउ। तिसु बिनु निमख नही रहि सकीऐ बिसरि न कबहू जाई ॥ कहु नानक मिलि संतसंगति ते मगन भए लिव लाई ॥२॥२५॥४८॥ पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितने समय। मिलि = मिले, यदि मिले। ते = वे (बहुवचन)। लिव = लगन। लाई = लगा के।2। अर्थ: हे भाई! उस (परमात्मा की याद) के बिना आँख झपकने जितनें समय के लिए भी नहीं रहा जा सकता, उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। हे नानक! कह: जो मनुष्य साधु-संगत में मिलते हैं, वे मनुष्य परमात्मा में तवज्जो जोड़ के मस्त रहते हैं।2।25।48। सारग महला ५ ॥ अपना मीतु सुआमी गाईऐ ॥ आस न अवर काहू की कीजै सुखदाता प्रभु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मीतु = मित्र। सुआमी = मालिक। गाईऐ = महिमा करनी चाहिए। अवर काहू की = किसी भी और की। कीजै = करनी चाहिए। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु ही अपना असल मित्र है। उसकी महिमा करनी चाहिए। (परमात्मा के बिना) किसी भी और की आस नहीं करनी चाहिए, वह प्रभु ही सारे सुख देने वाला है, उसी का स्मरण करना चाहिए।1। रहाउ। सूख मंगल कलिआण जिसहि घरि तिस ही सरणी पाईऐ ॥ तिसहि तिआगि मानुखु जे सेवहु तउ लाज लोनु होइ जाईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: मंगलु = खुशियाँ। कलिआण = सुख। जिसहि घरि = जिस (प्रभु) के ही घर मे। पाईऐ = पड़ना चाहिए। तिआगि = छोड़ के। सेवहु = खुशामद करोगे। लाज = शर्म। लोनु = लोयण, आँखें। लाज लोनु = शर्मशार आँखों वाला।1। नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के ही घर में सारे सुख हैं खुशियाँ हैं आनंद हैं, उसकी ही शरण पड़े रहना चाहिए। हे भाई! अगर तुम उस प्रभु को छोड़ के मनुष्य की खुशामद करते फिरोगे, तो शर्मसार होने पड़ता है।1। एक ओट पकरी ठाकुर की गुर मिलि मति बुधि पाईऐ ॥ गुण निधान नानक प्रभु मिलिआ सगल चुकी मुहताईऐ ॥२॥२६॥४९॥ पद्अर्थ: ओट = आसरा। पकरी = पकड़ी है। गुर मिलि = गुरु को मिल के। गुण निधान = गुणों का खजाना। चुकी = समाप्त हो गई है। मुहताईऐ = मुथाजगी।2। अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के जिस मनुष्य ने उच्च बुद्धि प्राप्त कर ली, उसने सिर्फ मालिक-प्रभु का ही आसरा लिया। हे नानक! सारे गुणों का खजाना प्रभु जिस मनुष्य को मिल गया, उसकी सारी अधीनता समाप्त हो गई।2।26।49। सारग महला ५ ॥ ओट सताणी प्रभ जीउ मेरै ॥ द्रिसटि न लिआवउ अवर काहू कउ माणि महति प्रभ तेरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओट = आसरा। सताणी = ताकत वाली, तगड़ी। मेरै = मेरे अंदर। द्रिसटि न लिआवउ = मैं निगाह में नहीं लाता। तेरै माणि = मेरे माण के आसरे। तेरै महति = तेरे बड़प्पन के आसरे। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! मेरे हृदय में तेरा बहुत ताकतवर सहारा है। हे प्रभु! तेरे माण के आसरे तेरे बड़प्पन के आसरे मैं ओर किसी को निगाह में नहीं लाता (मैं किसी की तरफ देखता भी नहीं, किसी और को तेरे बराबर का नहीं समझता)।1। रहाउ। अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै काढि लीआ बिखु घेरै ॥ अम्रित नामु अउखधु मुखि दीनो जाइ पइआ गुर पैरै ॥१॥ पद्अर्थ: अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर। घरै = घेरे में। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अउखधु = दवा। मुखि = मुँह में। गुर पैरै = गुरु के चरणों पर।1। अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्य को अंगीकार किया, उसको उस (प्रभु) ने आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर के घेरे में से निकाल लिया। वह मनुष्य गुरु के चरणों में जा गिरा, और, (गुरु ने उसके) मुँह में आत्मिक जीवन देने वाली नाम-दवा दी।1। कवन उपमा कहउ एक मुख निरगुण के दातेरै ॥ काटि सिलक जउ अपुना कीनो नानक सूख घनेरै ॥२॥२७॥५०॥ पद्अर्थ: कवन उपमा = कौन कौन सी बड़ाई, महिमा? कहउ = मैं कहूँ? निरगुण = गुण हीन। दातेरै = दाते के। काटि = काट के। सिलक = फंदा। जउ = जब। घनेरै = बहुत।2। अर्थ: हे भाई! गुण-हीनों को गुण देने वाले प्रभु की मैं अपने एक मुँह से कौन-कौन सी महिमा बयान करूँ? हे नानक! जब उसने किसी भाग्यशाली को उसके माया के फंदे काट के अपना बना लिया, उसको बेअंत सुख प्राप्त हो गए।2।27।50। सारग महला ५ ॥ प्रभ सिमरत दूख बिनासी ॥ भइओ क्रिपालु जीअ सुखदाता होई सगल खलासी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दूख बिनासी = सारे दुखों का नाश करने वाला। जीअ दाता = जिंद देने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सारे दुखों का नाश किरने वाले प्रभु का स्मरण करने से प्राण देने वाला औक्र सुख देने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर दसावान होता है, सारे ही विकारों से उसकी खलासी हो जाती है।1। रहाउ। अवरु न कोऊ सूझै प्रभ बिनु कहु को किसु पहि जासी ॥ जिउ जाणहु तिउ राखहु ठाकुर सभु किछु तुम ही पासी ॥१॥ पद्अर्थ: कहु = बताओ। को = कौन? किसु पहि = किसके पास? जासी = जाएगा। ठाकुर = हे ठाकुर! तुम ही पासी = तेरे ही पास, तेरे ही वश में।1। अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम-जपने वाले मनुष्य को) परमात्मा के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं सूझता (वह सदा यही कहता है:) बता, (हे भाई! प्रभु को छोड़ के) कौन किसके पास जा सकता है? (वह सदा अरदास करता है:) हे ठाकुर! जैसे हो सके वैसे मेरी रक्षा कर, हरेक चीज़ तेरे ही पास है।1। हाथ देइ राखे प्रभि अपुने सद जीवन अबिनासी ॥ कहु नानक मनि अनदु भइआ है काटी जम की फासी ॥२॥२८॥५१॥ पद्अर्थ: देइ = दे के। प्रभि = प्रभु ने। सद जीवन = अटल जीवन वाले। अबिनासी = आत्मिक मौत से रहित। मनि = मन में। फासी = फंदा।2। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्यों को हाथ दे के रख लिया, वे अटल आत्मिक जीवन वाले बन गए, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती। उनके मन में आनंद बना रहता है, उनकी जमों वाला फंदा काटा जाता है।2।28।51। सारग महला ५ ॥ मेरो मनु जत कत तुझहि सम्हारै ॥ हम बारिक दीन पिता प्रभ मेरे जिउ जानहि तिउ पारै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। तुझहि = तुझे ही। समारै = याद करता है। दीन = गरीब। प्रभ = हे प्रभु! जिउ जानहि = जैसे तू जानता है। पारै = पार उतारा।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मेरा मन हर जगह तुझे याद करता है। हे मेरे प्रभु पिता! हम (तेरे) गरीब बच्चे हैं, जैसे हो सके वैसे (हमें संसार-समुंदर से) पार लंघ्ज्ञा ले।1। रहाउ। जब भुखौ तब भोजनु मांगै अघाए सूख सघारै ॥ तब अरोग जब तुम संगि बसतौ छुटकत होइ रवारै ॥१॥ पद्अर्थ: मांगै = (बालक) माँगता है। अघाए = (जब) अघा जाता है, तृप्त हो जाता है। सघारै = सारे। तुम संगि = तेरे साथ। छुटकत = (तुझसे) विछुड़ा हुआ। रवारै = धूल, मिट्टी।1। अर्थ: हे प्रभु! जब (बच्चा) भूखा होता है तब (खाने के लिए) भोजन माँगता है, जब अघा जाता है, तब उसको सारे सुख (प्रतीत होते हैं)। (इसी तरह ये जीव) जब तेरे से (तेरे चरणों में) बसता है, तब इसको कोई रोग नहीं सताता, (तुझसे) विछुड़ा हुआ (ये) मिट्टी हासे जाता है।1। कवन बसेरो दास दासन को थापिउ थापनहारै ॥ नामु न बिसरै तब जीवनु पाईऐ बिनती नानक इह सारै ॥२॥२९॥५२॥ पद्अर्थ: बसेरो = बस, जोर। को = का। थापि = थाप के, पैदा करके। उथापनहारै = नाश करने वाला है। पाईऐ = हासिल करते हैं। बिनती सारै = विनती करता है।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरे दासों के दास का क्या जोर चल सकता है? तू स्वयं ही पैदा करने वाला है। (तेरा दास) नानक यह (ही) विनती करता है: जब तेरा नाम नहीं भूलता, तब (आत्मिक) जीवन हासिल होता है।2।29।52। सारग महला ५ ॥ मन ते भै भउ दूरि पराइओ ॥ लाल दइआल गुलाल लाडिले सहजि सहजि गुन गाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से। भै भउ = डरों का डर, दुनिया के डरों का सहम। दूरि पराइओ = दूर चला गया। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। लाडिले गुन = प्यारे के गुण।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जब) हर वक्त आत्मिक अडोलता में टिक के सुंदर दयालु प्रेम-रस में भीगे हुए प्यारे प्रभु के गुण मैंने गाने शुरू किए, तब मेरे मन से दुनिया के खतरों का सहम दूर हो गया।1। रहाउ। गुर बचनाति कमात क्रिपा ते बहुरि न कतहू धाइओ ॥ रहत उपाधि समाधि सुख आसन भगति वछलु ग्रिहि पाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: कमात = कमाते हुए। क्रिपा ते = (उसकी) मेहर से। बहुरि = दोबारा। कतहू = और कहीं भी। न धाइओ = नहीं भटकता। उपाधि = विकार। आसन = टिकाव। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। ग्रिहि = हृदय घर में।1। अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन को (प्रभु की) कृपा से कमाते हुए (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलते हुए अब मेरा मन) और किसी भी तरफ़ नहीं भटकता, (मेरा मन) विकारों से बच गया है, प्रभु-चरणों में लीनता के सुखों में टिक गया है, मैंने भक्ति से प्यार करने वाले प्रभु को हृदय-घर में पा लिया है।1। नाद बिनोद कोड आनंदा सहजे सहजि समाइओ ॥ करना आपि करावन आपे कहु नानक आपि आपाइओ ॥२॥३०॥५३॥ पद्अर्थ: नाद = राग। बिनोद = करिश्मे तमाशे। कोड = करोड़ों। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। आपे = स्वयं ही। आपि आपाइओ = स्वयं ही स्वयं।2। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! अब मेरा मन) सदा ही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है,– (मानो) सारे रागों और तमाशों के करोड़ों ही आनंद प्राप्त हो गए हैं, (अब इस प्रकार निश्चय हो गया है कि) परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करने वाला है स्वयं ही (जीवों से) करवाने वाला है, सब जगह स्वयं ही स्वयं है।2।30।53। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |