श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1219 सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की गति ठांढी ॥ बेद पुरान सिम्रिति साधू जन खोजत खोजत काढी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गति = हालत, तासीर, प्रभाव। ठांढी = ठंढक देने वाली, शांति देने वाली। खोजत = खोज करते हुए। काढी = कही है, बताई है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम शांति देने वाली गति है; यही बातें वेदों-पुराणों-स्मृतियों और साधु-जनों ने खोज-खोज के बताई हैं।1। रहाउ। सिव बिरंच अरु इंद्र लोक ता महि जलतौ फिरिआ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी भए सीतल दूखु दरदु भ्रमु हिरिआ ॥१॥ पद्अर्थ: सिव = शिव (-लोक)। बिरंच = ब्रहमा, ब्रहम (-लोक)। अरु = और (अरि = वैरी)। ता महि = उन (लोगों) में। जलतौ = (तृष्णा की आग) जलता ही। सिमरि = स्मरण करके। सीतल = शांत, ठंडा। हिरिआ = दूर कर लिया।1। अर्थ: हे भाई! शिव-लोक, ब्रहम-लोक, इन्द्र-लोक - इन (लोकों) में पहुँच हुआ भी तृष्णा की आग में जलता ही फिरता है। स्वामी-प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के जीव शांत मन हो जाते हैं। (नाम-जपने की इनायत से) सारा दुख-दर्द और भटकना दूर हो जाता है।1। जो जो तरिओ पुरातनु नवतनु भगति भाइ हरि देवा ॥ नानक की बेनंती प्रभ जीउ मिलै संत जन सेवा ॥२॥५२॥७५॥ पद्अर्थ: जो जो = जो (भक्त)। पुरातनु = पुराने समय का। नवतनु = नए समय का, नया। भाइ = प्रेम से (भाउ = प्रेम)। प्रभ जीउ = हे प्रभु जी! मिलै = मिल जाए।1। अर्थ: हे भाई! पुराने समय का चाहे नए समय का जो जो भी (भक्त) संसार-समुंदर से पार लांघा है, वह प्रभु-देव की भक्ति की इनायत से प्रेम की इनायत से ही लांघा है। हे प्रभु जी! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर यही) बिनती है कि (मुझे तेरे) संतजनों की (शरण में रह के) सेवा करने का मौका मिल जाए।2।52।75। सारग महला ५ ॥ जिहवे अम्रित गुण हरि गाउ ॥ हरि हरि बोलि कथा सुनि हरि की उचरहु प्रभ को नाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिहवे = हे (मेरी) जीभ! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। गाउ = गाया कर। को = का।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरी) जीभ! परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले आत्मिक गुण गाया कर। हे भाई! परमात्मा का नाम उचारा कर, प्रभु की महिमा सुना कर, प्रभु का नाम उचारा कर।1। रहाउ। राम नामु रतन धनु संचहु मनि तनि लावहु भाउ ॥ आन बिभूत मिथिआ करि मानहु साचा इहै सुआउ ॥१॥ पद्अर्थ: रतन धनु = कीमती धन। संचहु = इकट्ठा किया कर। मनि = मन में। तनि = तन मे। भाउ = प्रेम। आन = अन्य। बिभूत = ऐश्वर्य, धन पदार्थ। मिथिआ = नाशवान। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = उद्देश्य।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही कीमती धन है, ये धन एकत्र किया कर। अपने मन में अपने हृदय में प्रभु का प्यार बनाया कर। हे भाई! (नाम के बिना) और सारे धन-पदार्थों को नाशवान समझ। (परमात्मा का नाम ही) सदा कायम रहने वाला जीवन का लक्ष्य है।1। जीअ प्रान मुकति को दाता एकस सिउ लिव लाउ ॥ कहु नानक ता की सरणाई देत सगल अपिआउ ॥२॥५३॥७६॥ पद्अर्थ: को = का। जीअ = जिंद। एकस सिउ = एक (परमात्मा) के साथ ही। लिव = लगन। ता की = उस (परमात्मा) की। सगल = सारे। अपिआउ = भोजन, खाने।2। अर्थ: हे भाई! सिर्फ परमात्मा (के नाम) से लगन पैदा कर, परमात्मा ही जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, मुक्ति (उच्च आत्मिक दशा) देने वाला है। हे नानक! कह: (हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़ा रह जो सारे खाने-पीने के पदार्थ देता है।2।53।76। सारग महला ५ ॥ होती नही कवन कछु करणी ॥ इहै ओट पाई मिलि संतह गोपाल एक की सरणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: होती नही = नहीं हो सकती। करणी = अच्छी कार, अच्छा करतब। मिलि = मिल के। ओट = आसरा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मुझसे कोई सही काम नहीं हो सकता। संत जनों को मिल के सिर्फ परमात्मा की शरण पड़े रहना- सिर्फ यही आसरा मैंने ढूँढा है।1। रहाउ। पंच दोख छिद्र इआ तन महि बिखै बिआधि की करणी ॥ आस अपार दिनस गणि राखे ग्रसत जात बलु जरणी ॥१॥ पद्अर्थ: पंच दोख = (कामादिक) पाँच विकार। छिद्र = ऐब। इआ तन महि = इस शरीर में। बिखै = विषौ विकार। बिआधि = विकार। बिआधि की करणी = विकारों वाली करतूत। अपार = अ+पार, बेअंत। गणि राखे = गिन के रखे हुए, थोड़े। ग्रसत जात = ग्रसा जा रहा है। बलु = ताकत को। जरणी = जरा, बुढ़ापा।1। अर्थ: हे भाई! (कामादिक) पाँचों विकार व अन्य ऐब (जीव के) इस शरीर में टिके रहते हैं, विषौ-विकारों वाली करणी (जीव की) बनी रहती है। (जीव की) आशाएं बेअंत होती हैं, पर जिंदगी के दिन गिने-चुने होते हैं। बुढ़ापा (जीव के शारीरिक) बल को खाए जाता है।1। अनाथह नाथ दइआल सुख सागर सरब दोख भै हरणी ॥ मनि बांछत चितवत नानक दास पेखि जीवा प्रभ चरणी ॥२॥५४॥७७॥ पद्अर्थ: अनाथह नाथ = हे अनाथों के नाथ! सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! सरब दोख भै हरणी = हे सारे ऐब और डर दूर करने वाले! मनि बांछत = मन मांगी मुराद। चितवत = चितवता रहता है। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, जीवित रहूँ, आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।2। अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे अनाथों के नाथ प्रभु! हे दया के सोमे प्रभु! हे सुखों के समुंदर! हे (जीवों के) सारे विकार और डर दूर करने वाले! (तेरा दास तेरे दर से यह) मन-माँगी मुराद चाहता है कि हे प्रभु! तेरे चरणों के दर्शन करके मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।2।58।77। सारग महला ५ ॥ फीके हरि के नाम बिनु साद ॥ अम्रित रसु कीरतनु हरि गाईऐ अहिनिसि पूरन नाद ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: फीके = बेस्वादे। साद = (मायावी पदार्थों के) स्वाद। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। गाईऐ = गाना चाहिए। अहि = दिन। निसि = रात। पूरन नाद = नाद पूरे जाएंगे, (आत्मिक आनंद के) बाजे बजेंगे।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (मायावी पदार्थों के) स्वाद फीके हैं। हे भाई! प्रभु का कीर्तन ही आत्मिक जीवन देने वाला रस है, हरि का कीर्तन ही गाना चाहिए (जो मनुष्य गाता है, उसके अंदर) दिन-रात आत्मिक आनंद के बाजे बजते रहते हैं।1। रहाउ। सिमरत सांति महा सुखु पाईऐ मिटि जाहि सगल बिखाद ॥ हरि हरि लाभु साधसंगि पाईऐ घरि लै आवहु लादि ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। पाईऐ = प्राप्त करते हैं। बिखाद = दुख-कष्ट, झगड़े। साध संगि = गुरु की संगति में। घरि = हृदय घर में। लादि = लाद के।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से आत्मिक शांति मिलती है बहुत सुख प्राप्त होता है, (अंदर से) सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं। पर परमात्मा का नाम स्मरण करने का यह लाभ साधु-संगत में ही मिलता है। (जो मनुष्य गुरु की संगति में मिल के बैठते हैं वह) अपने हृदय-घर में ये कमाई कर के ले आते हैं।1। सभ ते ऊच ऊच ते ऊचो अंतु नही मरजाद ॥ बरनि न साकउ नानक महिमा पेखि रहे बिसमाद ॥२॥५५॥७८॥ पद्अर्थ: मरजाद = मर्यादा (का)। साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। महिमा = बड़ाई। पेखि = देख के। बिसमादु = हैरान।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा सबसे ऊँचा है, ऊँचों से भी ऊँचा है, उसकी सीमाओं का अंत नहीं पाया जा सकता। मैं उसकी महिमा (बड़ाई) बयान नहीं कर सकता, देख के ही हैरान रह जाता हूँ।2।55।78। सारग महला ५ ॥ आइओ सुनन पड़न कउ बाणी ॥ नामु विसारि लगहि अन लालचि बिरथा जनमु पराणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी। विसारि = भुला के। लगहि = (जो) लगते हैं (बहुवचन)। अन्य लालचि = और लालच में। जनमु पराणी = उन प्राणियों का जन्म।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जगत में जीव) परमात्मा की महिमा सुनने-पढ़ने के लिए आया है (यही है इसका असल जनम-उद्देश्य)। पर, जो प्राणी (परमात्मा का) नाम भुला के और ही लालच में लगे रहते हैं, उनका मनुष्य जन्म व्यर्थ चला जाता है।1। रहाउ। समझु अचेत चेति मन मेरे कथी संतन अकथ कहाणी ॥ लाभु लैहु हरि रिदै अराधहु छुटकै आवण जाणी ॥१॥ पद्अर्थ: अचेत मन = हे गाफिल मन! कथी = बयान की है। संतन = संतां ने। अकथ कहाणी = अकथ प्रभु की महिमा। अकथ = अ+कथ, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। रिदै = हृदय में। छुटकै = समाप्त हो जाती है।1। अर्थ: हे मेरे गाफिल मन! होश कर, अकथ प्रभु की जो महिमा संत जनों ने बताई है उसको याद किया कर। हे भाई! परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ, यह लाभ कमाओ। (इस लाभ से) जनम-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।1। उदमु सकति सिआणप तुम्हरी देहि त नामु वखाणी ॥ सेई भगत भगति से लागे नानक जो प्रभ भाणी ॥२॥५६॥७९॥ पद्अर्थ: सकति = शक्ति, ताकत। देहि = अगर तू दे। त = तो। वखाणी = मैं उचारूँ। सेई = वह ही (बहुवचन)। प्रभ भाणी = प्रभु को भा गए।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरा ही दियश हुआ उद्यम तेरी ही दी हुई शक्ति और समझदारी (हम जीव बरत सकते हैं), अगर तू (उद्यम-शक्ति-समझदारी) बख्शे, तब ही मैं नाम जप सकता हूँ। हे भाई! वही मनुष्य भक्त (बन सकते हैं) वही परमात्मा की भक्ति में लग सकते हैं, जो प्रभु को पसंद आ जाते हैं।2।56।79। सारग महला ५ ॥ धनवंत नाम के वणजारे ॥ सांझी करहु नाम धनु खाटहु गुर का सबदु वीचारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: धनवंत = धनाढ, अमीर। वणजारे = व्यापारी, वणज करने वाले। सांझी = भाईवाली। सांझी करहु = सांझ डालो। वीचारे = विचार के, मन में बसा के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! असल धनाढ मनुष्य वे हैं जो परमात्मा के नाम का व्यापार करते हैं। उनके साथ सांझ बनाओ, और गुरु का शब्द अपने मन में बसा के परमात्मा का नाम-धन कमाओ।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |