श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दिउस चारि के दीसहि संगी ऊहां नाही जह भारी ॥ तिन सिउ राचि माचि हितु लाइओ जो कामि नही गावारी ॥१॥

पद्अर्थ: दिउस = दिन। चारि = (शब्छ ‘चार’ और ‘चारि’ में अंतर है। चार = सुंदर)। दीसहि = दिखते हैं। संगी = साथी। ऊहां = उस जगह। जह = जहाँ। भारी = बिपता मुश्किल। राचि माचि = रच मिच के। हितु = प्यार। कामि नही = काम नहीं आता। गावारी = हे गवार!।1।

अर्थ: हे गवार! (दुनिया वाले यह) साथी चार दिनों के ही (साथी) दिखते हैं, जहाँ बिपता पड़ती है, वहाँ ये (सहायता) नहीं (कर सकते)। हे गवार! तूने उनके साथ परच के प्यार डाला हुआ है जो (आखिर) तेरे काम नहीं आ सकते।1।

हउ नाही नाही किछु मेरा ना हमरो बसु चारी ॥ करन करावन नानक के प्रभ संतन संगि उधारी ॥२॥३६॥५९॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। बसु = वश। चारी = चारा, जोर। प्रभ = हे प्रभु! संगि = साथ। उधारी = उद्धार, बचा ले।2।

अर्थ: हे सब कुछ केर सकने की सामर्थ्य वाले! हे सब कुछ करा सकने वाले! हे नानक के प्रभु! मेरी कोई बिसात नहीं, (माया के मुकाबले में) मेरा कोई वश नहीं चलता मेरा कोई जोर नहीं चलता, मुझे अपने संतों की संगति में रख के (इस संसार-समुंदर से) मेरा पार-उतारा कर।2।36।59।

सारग महला ५ ॥ मोहनी मोहत रहै न होरी ॥ साधिक सिध सगल की पिआरी तुटै न काहू तोरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मोहनी = माया। होरी = रोकी हुई। रहै न = रुकती नहीं। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = सिद्ध, योग साधना में सिद्ध-हस्त योगी। काहू = किसी से। तोरी = तोड़ी हुई।21। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मोहनी माया (जीवों को) अपने मोह में फसाती रहती है, किसी भी तरफ से रोकने से नहीं रुकती। योग-साधना करने वाले साधु, जोग-साधना में सिद्ध-हस्त योगी- (माया इन) सबकी ही प्यारी है। किसी भी तरह से (उसका प्यार) तोड़ने से नहीं टूटता।1। रहाउ।

खटु सासत्र उचरत रसनागर तीरथ गवन न थोरी ॥ पूजा चक्र बरत नेम तपीआ ऊहा गैलि न छोरी ॥१॥

पद्अर्थ: खटु = छह। रसनागर = रसना+अग्र, मुँह जबानी। ना थोरी = कम नहीं होती, घटती नहीं। चक्र = शरीर पर गणेश आदि के निशान। ऊहा = वहाँ भी। गैलि = पीछा। न छोरी = नहीं छोड़ती।1।

अर्थ: हे भाई! छह शास्त्र मुंह-ज़बानी उचारने से, तीर्थों का रटन करने से भी (माया वाली प्रीति) कम नहीं होती। अनेक लोग हैं देव-पूजा करने वाले, (अपने शरीर के गणेश आदि के) निशान लगाने वाले, व्रत आदि के नियम निभाने वाले, तपक रने वाले। पर माया वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती (माया से मुक्ति नहीं मिलती)।1।

अंध कूप महि पतित होत जगु संतहु करहु परम गति मोरी ॥ साधसंगति नानकु भइओ मुकता दरसनु पेखत भोरी ॥२॥३७॥६०॥

पद्अर्थ: अंध कूप महि = (माया के मोह के) अंधे कूएं में। पतित होत = गिरता है। संतहु = हे संत जनो! परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मोरी = मेरी। मुकता = (माया के पंजे से) आजाद। भोरी = थोड़ा सा ही।2।

अर्थ: हे संत जनो! जगत माया के मोह के अंधे कूएँ में गिर रहा है (तुम मेहर करो) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था बनाओ (और मुझे माया के पँजे में से बचाओ)। हे नानक! जो मनुष्य साधु-संगत में (परमात्मा का) थोड़ा-जितना भी दर्शन करता है, (वह माया के पंजे से) आजाद हो जाता है।2।37।60।

सारग महला ५ ॥ कहा करहि रे खाटि खाटुली ॥ पवनि अफार तोर चामरो अति जजरी तेरी रे माटुली ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहा करहि = तू क्या करता है? रे = हे भाई! खाटि = कमा के। खाटुली = (माया की) अनुचित कमाई। पवनि = हवा से। अफार = अफरा हुआ, फूला हुआ। तोर चामरो = तेरा चमड़ा, तेरा शरीर। अति = बहुत। जजरी = जर जरा, पुरानी। माटुली = मेरी काया।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मूर्ख)! (माया वाली) अनुचित कमाई कमा के तू क्या करता रहता है? हे मूर्ख! (तू ध्या नही नहीं देता कि) हवा से तेरी चमड़ी फूली हुई है, और, तेरा शरीर बहुत जरज़रा हो जा रहा है।1। रहाउ।

ऊही ते हरिओ ऊहा ले धरिओ जैसे बासा मास देत झाटुली ॥ देवनहारु बिसारिओ अंधुले जिउ सफरी उदरु भरै बहि हाटुली ॥१॥

पद्अर्थ: ऊही ते = वहीं से ही, धरती से ही। हरिओ = चुराया है। ऊहा = वहीं धरती में ही। बासा = बाशा, शिकारी पक्षी। झाटुली = झपट। अंधुले = हे अंधे! सफरी = राही। उदरु = पेट। बहि = बैठ के। हाटुली = किसी दुकान पर।1।

अर्थ: हे मूर्ख! जैसे बाशा माँस के लिए झपट्टा मारता है, वैसे ही तू भी धरती से ही (धन झपट मार के) छीनता है, और, धरती में ही संभाल के रखता है। हे (माया के मोह में) अंधें हुए मनुष्य! तूने सारे पदार्थ देने वाले प्रभु को भुला दिया है, जैसे कोई राही किसी दुकान पर बैठ के अपना पेट भरे जाता है (और, यह चेता ही बिसार देता है कि मेरा राह खोटा हो रहा है)।1।

साद बिकार बिकार झूठ रस जह जानो तह भीर बाटुली ॥ कहु नानक समझु रे इआने आजु कालि खुल्है तेरी गांठुली ॥२॥३८॥६१॥

पद्अर्थ: सद = स्वाद। जह = जहाँ। भीर = भीड़ी, साँकरी। बाटुली = बाट, पगडंडी। आज कालि = आज कल में, जल्दी ही। गांठली = गाँठ, प्राणों की गाँठ।2।

अर्थ: हे मूर्ख! तू विकारों के स्वादों में नाशवान पदार्थों के रसों में (मस्त है) जहाँ तूने जाना है, वह रास्ता (इन रसों के स्वादों के कारण) मुश्किल होता जा रहा है। हे नानक! कह: हे मूर्ख! जल्द ही तेरे प्राणों की गाँठ खुल जानी है।2।38।61।

सारग महला ५ ॥ गुर जीउ संगि तुहारै जानिओ ॥ कोटि जोध उआ की बात न पुछीऐ तां दरगह भी मानिओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुर = हे गुरु! संगि तुहारै = तेरी संगति में। जानिओ = समझ आई है। जोध = योद्धे। उआ की = उन (योद्धाओं) की। न पुछीऐ = नहीं पूछी जानी। तां = (अगर तेरी संगति में रहे) तो। मानिओ = आदर मिलता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे सतिगुरु जी! तेरी संगति में (रह के) ये समझ आई है कि (जो जगत में) करोड़ों सूरमे (कहलवाते थे) उनकी जहाँ बात भी नहीं पूछी जाती (अगर तेरी संगति में टिके रहें) तो उस दरगाह में भी आदर मिलता है।1। रहाउ।

कवन मूलु प्रानी का कहीऐ कवन रूपु द्रिसटानिओ ॥ जोति प्रगास भई माटी संगि दुलभ देह बखानिओ ॥१॥

पद्अर्थ: कवन मूलु = (रक्त बिंदु का) गंदा सा असल। कहीऐ = कहा जा सकता है। कवन रूपु = कैसी सुंदर सूरति। द्रिसटानिओ = दिखाई देती है। संगि = साथ। देह = शरीर। बखानिओ = कहते हैं।1।

अर्थ: (रक्त-बिंदु का) जीव का गंदा सा ही आदि कहा जाता है (पर इस गंदे मूल से भी) कैसी सुंदर शकल दिख जाती है। जब मिट्टी के अंदर (प्रभु की) ज्योति का प्रकाश होता है, तो इसको दुर्लभ (मनुष्य का) शरीर कहते हैं।1।

तुम ते सेव तुम ते जप तापा तुम ते ततु पछानिओ ॥ करु मसतकि धरि कटी जेवरी नानक दास दसानिओ ॥२॥३९॥६२॥

पद्अर्थ: तुम ते = तुझसे ही (हे गुरु!)। ततु = अस्लियत, सही जीवन रास्ता। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। धरि = धर के। दास दसानिओ = दासों का दास।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे सतिगुरु!) तुझसे ही (मैंने) सेवा-भक्ति की विधि सीखी, तुझसे ही जप-तप की समझ आई, तुझसे ही सही जीवन रास्ता समझा। हे गुरु! मेरे माथे पर तूने अपना हाथ रख के मेरे माया के मोह के फंदे को काट दिया है, मैं तेरे दासों का दास हूँ।2।39।62।

सारग महला ५ ॥ हरि हरि दीओ सेवक कउ नाम ॥ मानसु का को बपुरो भाई जा को राखा राम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कउ = को। का को बपुरो = किस का बेचारा है? भाई = हे भाई! जा को = जिस (मनुष्य) का।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! अपने सेवक को परमात्मा अपना नाम स्वयं देता है। हे भाई! जिस मनुष्य का रखवाला परमात्मा स्वयं बनता है, मनुष्य किसका बेचारा है (कि उसका कुछ बिगाड़ सके?)।1। रहाउ।

आपि महा जनु आपे पंचा आपि सेवक कै काम ॥ आपे सगले दूत बिदारे ठाकुर अंतरजाम ॥१॥

पद्अर्थ: महा जनु = मुखिआ। पंचा = मुखिआ। कै काम = के कमों में (सहायक होता है)। दूत = वैरी। बिदारे = तबाह करता है। अंतरजामी = सबके दिल की जाने वाला।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही अपने सेवक के काम आता है, स्वयं ही (उसके वास्ते) मुखिया है। अंतरजामी मालिक-प्रभु स्वयं ही (अपने सेवक के) सारे बैरी समाप्त कर देता है।1।

आपे पति राखी सेवक की आपि कीओ बंधान ॥ आदि जुगादि सेवक की राखै नानक को प्रभु जान ॥२॥४०॥६३॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। पति = इज्जत। बंधान = बाँध, पक्का नियम। आदि = आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। जान = सुजान, जानी जान।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही अपने सेवक की इज्जत रखता है, (उसकी इज्जत बचाने के लिए) स्वयं ही पक्के नियम घड़ देता है। हे भाई! नानक का जानी-जान प्रभु आदि से जुगादि से अपने सेवक की इज्जत रखता आया है।2।40।63।

सारग महला ५ ॥ तू मेरे मीत सखा हरि प्रान ॥ मनु धनु जीउ पिंडु सभु तुमरा इहु तनु सीतो तुमरै धान ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मीत = मित्र। सखा = सहाई। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सीतो = बना है, पला है। तुमरै धान = तेरी बख्शी हुई ख़ुराक से।1। रहाउ।

अर्थ: हे हरि! तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरे प्राणों का सहाई है। मेरा यह मेन धन मेरी ये जिंद ये शरीर - सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। मेरा यह शरीर तेरी ही बख्शी हुई ख़ुराक से पला है।1। रहाउ।

तुम ही दीए अनिक प्रकारा तुम ही दीए मान ॥ सदा सदा तुम ही पति राखहु अंतरजामी जान ॥१॥

पद्अर्थ: दीए = दिए। अनिक प्रकारा = कई किस्मों के पदार्थ। मान = आदर। पति = इज्जत। जान = जानी जान।1।

अर्थ: हे प्रभु! हे दिल के जानने वाले! हे जानी-जान! मुझे तू ही अनेक किस्मों के पदार्थ देता है, तू ही सदा-सदा मेरी इज्जत रखता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh