श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1218 सारग महला ५ ॥ मेरै गुरि मोरो सहसा उतारिआ ॥ तिसु गुर कै जाईऐ बलिहारी सदा सदा हउ वारिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरै गुरि = मेरे गुरु ने। मोरो = मेरा। सहसा = सहम, दोचिक्ता पन। कै = से। वारिआ = कुर्बान, सदके।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरे गुरु ने (मेरे अंदर से हर वक्त का) सहम दूर कर दिया है। हे भाई! मैं (उस गुरु से) सदा सदा ही सदके जाता हूँ।1। रहाउ। गुर का नामु जपिओ दिनु राती गुर के चरन मनि धारिआ ॥ गुर की धूरि करउ नित मजनु किलविख मैलु उतारिआ ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन मे। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मजनु = स्नान। किलविख = पाप।1। अर्थ: हे भाई! मैं दिन-रात (अपने) गुरु का नाम याद रखता हूँ, मैं अपने मन में गुरु के चरण टिकाए रखता हूँ (भाव, अदब-सत्कार से गुरु की याद हृदय में बसाए रखता हूँ)। मैं सदा गुरु के चरणों की धूल में स्नान करता रहता हूँ, (इस स्नान ने मेरे मन से) पापों की मैल उतार दी है।1। गुर पूरे की करउ नित सेवा गुरु अपना नमसकारिआ ॥ सरब फला दीन्हे गुरि पूरै नानक गुरि निसतारिआ ॥२॥४७॥७०॥ पद्अर्थ: सरब = सारे। गुरि = गुरु ने। निसतारिओ = पार लंघा दिया है।2। अर्थ: हे भाई! मैं सदा पूरे गुरु की (बताई हुई) सेवा करता हूँ, गुरु के आगे सिर झुकाए रखता हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) पूरे गुरु ने मुझे (दुनिया के) सारे (मुँह-माँगे) फल दिए हैं, गुरु ने (मुझे जगत के विकारों से) पार लंघा लिया है।2।47।70। सारग महला ५ ॥ सिमरत नामु प्रान गति पावै ॥ मिटहि कलेस त्रास सभ नासै साधसंगि हितु लावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। त्रास = डरा। सभ = सारा। हितु = प्यार।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए मनुष्य जीवन की ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य साधु-संगत में प्यार डालता है, उसके सारे कष्ट मिट जाते हैं, उसका हरेक डर दूर हो जाता है।1। रहाउ। हरि हरि हरि हरि मनि आराधे रसना हरि जसु गावै ॥ तजि अभिमानु काम क्रोधु निंदा बासुदेव रंगु लावै ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। आराधे = आराधता है, स्मरण करता है। रसना = जीभ से। तजि = त्याग के। वासुदेव रंगु = परमात्मा का प्यार।1। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) सदा (अपने) मन में परमात्मा की आराधना करता रहता है, जो अपनी जीभ से प्रभु की महिमा गाता रहता है, वह मनुष्य (अपने अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार-निंदा (आदि विकार) दूर करके (अपने अंदर) परमात्मा का प्रेम पैदा कर लेता है।1। दामोदर दइआल आराधहु गोबिंद करत सुोहावै ॥ कहु नानक सभ की होइ रेना हरि हरि दरसि समावै ॥२॥४८॥७१॥ पद्अर्थ: दामोदर = दाम+उदर, परमात्मा। आराधहु = स्मरण किया करो। सुोहावै = सुंदर लगता है। नोट: 'सुोहावै' में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सोहावै, यहां ‘सुहावै’ पढ़ना है। रेना = चरणों की धूल। दरसि = दर्शन में।2। अर्थ: हे भाई! दया के श्रोत परमात्मा का नाम स्मरण करते रहा करो। गोबिंद (का नाम) स्मरण करते हुए ही जीवन सुंदर बनता है। हे नानक! कह: सबकी चरण-धूल हो के मनुष्य परमात्मा के दर्शन में लीन हुआ रहता है।2।48।71। सारग महला ५ ॥ अपुने गुर पूरे बलिहारै ॥ प्रगट प्रतापु कीओ नाम को राखे राखनहारै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बलिहारै = सदके। को = का। राखनहारै = रक्षा करने वाले ने।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ। (गुरु परमात्मा के) नाम का प्रताप (जगत में) प्रसिद्ध करता है। रक्षा करने की समर्थता वाला प्रभु (नाम जपने वालों को अनेक दुखों से) बचाता है।1। रहाउ। निरभउ कीए सेवक दास अपने सगले दूख बिदारै ॥ आन उपाव तिआगि जन सगले चरन कमल रिद धारै ॥१॥ पद्अर्थ: बिदारै = नाश कर देता है। आन = अन्य, और। उपाव = उपाय, प्रयत्न। तिआगि = त्याग के। धारै = टिकाता है। रिद = हृदय में। सगले उपाव = सारे उपाय।1। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से ही) प्रभु अपने सेवकों दासों को (दुखों विकारों के मुकाबले के लिए) दलेर कर देता है, (सेवकों के) सारे दुख नाश करता है। (प्रभु का) सेवक (भी) और सारे उपाय छोड़ के परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रखता है।1। प्रान अधार मीत साजन प्रभ एकै एकंकारै ॥ सभ ते ऊच ठाकुरु नानक का बार बार नमसकारै ॥२॥४९॥७२॥ पद्अर्थ: अधार = आसरा। एकंकारै = परमात्मा (ही)। ते = से। ठाकुरु = मालिक प्रभु। बार बार = मुड़ मुड़ के।2। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की मेहर से नाम जपते हैं, उनको ये निश्चय हो जाता है कि) सिर्फ परमात्मा ही सिर्फ प्रभु ही प्राणों का आसरा है और सज्जन-मित्र है। हे भाई! (दास) नानक का (तो परमात्मा ही) सबसे ऊँचा मालिक है। (नानक) सदा बार-बार (परमात्मा को ही) सिर झुकाता है।2।49।72। सारग महला ५ ॥ बिनु हरि है को कहा बतावहु ॥ सुख समूह करुणा मै करता तिसु प्रभ सदा धिआवहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = कौन? कहा = कहाँ? बतावहु = बताओ। सुख समूह = सारे सुखों का मूल। करुणा मै = करुणामय, तरस रूप। करता = कर्तार।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! बताओ, परमात्मा के बिना और कौन (सहायता करने वाला) है और कहाँ है? वह विधाता सारे सुखों का श्रोत है, वह प्रभु करुणामय है। हे भाई! सदा उसका स्मरण करते रहो।1। रहाउ। जा कै सूति परोए जंता तिसु प्रभ का जसु गावहु ॥ सिमरि ठाकुरु जिनि सभु किछु दीना आन कहा पहि जावहु ॥१॥ पद्अर्थ: सूति = सूत्र में। जा कै सूति = जिस के हुक्म रूपी धागे में। जसु = यश, महिमा का गीत। सिमरि = सिरा करो। जिनि = जिस (ठाकुर) ने। कहा = कहाँ? आन पहि = किसी और के पास।1। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के (हुक्म-रूप) धागे में सारे जीव परोए हुए हैं, उसकी महिमा के गीत गाते रहा करो। जिस (मालिक-प्रभु) ने हरेक चीज दी हुई है उसका स्मरण8 किया करो। (उसका आसरा छोड़ के) और कहाँ किसके पास जाते हो?।1। सफल सेवा सुआमी मेरे की मन बांछत फल पावहु ॥ कहु नानक लाभु लाहा लै चालहु सुख सेती घरि जावहु ॥२॥५०॥७३॥ पद्अर्थ: सफल = फल देने वाली। सेवा = भक्ति। मन बांछत = मन मांगे। लाहा = लाभ। लै = ले के। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु के चरणों में।2। अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक-प्रभु की ही भक्ति सारे फल देने वाली है (उसके दर से ही) मान-माँगे फल प्रासप्त कर सकते हो। हे नानक! कह: हे भाई! (जगत से परमात्मा की भक्ति का) लाभ कमा के चलो, बड़े आनंद से प्रभु के चरणों में पहुँचोगे।2।50।73। सारग महला ५ ॥ ठाकुर तुम्ह सरणाई आइआ ॥ उतरि गइओ मेरे मन का संसा जब ते दरसनु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक प्रभु! संसा = सहम। जब ते = जब से।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! (मैं) तेरी शरण आया हूँ। जब से मैंने तेरे दर्शन किए हैं (तब से ही) मेरे मन से (हरेक) सहम उतर गया है।1। रहाउ। अनबोलत मेरी बिरथा जानी अपना नामु जपाइआ ॥ दुख नाठे सुख सहजि समाए अनद अनद गुण गाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: अन बोलत = बिना बोले। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। जानी = तूने जान ली है। नाठे = भाग गए हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अनद = आनंद।1। अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! तूने (सदा ही मेरे) बिना बोले मेरा दुख समझ लिया है, तूने खुद ही मुझसे अपना नाम जपाया है। जब से बड़े आनंद से मैं तेरे गुण गाता हूँ, मेरे (सारे) दुख दूर हो गए हैं, सुखों में आत्मिक अडोलता में मैं मगन रहता हूँ।1। बाह पकरि कढि लीने अपुने ग्रिह अंध कूप ते माइआ ॥ कहु नानक गुरि बंधन काटे बिछुरत आनि मिलाइआ ॥२॥५१॥७४॥ पद्अर्थ: पकरि = पकड़ के। ग्रिह अंध कूप ते माइआ = माया (के) अंध कूप गृह से, माया के अंधे कूएँ घर से। गुरि = गुरु ने। आनि = ला के।2। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) अपने (सेवकों) की बाँह पकड़ के उनको माया के (मोह के) अंधे कूएँ में से अंधेरे घर में से निकाल लेता है। हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के माया के मोह के) फंदों को काट दिया, (प्रभु चरणों से) उस विछुड़े हुए को ला के (प्रभु चरणों में) मिला दिया।2।51।74। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |