श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1217

जिन संतन जानिआ तू ठाकुर ते आए परवान ॥ जन का संगु पाईऐ वडभागी नानक संतन कै कुरबान ॥२॥४१॥६४॥

पद्अर्थ: तू = तुझे। ठाकुर = हे मालिक! ते = वे (बहुवचन)। आए = (जगत में) आए हुए। संगु = साथ। वडभागी = बड़े भाग्यों से। कै = से। कुरबान = सदके।2।

अर्थ: हे (मेरे) मालिक! जिस सेत-जनों ने तुझे जान लिया (तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली), उनका ही जगत में आना सफल है। हे नानक! (कह:) संत जनों की संगति बहुत भाग्यों से मिलती है। मैं तो संत-जनों से सदके जाता हूँ।2।41।64।

सारग महला ५ ॥ करहु गति दइआल संतहु मोरी ॥ तुम समरथ कारन करना तूटी तुम ही जोरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। दइआल = हे दया के श्रोत! स्ंतहु = हे संत जनो! मोरी = मेरी। समरथ = सब ताकतों के मालिक। कारन करना = जगत का मूल। करना = करण, जगत। जोरी = जोड़ी।1। रहाउ।

अर्थ: हे दया के श्रोत संतजनो! (मेहर कर के) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था कर दो। तुम सब ताकतों के मालिक और जगत के मूल परमात्मा का रूप हो। परमात्मा से टूटी हुई तवज्जो को तुम ही जोड़ने वाले हो।1। रहाउ।

जनम जनम के बिखई तुम तारे सुमति संगि तुमारै पाई ॥ अनिक जोनि भ्रमते प्रभ बिसरत सासि सासि हरि गाई ॥१॥

पद्अर्थ: बिखई = विषयी, विकारी। सुमति = श्रेष्ठ बुद्धि। संगि = संगत में। भ्रमते = भटकते। बिसरत = बिसारते हुए। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गाई = गाया।1।

अर्थ: हे संत जनो! अनेक जन्मों के विकारियों को तुम (विकारों से) बचा लेते हो, तुम्हारी संगति में रहने से श्रेष्ठ-बुद्धि प्राप्त हो जाती है। परमात्मा को भुला के अनेक जूनियों में भटकते हुओं ने भी (तुम्हारी संगति में) हरेक साँस के साथ प्रभु की महिमा आरम्भ कर दी।1।

जो जो संगि मिले साधू कै ते ते पतित पुनीता ॥ कहु नानक जा के वडभागा तिनि जनमु पदारथु जीता ॥२॥४२॥६५॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। साधू कै संगि = गुरु की संगति में। ते ते = वह सारे। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीता = पवित्र, स्वच्छ जीवन वाले। जा के = जिस (मनुष्य) के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जन्म।2।

अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य गुरु की संगति में मिलते हैं, वे सारे विकारों (भरे जीवन) से (हट कर) स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। हे नानक! कह: जिस मनुष्य के बड़े भाग्य जाग उठे, उसने (संत जनों की संगति में रह के) ये कीमती मनुष्य जन्म (विकारों के आगे) हारने से बचा लिया।2।42।65।

सारग महला ५ ॥ ठाकुर बिनती करन जनु आइओ ॥ सरब सूख आनंद सहज रस सुनत तुहारो नाइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक प्रभु! जनु = (तेरा) दास। सरब = सारे। सहज = आत्मिक अडोलता। सुनत = सुनते हुए। तुहारो नाइओ = तेरा नाम।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! (तेरा) दास (तेरे दर पे) विनती करने आया है। तेरा नाम सुनते हुए आत्मिक अडोकलता के सारे सुख सारे आनंद सारे रस (मिल जाते हैं)।1। रहाउ।

क्रिपा निधान सूख के सागर जसु सभ महि जा को छाइओ ॥ संतसंगि रंग तुम कीए अपना आपु द्रिसटाइओ ॥१॥

पद्अर्थ: क्रिपा निधान = हे मेहर के खजाने! सागर = हे समुंदर! जसु = शोभा। जा को = जिसका। छाइओ = बिखरा हुआ। रंग = आनंद करिश्मे। आपु = अपने आप को। द्रिसटाइओ = प्रकट करता है।1।

अर्थ: हे दया के खजाने! हे सुखों के समुंदर! (तू ऐसा है) जिसकी शोभा सारी सृष्टि में अपना प्रभाव डालती है। संतों की संगति में तू अनेक आनंद-करिश्मे करता है, और, अपने आप को प्रकट करता है।1।

नैनहु संगि संतन की सेवा चरन झारी केसाइओ ॥ आठ पहर दरसनु संतन का सुखु नानक इहु पाइओ ॥२॥४३॥६६॥

पद्अर्थ: नैनहु संगि = आँखों के साथ। झारी = मैं झाड़ता हूँ। केसाइओ = केसों से।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर) आँखों से (दर्शन कर के) मैं संत जनों की सेवा करता रहूँ, उनके चरण अपने केसों से झाड़ता रहूँ। मैं आठों पहर संत जनों के दर्शन करता रहूँ, मुझे यह सुख मिला रहे।2।43।66।

सारग महला ५ ॥ जा की राम नाम लिव लागी ॥ सजनु सुरिदा सुहेला सहजे सो कहीऐ बडभागी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जा की लिव = जिस मनुष्य की लगन। सजनु = भला मनुष्य। सुरिदा = सुंदर हृदय वाला। सुहेला = सुखी। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिका हुआ। कहीऐ = कहा जा सकता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की लगन परमात्मा के नाम के साथ लग जाती है, वह भला मनुष्य बन जाता है, वह सुंदर हृदय वाला हो जाता है, वह सुखी हो जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। उसको बहुत भाग्यशाली कहना चाहिए।1। रहाउ।

रहित बिकार अलप माइआ ते अह्मबुधि बिखु तिआगी ॥ दरस पिआस आस एकहि की टेक हीऐं प्रिअ पागी ॥१॥

पद्अर्थ: रहित = बचा हुआ। अलप = अलिप्त, निर्लिप। ते = से। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। पिआस = तमन्ना। आस = उम्मीद। एकहि की = एक परमात्मा की ही। टेक = आसरा। हीअैं = हृदय में। प्रिअ लागी = प्यारे के पैरों की, प्यारे के चरणों की।1।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा के नाम में जुड़ती है, वह) विकारों से बचा रहता है, माया से निर्लिप रहता है, आत्मिक मौत लाने वाला अहंकार-जहर वह त्याग देता है। उसको सिर्फ परमात्मा के दर्शनों की तमन्ना और इन्तजार बना रहता है, वह मनुष्य अपने हृदय में प्यारे प्रभु के चरणों का आसरा बनाए रखता है।1।

अचिंत सोइ जागनु उठि बैसनु अचिंत हसत बैरागी ॥ कहु नानक जिनि जगतु ठगाना सु माइआ हरि जन ठागी ॥२॥४४॥६७॥

पद्अर्थ: अचिंत = चिन्ता रहित। सोइ जागनु = सो के जागना। उठि बैसनु = उठ के बैठना। सोइ...बैसनु = सोते हुए जागते हुए उठते हुए बैठे हुए। हसत = हसते हुए। बैरागी = वैराग करते हुए। जिनि = जिस (माया) ने। हरि जन = हरि के जनों ने।2।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के रखने वाला मनुष्य) सोता-जागता उठता-बैठता, हसता, वैराग करता - हर वक्त ही चिन्ता-रहित रहता है। हे नानक! कह: जिस माया ने सारे जगत को भरमाया है, संत जनों ने उस माया को अपने वश में रखा हुआ है।2।44।67।

सारग महला ५ ॥ अब जन ऊपरि को न पुकारै ॥ पूकारन कउ जो उदमु करता गुरु परमेसरु ता कउ मारै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = कोई (मनुष्य)। पुकारै = दूषण लगाता, उंगली करता। पूकारन कउ = दूषण लगाने के लिए। ता कउ = उस (मनुष्य) को। मारै = (आत्मिक मौत) मारता है, आत्मिक जीवन तुच्छ कर देता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जब मनुष्य गुरु के वचनों पर चल कर हरि-नाम जपता है) तब उस सेवक पर कोई मनुष्य कोई दूषण नहीं लगा सकता। जो मनुष्य प्रभु के सेवक पर दूषणबाज़ी का प्रयत्न करता है, गुरु परमात्मा उसका आत्मिक जीवन नीच कर देता है।1। रहाउ।

निरवैरै संगि वैरु रचावै हरि दरगह ओहु हारै ॥ आदि जुगादि प्रभ की वडिआई जन की पैज सवारै ॥१॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। रचावै = सहेड़ता है। हारै = हार जाता है, जीवन बाज़ी हार जाता है, आत्मिक जीवन के तोल में पूरा नहीं उतरता। जुगादि = जुगासें के आरम्भ से। वडिआई = बिरद। पैज = इज्जत।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य कभी किसी के साथ वैर नहीं करता, उसके साथ जो भी वैर कमाता है, वह मनुष्य परमात्मा की दरगाह में आत्मिक जीवन की कसौटी पर पूरा नहीं उतरता। हे भाई! जगत के आरम्भ से, जुगों की शुरूवात से ही परमात्मा का यह गुण (बिरद) चला आ रहा है कि वह अपने सेवक की इज्जत रखता है।1।

निरभउ भए सगल भउ मिटिआ चरन कमल आधारै ॥ गुर कै बचनि जपिओ नाउ नानक प्रगट भइओ संसारै ॥२॥४५॥६८॥

पद्अर्थ: सगल = सारा। आधारै = आसरे, आसरा लेने से। कै बचनि = के वचन से, के वचन पर चलने से। संसारै = संसार में।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुदर चरणों का आसरा लेने से प्रभु का सेवक निर्भय हो जाता है, उसका (दुनियावी) हरेक डर मिट जाता है। हे नानक! (कह:) गुरु के उपदेश पर चल के जिसने भी परमात्मा का नाम जपा, वह जगत में नामवर (मशहूर) हो गया।2।45।68।

सारग महला ५ ॥ हरि जन छोडिआ सगला आपु ॥ जिउ जानहु तिउ रखहु गुसाई पेखि जीवां परतापु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि जन = प्रभु के सेवकों ने। आपु = स्वै भाव, अहम्। गुसाई = हे जगत के साई! पेखि = देख के। जीवां = मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! (जैसे) तेरे भक्तों ने स्वै भाव त्यागा होता है (और, तेरे दर पर आरजू करते हैं वैसे ही मैं भी स्वै-भाव छोड़ के विनती करता हूँ-) हे जगत के पति! जैसे हो सके वैसे (इस माया के हाथ से) मेरी रक्षा कर। तेरा प्रताप देख के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।1। रहाउ।

गुर उपदेसि साध की संगति बिनसिओ सगल संतापु ॥ मित्र सत्र पेखि समतु बीचारिओ सगल स्मभाखन जापु ॥१॥

पद्अर्थ: गुर उपदेसि = गुरु के उपदेश से। संतापु = दुख-कष्ट। सत्र = शत्रु, वैरी। समतु = एक समान। संभाखनु = बोल चाल।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु के उपदेश से, साधु-संगत की इनायत से (जिस मनुष्य के अंदर से) सारा दुख-कष्ट नाश हो जाता है, वह अपने मित्रों-वैरियों को देख के (सबमें प्रभु की ही ज्योति) एक-समान समझता है, परमात्मा के नाम का जपना ही उसकी हर वक्त की बोलचाल है।1।

तपति बुझी सीतल आघाने सुनि अनहद बिसम भए बिसमाद ॥ अनदु भइआ नानक मनि साचा पूरन पूरे नाद ॥२॥४६॥६९॥

पद्अर्थ: तपति = जलन। आघाने = तृप्त हो गए। सुनि = सुन के। अनहद = एक रस नाम की धुनि। बिसम = हैरान, आश्चर्य। मनि = मन मे। साचा = सदा कायम रहने वाला। पूरन = पूरे तौर पर। पूरे नाद = नाद पूरे हो जाते हैं, नाद बजते हें, महिमा की घनघोर होती है (जैसे, शंख पूरना = शंख बजाना)।2।

अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्यों के) मन में सदा-स्थिर प्रभु आ बसता है, (उनके अंदर की) जलन बुझ जाती है, (उनका हृदय) शांत हो जाता है, वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं; एक-रस नाम की धुनि सुन के वह आश्चर्य हुए रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है (जैसे कि उनके अंदर) पूरे तौर पर शंख आदि नाद बज रहे हैं।2।46।69।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh